द्वितीय अध्याय
नाट्यशास्त्र के दूसरे अध्याय पर आधारित प्रेक्षागृह (नाट्यमण्डप) की योजना, निर्माण और वास्तुशास्त्रीय विधान को कविता रूप :
(नाट्यशास्त्र द्वितीय अध्याय पर आधारित कविता)
विश्वकर्मा की वाणी से, प्रकट हुआ शास्त्र महान,
नाट्यशाला के निर्मित हेतु, दिया विधानों का विधान।
विकृष्ट, चतुरश्र, त्र्यश्र तीनों, नाट्यमण्डप के नाम,
ज्येष्ठ, मध्य, अवर प्रमाणों से, होते विविध विशेष काम।
हस्त-दण्ड सम नाप विधानों से, होती मण्डप की माप,
ज्येष्ठ को हो एक सौ आठ, मध्यम को चौंसठ हाथ।
बत्तीस हस्त अवर माने, जहाँ प्रकृति हो सामान्य,
देव-प्रस्तुति को ज्येष्ठ चाहिए, राजाओं को मध्यम जान्य।
बड़े मण्डप में गूँज उठेगा, स्वर न होगा स्पष्ट वहाँ,
मुख के भाव बिखर जाते हैं, दीर्घ गगन में व्यर्थ यहाँ।
मध्यम मण्डप श्रेष्ठ बताया, गेय-पाठ्य का हो प्रसार,
नाटक का हर भाव-प्रसंग, पहुँचे प्रेक्षक के पास अपार।
भूमि परीक्षा कर ले पहले, हो कठोर, सम और शुद्ध,
काली या श्वेत हो माटी, हो स्थल शुभ और निर्द्वन्द।
सूत्र बाँध पुष्य नक्षत्र में, कर दे चिन्हित यथावत,
सूत्र हो कपास, मूँज, ऊन से, टूटे न वह, हो कथावत।
चौंसठ हस्त नाप कर भूमि, दो भागों में करे विभाजन,
रंगशीर्ष व नेपथ्य रचे, हो शुभ रंगपीठ का आरंभन।
मत्तवारणी रचे दो ओर, डेढ़ हस्त की ऊँचाई हो,
स्तंभ चार-चार खड़े वहाँ पर, आभा उनकी सजीव हो।
रंगशीर्ष को षड्दारुक से, सज्जित करना श्रेष्ठ कहा,
नेपथ्यगृह हो पार्श्व में, रंगपीठ का दृढ़ आधार बहा।
रंगमंच समतल हो जैसे, स्वच्छ दर्पण का हो तल,
काली मिट्टी से भरे वहाँ, न हो कुर्म या मत्स्य विकल।
प्रत्यूह, ऊह से शोभित हो, निर्क्यूह व्यालों से सुसज्य,
कपोतली छत्रिका ऊपर, चारों ओर हो चित्र अलक्ष्य।
स्तंभ न आए द्वार के सम्मुख, न द्वार-द्वार हो आमुख,
वायु बहे सुलग-सुलग कर, स्वर की गंभीरता हो प्रामुख।
दीवारें हों चित्रमय, लता-पट, स्त्री-पुरुष हों अंकित,
प्राकृतिक, चरित्र हो सम्यक, भित्ति हो चूने से चित्रित।
चतुरश्र हो चार भुजाओं में, बत्तीस-बत्तीस हस्त माप,
मण्डप धारण हेतु भीतर, स्तंभ दस करें संताप।
सीढ़ीनुमा आसन रचे जो, भूमि से एक हस्त ऊँच,
सबको रंगपीठ दिखे स्पष्ट, ऐसा हो स्थापत्य साँच।
त्र्यश्र मण्डप त्रिकोणरूप, रंगपीठ भी त्रिकोण समान,
एक कोने से हो प्रवेश, एक द्वार हो अभिनेता गान।
नाट्यशाला हो पर्वत गुफा सम, द्विभूमि का ले आकार,
झरोखों से वायु मंद बहे, स्वर हो गंभीर, श्रव्य अपार।
@Dr. Raghavendra Mishra
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