लक्ष्मणगुप्त! वह जप हैं, अधरों से शिव ही निकलते...
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
उत्पल के चरणों का रज, सिर पर धारण किए,
तप में तपे, शब्द में सधे, अंतर्मन शिव में जिए।
लक्ष्मणगुप्त, वह नाम हैं, नाद में जो मौन सजे,
कश्मीर की उस ऋषि पंक्ति में, जो शिवस्वरूप बने।।
न ग्रंथों की बहार लिए, न शब्दों का विस्तार,
पर ज्ञेय से परे बना वह, तत्त्व का जीवित आधार।
गुरु के गूढ़ विचारों को, हृदय में ज्यों अमृत पिया,
और दीक्षिता की भावना से, चैतन्य की धारा जिया।।
प्रत्यभिज्ञा की गूढ़ रश्मि, उनके अनुभव से जले,
न भूले स्वरूप आत्मा का, न माया में मन फले।
"शिव मैं हूँ" यह बोध बना, उसके अस्तित्व की गूंज,
हर दृष्टि में देखे शिव को, हर श्वास में वही पुंज।।
और एक दिवस वह संयोग, एक बालक आया द्वार,
ज्ञान-पिपासु, साधना-सिंचित, शिव चेतना से अपार।
लक्ष्मण ने खोले उस पर, शिव-ज्योति के भाव,
हे अभिनव! तू वंशज है, शिव चैतन्य का नाव।।
दीक्षा दी, ना केवल मंत्र की, दी आत्मा की पहचान,
वेद, तंत्र, प्रत्यभिज्ञा सब, ज्ञान कराए एक समान।
शब्दों की जो थाह न पाए, उस मौन के शिक्षक बने,
भविष्य के अभिनवगुप्त में, स्वस्वरूप का वंशज तने।।
न सिंहासन, न शिष्य समूह, न कोई शास्त्र संवाद,
फिर भी वह मूल बना रहा, दर्शन अविनाशी नाद।
उस मौन ऋषि के तप से ही, तन्त्रालोक का दीप जला,
प्रत्यभिज्ञा की वह सरिता, शिवसाक्षात्कार तक चला।।
लक्ष्मणगुप्त! वह जप हैं, अधरों से शिव ही निकलते,
वह सत्त्व प्रकाश हैं, शिष्य उनके ज्ञान से सदैव पलते।
तू कश्मीर की आत्मा है, जो शब्द से परे संवाद करे,
तू शिवस्वरूप की वह शान्ति है, जो मौन में भी नाद करे।।
@Dr. Raghavendra Mishra
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