Tuesday 19 December 2017

कामसूत्र के अनुसार पुरुषार्थ त्रिवर्ग का प्रतिपादन
भूमिकाआचार्य वात्स्यायनकृत कामसूत्र संस्कृत साहित्य का अद्भूत ग्रन्थ हैं। इस ग्रन्थ का प्रभाव केवल कामकला विषयक विद्या पर नही पड़ा अपितु इसके इतर काव्यों, नाटकों और कला आदि पर भी प्रभाव पड़ा| कला के क्षेत्र में यह भारतीय ज्ञान परम्परा का आदर्श ग्रन्थ माना जाता है| इस ग्रन्थ कि महत्ता प्राचीन काल में जितनी थी, उससे कहीं ज्यादा आधुनिक काल में है| जिन ६४ कलाओं को वात्स्यायन ने माना था, बाद के आचार्यो ने उसी को प्रमाणिक रूप से स्वीकार किया| स्थापत्याकार, मूर्तिकार, चित्रकार आदि ने अपनी-अपनी कलाओं में कामसूत्र के शास्त्रीय विधानों को साकार किया| आज भी कामसूत्र के विधि-विधानों का अंकन, चित्रण और उत्कीर्णन सर्वत्र दृष्टिगत होता है|
कामसूत्र में उल्लेखित है कि सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के बाद लोक में सूचारु रुप से व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से एक लाख श्लोक परिमाण ग्रन्थ का प्रवचन किया था। उसमें धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का प्रतिपादन किया था[1] इसमें से धर्मविषयक श्लोको का अध्ययन करके स्वायम्भुव मनु ने मानव धर्मशास्त्र की पृथक रचना किया[2]। उसी के अर्थ विषयक अंग को लेकर देवताओं के गुरु आचार्य बृहस्पति ने अर्थशास्त्र का निर्माण किया[3]। अत: इसी प्रकार से नन्दी ने कामविषयक भाग को ग्रहण करके एक हजार अध्यायों में कामशास्त्र का निर्माण किया[4]
कामशास्त्र की परम्परा को उद्दालक ॠषि के पुत्र श्वेतकेतु ने पाँच सौ अध्यायों मे वर्णित किया[5]। पुन: पांचाल(पंजाब) देश के निवासी बाभ्रव्य ने १५० सौ अध्यायों मे संक्षिप्त किया। इसमें सात अध्याय थे[6]| सातों अध्यायों पर, अलग-अलग आचार्यों ने अलग-अलग ग्रन्थों को रचा|
वे सातों निम्नलिखित हैं
१.आचार्य दत्तक ने वैशिक अधिकरण पर।
२.आचार्य चारायण ने साधारण अधिकरण पर।
३.आचार्य सुवर्णनाभ ने साम्प्रयोगिक अधिकरण पर।
४.आचार्य घोटकमुख ने कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण पर।
५.आचार्य पतञ्जलि ने भार्याधिकारिक अधिकरण पर।
६.आचार्य गोणिकापुत्र ने पारदारिक अधिकरण पर।
७.आचार्य कुचुमार ने औपनिषदिक अधिकरण पर।
इसप्रकार से आचार्य बाभ्रव्य का ग्रन्थ बहुत विशाल एवं दुरध्येय था| इसलिये आचार्य वात्स्यायन ने सूत्र रुप में सम्पूर्ण कामशास्त्र को कामसूत्र मे समाहित कर दिया। जिसमें उक्त सभी ग्रंथों का सार समन्वित था| संस्कृत के साहित्य जगत में सर्वमान्य हो गया| वात्स्यायन के कामसूत्र में धर्मं, अर्थ और काम के विषय में चिन्तन हुआ हैं| कामसूत्र में कुल ७ अधिकरण, ३६ अध्याय, ६४ प्रकरण और १२५० सूत्र है| कामसूत्र को कामशास्त्र का उपजीव्य ग्रन्थ माना जाता है| कामशास्त्र के ज्ञान परंपरा में वैसे तो बहुत सारे ग्रन्थ लिखे गये है, परन्तु कामसूत्र को सर्वप्राचीन माना जाता है| कामशास्त्र के कुछ ग्रंथों के नाम निम्न है–
