डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
अखण्ड भारतवर्ष के अंतर्गत जम्मू कश्मीर के सम्राट राजा ललितादित्य मुक्तापीड के तेजस्वी जीवन, अखंड भारत की भावना, सनातन संस्कृति तथा जम्मू कश्मीर की सनातन परंपरा को समर्पित एक राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत, भावगंभीर कविता:
"अखण्ड भारतवर्ष का ध्रुवतारा ललितादित्य"
(अखण्ड भारतवर्ष, सनातन संस्कृति, भाषा, साहित्य और जम्मू कश्मीर की आत्मा को समर्पित)
जग में जली जो अखंड जोत थी, वो कश्मीर की दिशा थी,
ललितादित्य सम्राट बने, जो शिव-वंश की शिखा थी।
ना केवल राज किया भू पर, मन भी बाँधे धर्म के सूत्र,
जहाँ जहाँ चरण पड़े उनके, वहाँ खिले भारत के पुत्र।
मार्तण्ड की प्राची से उठकर, गूंजे शंख हिमगिरि में,
सिंधु तटों से दक्षिण तक, बजते नगाड़े रणगिरि में।
अरबों के गर्व को हर कर, रक्षा की स्वधर्म-भूमि की,
तिब्बत, बल्ख, बुखारा बोले – जय बोलो भारतभूमि की।
सावन के शिव जैसा धीरज, सूरज से उज्ज्वल तेज था,
राज्य नहीं, विचार रचे थे – वह ऋषियों का वेग था।
बुद्धों को भी मान दिया, वेदों का सम्मान किया,
सर्वपंथ-सम्मान की वह, सच्ची सनातन जान लिया।
भारतवर्ष का गौरव-संगीत, वह राजा गीत बना,
कश्मीर की धरती पर फिर, आर्यधर्म का दीप तना।
मंदिर-महल न केवल ईंटें, वह संस्कृति की शिला बने,
वेदों की वह सजीव कथा थे, जो पत्थर में किला बने।
आज पुकारे ये चिर वसुधा, ओ तेजस्वी भू-भूषन,
जिनकी स्मृति लुप्त हो गई, वह हो पुनः भारत दर्शन।
शिक्षा, शक्ति, नीति, भक्ति, सबका एक समन्वय थे,
वो राजा नहीं, युग-पुरुष थे, वो धर्म-ध्वज के प्रनय थे।
उठो युवा! पहचानो भारत के उस भूले इतिहास को,
जिसने खंडित होने न दी, संस्कृति की एक श्वास को।
फिर ललितादित्य जन्म लें, हर हृदय में तेज जगे,
और अखंड भारत की वाणी, हिमगिरि से सागर तक बजे।
@Dr. Raghavendra Mishra
No comments:
Post a Comment