हे देवी शारिका, योगमयी! नारी चेतना की किरण आप
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
शिवरूपा थी, साध्वी सुभगा, मौन में जिनका ध्यान जगा,
शारिका देवी नाम जिनका, शिव नाम चित्त जपने लगा।
स्वर में नहीं, स्वरूप में थी, ज्ञानगंगा की बहती धारा,
नारी देह में ब्रह्म छिपा था, वह थी साधना की पगधारा।।
लक्ष्मण गुरु की दृष्टि जहाँ पड़ी, चेतन शिव जाग उठे वहाँ,
संकोच नहीं, संन्यास नहीं, मौन तपस्या में जपे वह जहां।
प्रभु को देखा अपने भीतर, मैं का पर्दा गिरा स्वयं से,
रहस्य बन गईं वो आत्मबोध का, बिन कहे ज्ञान कह गईं क्षण से।।
शिव मैं नहीं, शिव मुझमें है, यह भाव बसा हर श्वासों में,
अहंकार न था, अधिकार न था, बस भक्ति बहा विश्वासों में।
ना कोई भाषण, ना कोई शास्त्र, ना मंचों की कोई अभिलाषा,
उनकी चुप्पी में गूंजती थी, तुरीय अवस्था की परिभाषा।।
माँ शारिका हैं वह प्रतिछाया, यह पूर्ण व्याख्या हैं स्त्रीत्व की,
गृहस्थ रहकर ब्रह्म ले लिया, करुणा बन गई रूप सतीत्व की।
ना कोई सिंहासन माँगा, ना जयकारा, ना पहचान,
साधक आज भी मौन में पाते, उनकी कृपा, उनका वरदान।।
जो था, गया; जो है, शिव है, उनकी वाणी का सार यही,
मुझे भूलो, शिव को देखो योगिनी की पुकार यही।
प्रभा बहन ने शब्दों में बाँधा, जो मौन में वह छोड़ गईं,
शक्त्युल्लास में अनहद गूंजे, अनुभूति की पंक्ति जोड़ गईं।।
हे देवी शारिका, योगमयी! नारी चेतना की किरण आप,
संस्कृति, साधना, शांति सबकी सजीव प्रतिमा शक्ति जाप।
कश्मीर की उस धूप में तुम, जो हिम की छाया में मुसकाई,
तुमसे प्रेरित साधना आज भी, शिव-पथ की राह दिखलाई।।
जय हो योगिनी शिवरूपा,
जय हो मौन साधना की स्वरूपा।
जय हो नारी-शक्ति ब्रह्म-प्रकाशिनी,
जय हो शारिका देवी कल्यानी।।
@Dr. Raghavendra Mishra
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