कोक्कोकृत रतिराहस्य, ज्योतिरीश्वरकृत पंचसायक, कुल्लिनमल्लकृत अनंगरंग, पद्मश्रीकृत नागरसर्वस्वम् आदि| यह सभी ग्रन्थ ९-१६ वी शती के बीच लिखें गये|
भारतीय विद्वान कामसूत्र को ईसा पूर्व २-३ शताब्दी में रचा हुआ ग्रन्थ मानते हैं| परन्तु विंटरनिटज ने भाषा प्रयोग के आधार पर वात्स्यायन का समय ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी माना है| कामसूत्र पर सर्वप्रथम जयमंगला टीका यशोधर पंडित के द्वारा राजा विसलदेव के राज्यकाल में (१२४३-१२६१ ई०)में लिखी गयी| कामसूत्र के महत्त्व के विषय में यही कहा जा सकता है कि “यह ग्रन्थ आधुनिक समाज और आधुनिक शिक्षा के लिये औषधि के तुल्य है और प्राचीन काल में भी था”|

                                 
                                  पुरुषार्थ
पुरुषाणामर्थ: इति पुरुषार्थ:| अत: मनुष्य जिस फल कि इच्छा करे, उसे पुरुषार्थ कहते है| इस प्रकार से संसार के सभी विषय पुरुषों के लिये इच्छित है| परन्तु वेद ,शास्त्र एवं तदितर संस्कृत वांगमय में पुरुष के मनुष्य जीवन के सभी अभिष्टो में मुख्य अभीष्ट केवल चार ही है – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष| पुरुषार्थ के माध्यम से मानव–जीवन को आध्यात्मिक, भौतिक एवं नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ बनाने  के लिये हमारे प्राचीन आचायों ने पुरुषार्थ का दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत किया, क्योकि इन आचार्यो के अनुसार सुख के दो आधार स्तम्भ है– भौतिक एवं आध्यात्मिक| जैसा कि वात्स्यायन कामसूत्र में कहते है कि-धर्मार्थकामेभ्यो नम:( १.१.१)| इसके माध्यम से मानव जीवन के लिये धर्म, अर्थ और काम ही परम आवश्यक है| धर्म के अंतर्गत ही मोक्ष को स्वीकार आगे किये है– स्थाविरे धर्मं मोक्षं च(१.२ .४)| क्योंकि मोक्ष कि प्राप्ति बिना धर्म के नही  हो सकती है| रामायण[7] में पुरुषार्थ चतुर्थ का वर्णन किया गया है|
धर्मार्थकाममोक्षाणां हेतुभुतं महाफलम्| अपूर्वं पुण्यफलदं श्रुणुध्वं सुसमाहितं||(श्लोक संख्या, २१)
धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं च द्विजोत्तमा:| श्रोतव्यं च सदा भक्त्या रामायणपरामृतम्||(श्लोक संख्या, २४)
कामार्थागुणसंयुक्तं धर्मार्थगुणविस्तरम्| समुद्रमिव रत्नाढयं सर्वश्रुतिमनोहरम्||(बा.का.तृ.स.श्लोक संख्या, ८)
महाभारत[8] में पुरुषार्थ चतुर्थ के विषय में निम्न श्लोक है–
धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ | यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ||
नाट्यशास्त्र में पुरुषार्थ चतुर्थ (धर्मं, अर्थ, काम, मोक्ष) का उल्लेख है| जो कि नाट्य कि चतुष्टयी के अंतर्गत पुरुषार्थ, रस, अवांतर रस, अभिनय, वृत्तियाँ, प्रवृत्तियाँ, नायक, वाद्य प्रकार आते है|
त्रिवर्ग के अंतर्गत अनुकीर्तन, अनुकरण, अनुदर्शन विशेष रूप से आते है, और शाखा, नृत, गीत भी आते है| पद्मपुराण[9] में पुरुषार्थ चतुर्थ के विषय में कहा गया है-
