Thursday, 22 May 2025

आदि शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त दर्शन


जय हो शंकर, अद्वैत के ज्ञाता,
ब्रह्म पथ के निर्मल विधाता।

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)

एक सत्य ब्रह्म है, न द्वैत की छाया,
सनातन के महिमा को, शंकर ने गाया।
"जीव ब्रह्म का अंश नहीं, स्वयं ब्रह्म है,"
यह अद्वैत वेदान्त का महामर्म है।।

माया की चादर ने ढका सत्य रूप,
स्वप्न सम जग है, झूठा यह स्वरूप।
अज्ञान से ही बँधा जीव भ्रम में,
ज्ञान ज्योति जलती उपनिषद् क्रम में।।

ब्रह्म सत्यम्  शुद्ध, चैतन्य, अनन्त,
रूपरहित, कर्मरहित, निर्विकल्प संत।
ना साकार, ना विकार, ना कोई गुण,
अनुभव से ही होती आत्मा परिपूर्ण।।

श्रवण, मनन और फिर निदिध्यासन,
ज्ञान मार्ग का यह त्रिकाल साधन।
जब जगे अंतःकरण में आत्मबोध,
तब मिटे माया, तब हो जीवन प्रबोध।।

तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि मन्त्र जो बोले,

शंकर ने वेदों से अर्थ है खोले।
भेद मिटे, अभेद जुड़े, सब एक हुआ,
जग भ्रम, पर ब्रह्म नित्य एक हुआ।।

न कर्म से मोक्ष, न भक्ति से पूर्ण ज्ञान,

ज्ञान से हो मुक्ति यही उनका विधान।
साक्षात् आत्मा में जब ब्रह्म दिखे,
तब मुक्त जीव, स्वस्वरूप में टिके।।

चारों दिशाओं में मठ किए निर्मान,
धर्म की रक्षा, किया राष्ट्र का मान।
आदि गुरु, सनातन का अभिमान,
उनके चरणों में सत्-ज्ञान का ध्यान।।

विवेकचूडामणि की मोती सी बात,
कौन मैं, क्या यह जग, कहाँ है जात?
जब मिला उत्तर आत्मरूप में,
तब खुला द्वार सत्यस्वरूप में।।

जय हो शंकर, अद्वैत के ज्ञाता,
ब्रह्म पथ के निर्मल विधाता।
तेरे वचनों से जागे हैं प्राण,
तू ही संतों का महान प्रमाण।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

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