धर्माद् अर्थो अर्थत: काम: कामाद्धर्मफलोदय: , इत्येवं निर्णयं शास्त्रे प्रवदन्ति विपश्चितः|
धर्मश्च अर्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति चतुष्टयम् , यथोक्तं सफलं ज्ञेयं विपरीतं तु निष्फलम्|
                  पुरुषार्थ-त्रिवर्ग साधन की अवधारणा
आचार्य वात्स्यायन धर्म, अर्थ एवं काम को लौकिक पुरुषार्थ के अंतर्गत मानते है तथा मोक्ष को पारलोकिक के अंतर्गत मानते हुए धर्म में समाहित कर लेते है| क्योंकि त्रिवर्ग का मूलाधार गृहस्थाश्रम ही है, इसलिए मानव को चाहिए कि वह त्रिवर्ग का समुचित रूप से पालन करे–
अनित्यात्वादायुषो यथोपपादं वा सेवेत्[10]|
इसमे भी संहति क्रम में काम से श्रेष्ठ अर्थ, अर्थ से धर्म श्रेष्ठ है| और जो समयानुसार त्रिवर्ग का पालन करता है वह लोक एवं परलोक में सुख कि प्राप्ति करता है–
एषां समवाये पूर्व: पूर्वो गारियान्[11]|
एवमर्थं च कामं च धर्मं चोपाचरन्नर| एहामुत्र च नि:शल्यमत्यन्तम् सुखमश्नुते[12]||
अब क्रमश: कामसुत्रानुसार धर्म, अर्थ, और काम के विषय में विस्तार से चर्चा किया जाएगा|
धर्म- धृ धातु से धर्म शब्द की निष्पत्ति होती है, जिसका अर्थ धारण करना होता है| धर्म के विषय में वात्स्यायन[13] का मत-
अलौकिकत्वाददृष्टार्थत्वादप्रवृत्तानां यज्ञादीनाम् शास्त्रात्प्रवर्तनम्, लौकिकत्वाद्दृष्टार्थत्वाच्च प्रवृत्तेभ्यश्च माँसभक्षणादिभ्य: शास्त्रादेव निवारणम् धर्म:|
अलौकिक(पारलौकिक), अदृष्टार्थ(अप्रत्यक्ष) फल को उत्पन्न करने वाले यज्ञादि में प्रवृत्ति, लौकिक और दृष्ट(प्रत्यक्ष) फल को प्रदान करने वाले मद्य, माँस भक्षणादि में प्रवृत्ति न होना, इसी शास्त्र मर्यादा का पालन करना ही धर्म है|
वेद, वेदांग, दर्शन, उपनिषद्, कामशास्त्र एवं स्मृति आदि शास्त्रों के द्वारा धर्मं का मर्यादित प्रतिपादन किया गया है| धर्म का ज्ञान, वेदादि को जानने वाले धर्मज्ञानी से ग्रहण करना चाहिये| वात्स्यायन कहते है कि धर्म के मूल में लोकाभ्युदय और नि:श्रेयश का  भाव विद्यमान है, जैसा कि वैशेषिकसूत्र में कहा गया है कि– यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:| अत: धर्म के विषय में शास्त्र ही प्रमाण है| कामसूत्र के अनुसार धर्म दो प्रकार के होते है-(१). प्रवृत्तिरूप धर्मं– अलौकिक और अदृष्ट फल को प्रदान करने वाले यज्ञ, हवनादि कार्यों में शास्त्रादेश से प्रवृत्ति, ‘प्रवृत्तिरूप’ धर्म है और (२).निवृत्तिरूप धर्म- लौकिक और दृष्ट फल प्रदान करने वाले कार्यों में निवृत्त होना निवृत्तिरूप धर्म है| अत: इस प्रकार से वात्स्यायन ने धर्म को परिभाषित किया है|
अर्थ- अर्थ द्वितीय पुरुषार्थ है| अर्थ शब्द ‘ऋ+धन्’ के योग से बना है, जिसका तात्पर्य– प्रयोजन, उद्देश्य, अभिलाषा हेतु, कारण, धन-संपत्ति, सांसारिक ऐश्वर्य आदि है| मनुष्य का भौतिक जीवन अर्थ के माध्यम से ही सुखकारी होता है| अर्थ शब्द का सामान्य अर्थ संपत्ति से या धन से लगाया जाता है|
परन्तु कामसूत्रकार ने अर्थ के विषय में कहा है कि- विद्याभूमिहिरण्यपशुधान्यभाण्डोपस्करमित्रादीनामर्जनमर्जितस्य विवर्धनमर्थ:(१.२.९)| अर्थात् विद्या, भूमि, सुवर्ण, पशु, धान्य, भाण्ड, वस्त्राभूषणादि घर के उपकरण और मित्र आदि का अर्जन और अर्जित किये हुए का वर्धन ‘अर्थ’ है| अर्थ का धर्म के अनुसार वर्धन करना चाहिए, तभी अर्थ सम्यक रूप से फलीभूत होता है, नही तो कष्टकारी होता है| क्योंकि अर्थ साधन है, साध्य नही| अर्थ को अध्यक्षप्रचार(समृद्ध व्यक्तियों द्वारा आचरित मार्ग) से, वार्ताशास्त्र के तत्त्वज्ञ विद्वानों से और व्यापारियों से सीखना चाहिए|[14]
काम- सृष्टि-उत्पत्ति का मूलाधार काम ही है| काम शब्द का सामान्य अर्थ- “कामयते इति काम:” है, अर्थात् विषय और इन्द्रियों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाला मानसिक आनंद ही वास्तविक काम कहलाता है| ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मंत्र आता है कि–
कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि  मनषो रेत: प्रथमं यदासीत्| सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा||
काम दो प्रकार का होता है- सामान्य और विशेष| वात्स्यायन, सामान्य काम के स्वरूप के विषय में कहते है कि–
श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानामात्मसंयुक्तेन मनासाधिष्ठितानाम् स्वेषु स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यत: प्रवृत्ति: काम:(१.२.११)|
आत्मा से संयुक्त, मन से अधिष्ठित श्रोत्र ,त्वचा ,नेत्र ,जिह्वा और नासिका| इन पञ्च ज्ञानेन्द्रियो को अपने-अपने विषय में– शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध में अनुकूल रूप में प्रवृत्ति को काम कहते है| वस्तुत: काम को मानस व्यापार भी कहा जाता है, जो कि एक रागात्मिका प्रवृत्ति है| यह रागात्मिका प्रवृत्ति संसार के सभी जीवों में प्रतिष्ठित है और इसी के माध्यम से संसार की रचना होती है|
काम के व्यावहारिक(विशेष) पक्ष[15] को इस प्रकार से व्यक्त किया जाता है कि आलिन्गनादि प्रासंगिक सुख से अनुविद्ध स्तनादि विशेष अंगो के स्पर्श से जो फलवती अर्थाप्रतीति(सुयोग्य-संतानोत्पादन है) अर्थात् वास्तविक  सुखोपलब्धि होती है, वह काम कहलाता है| काम पुरुषार्थ को मर्यादित रूप में भारतीय परम्परा में  श्रेष्ठ माना जाता है| कामसूत्र का ज्ञान(कामकला) कामसूत्र से और कामकला में निपुण नागरिक जनों  से प्राप्त करना चाहिए[16]|  काम मानव जीवन का अनिवार्य अंग है और काम के बिना ससार कि उत्पत्ति ही नही कि जा सकती है| काम के पश्चात ही धर्म(मोक्ष ), अर्थ का अनुशीलन आता है| अत:काम परम पुरुषार्थ और एक कला है|
अत: इस प्रकार से पुरुषार्थ त्रिवर्ग के अंतर्गत धर्म, अर्थ और काम का वर्णन हुआ| अब आगे मोक्ष के विषय में, संक्षेप में वर्णन किया जाएगा कि किस प्रकार से और क्यों मोक्ष को धर्म के अंतर्गत वात्स्यायन स्वीकार करते है|
मोक्ष- मोक्ष निवृत्तिपरक पुरुषार्थ है एवं धर्म, अर्थ, काम प्रवृत्तिपरक पुरुषार्थ है| वात्स्यायन ने मोक्ष को धर्म के अंतर्गत सम्मलित किया है| वात्स्यायन ने अलौकिक एवं अदृष्टार्थ धर्म को प्राप्त करने के लिये सदाचरण और यज्ञादि क्रियाओं का विधान बताया है| मनुष्य को जीवन में तीन अवस्थायें प्राप्त होती है- बाल्य, यौवन और वृद्धत्व| वृद्धत्वावस्था  में धर्म और मोक्ष प्राप्ति करने का प्रयत्न करना चाहिए[17]| टीकाकार यशोधर ने  कामसूत्र के जयमंगला टीका में कहा है कि- तत्र ब्राह्मणदीनां गृहस्थानां मोक्षस्यानभिमतात्वात् त्रिवर्ग: पुरुषार्थ:|
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र गृहस्थों के लिये मोक्ष के अनभिमत होने के कारण त्रिवर्ग का ही प्रतिपादन किया है| इस कारण से ही मोक्ष को अलग रूप से नही बताया है, क्योंकि धर्म को मोक्ष का मूल माना जाता है| जो कि सबको एक सामान रूप से अभ्युदय की ओर ले जाए और सबको कल्याण का मार्ग दिखाये वस्तुत: वही धर्म है[18]| अत: धर्म ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है|



उपसंहार- पुरुषार्थ त्रिवर्ग में काम कि प्रधानता है, क्योंकि काम समस्त प्राणियों के उद्भव एवं इच्छाओं कि पूर्ति का कारण है| काम ही समस्त सृष्टि का मूल बीज है| आधुनिक विश्व में  वैज्ञानिक, सामजिक और आर्थिक दृष्टि से कामसूत्र अत्यावश्यक है| यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नही होगी कि “आधुनिक समाज के लिये कामसूत्र एक औषधि के तुल्य है”| पारमार्थिक दृष्टि से त्रिवर्ग का अंतिम लक्ष्य अभ्युदय और नि:श्रेयस है| अत: इस प्रकार से कामसुत्रानुसार पुरुषार्थ त्रिवर्ग का प्रतिपादन किया गया| जैसा कि कामसूत्र के प्रारम्भ में ही धर्म, अर्थ और काम को (मंगलाचरण के रूप में) नमस्कार किया गया है- धर्मार्थकामेभ्यो नम:(का.सू.१.१.१)| पुरुषार्थ तीन ही है, क्योंकि मोक्ष को धर्म के अंतर्गत समाहित किया गया है, बिना धर्म के मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है| पुरुषार्थ त्रिवर्ग से ही लौकिक जीवन(गृहस्थ) सुखमय होता है और धर्म के अनुकूल अर्थ प्राप्ति करने पर एवं धर्म के अनुकूल ही काम  कि प्राप्ति करने पर मोक्ष स्वत: प्राप्त हो जाता है|


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची


कामसूत्रम्, (श्रीयशोधरविरचितया “जयमंगला” व्याख्या). वात्स्यायन, (सं.) पारसनाथ द्विवेदी    (“मनोरमा” हिंदी-व्याख्या). वाराणसी : चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, २०१४.
कामसूत्रम् (श्रीयशोधरविरचितया “जयमंगला” व्याख्या). वात्स्यायन, (सं.), रामानन्द शर्मा (“जया”- हिंदी-व्याख्या). वाराणसी : चौखम्भा कृष्णदास अकादमी, २००४.
कामसूत्र परिशीलन, वाचस्पति गैरोला, दिल्ली : चौखम्भा संस्कृत प्रतिष्ठान, २००८.
कामसूत्रकालीन समाज एव संस्कृति, संकर्षण त्रिपाठी, वाराणसी, चौखम्भा विद्याभवन, २००८.
नाट्यशास्त्र, भरतमुनि, (सं.) कपिला वात्स्यायन, नई दिल्ली साहित्य अकादमी.
नागरसर्वस्वम्, पद्मश्री, (सं.) रामसागर त्रिपाठी, तारावती त्रिपाठी. दिल्ली : चौखम्भा संस्कृत प्रतिष्ठान, २००४.
पुरुसार्थ, भगवानदास, वाराणसी : चौखम्भा विद्याभवन, १९६६.
भारतीय दर्शन- आलोचन और अनुशीलन, चंद्रधर शर्मा, दिल्ली : मोतीलाल बनारसीदास, २०१३.
रतिरहस्यम् (कांचीनाथकृत “दीपिका” टीका). कोक्कोक, (सं.) रामानन्द शर्मा, (“प्रकाश” हिंदी-व्याख्या). वाराणसी : चौखम्भा कृष्णदास अकादमी, २००९.
रामायण, (प्रथम-खण्ड). वाल्मीकी, हिंदी अनुवादसहित, गीताप्रेस गोरखपुर, पुनर्मुद्रण ४४.









                                 
                                 

                               




[1] प्रजापतिर्हि प्रजा: सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्ध नं त्रिवर्गस्य साधनमध्यायानां शतसहस्रेणाग्रे प्रोवाच| (कामसूत्र,शास्त्रसंग्रहप्रकरणं,५,पारसनाथ द्विवेदी), पेज संख्या ०७ |
[2] तस्यैकदेशिकं मनु: स्वायम्भुवो धर्माधिकारिकं पृथक चकार | (कामसूत्र,शास्त्रसंग्रहप्रकरणं,६,पारसनाथ द्विवेदी), पेज संख्या ०८
[3] बृहस्पतिरर्थाधिकारिकम् | (कामसूत्र,शास्त्रसंग्रहप्रकरणं,७,पारसनाथ द्विवेदी)
[4] महादेवानुचरश्च नन्दी सहेस्रणाध्यायानां पृथक कामसूत्रम् प्रोवाच |(कामसूत्र,शास्त्रसंग्रहप्रकरणं,८,पारसनाथ द्विवेदी).
[5] तदेव तु पंचभिरव्यायशतैरौद्दालकि: श्वेतकेतु: संचिक्षेप |(कामसूत्र,शास्त्रसंग्रहप्रकरणं,९,पारसनाथ द्विवेदी).
[6] तदेव तु पुनरध्येर्धेनाधयायशतेन साधारण-साम्प्रयोगिक-कन्यासंप्रयुक्तक-भार्याधिकारिक-पारदारिक-वैशिक-औपनिषदिकै: सप्तभिरधिकरनैबाभ्रव्य: पांचाल: संचिक्षेप | (कामसूत्र,शास्त्रसंग्रहप्रकरणं ,१०).
[7] गीताप्रेस, गोरखपुर श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणमाहात्म्यम्, प्रथमोऽध्यायः, पृष्ठ संख्या, ३२,३३,६३ |
[8] आदिपर्व (१.६२.५३)
[9] (उत्तरखंड,अ० २४८).
[10] कामसूत्र १.२.५
[11] (का.सू.१.२.१४ )
[12] (का.सू.१.२.३९)
[13] (का.सू.१.२.)

[14] कामसूत्र १.२.१० 
तमध्यक्षप्रचाराद्वार्तासमयविद्भ्यो वणीग्भ्यश्चेती|
[15] स्पर्शविशेषविषयात्त्वस्याभिमानिकसुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीति: प्राधान्यात्काम:(का.सू.१.२.१२)|
[16]तं कामसूत्रान्नागरिकजनसमवायाच्च प्रतिपद्येत(का.सू.१.२.१३)|
[17] स्थविरे धर्ममोक्षंच(का.सू.१.२.४)|

[18] यतोsभ्युदयनि:श्रेयस सिद्धि: स धर्मं: (वैशेषिकसूत्र)|