स्वातंत्र्यदीप वीर सावरकर
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
जग में जला जो दीप बना, वह वीर सावरकर नाम,
क्रांति-शिखा से दे गये, भारत को नव विहान।
भगूर ग्राम की पुण्य भूमि पर,
उगा स्वर्णिम अरुण प्रखर।
बाल्यकाल में ही मन ने गाया,
स्वदेशी का ओजस्वी स्वर।
विदेश गये जब ज्ञान खोजने,
हृदय में ज्वाला जलती थी।
अभिनव भारत का हो निर्माण ,
मन में चेतना पलती थी।
कर्ज़न की सत्ता काँप उठी,
तब तिलमिलाया लंदन वाम।
परतंत्रता के शत्रु बनकर,
पाये काला पानी का दाम।
अंडमान की काल-कोठरी,
जहाँ साँस भी जंजीर हुई।
पर लेखनी न रुकी वहाँ,
हर पीड़ा कविता की तीर हुई।
'1857 समर' लिखा,
जिसने इतिहास जगाया।
विद्रोह नहीं, स्वातंत्र्य यज्ञ था,
सावरकर ने यह बताया।
हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन,
हिंदू राष्ट्र का घोष किया।
"हिंदू वही जो भूमि को,
पितृ और पुण्य मान किया।"
ना रुके, ना झुके कभी,
ना तुष्टिकरण का संग किया।
वीरत्व की उस धारा को,
कभी भी म्लान न रंग किया।
छुआछूत के जाल तोड़कर,
समरसता का दीप जलाया।
जाति-पंथ के पार खड़े हो,
भारत-मातृ प्रेम जताया।
गांधी वध के आरोपों में,
न्याय ने भी सच्चा कहा।
जिसका जीवन भारतमय था,
वह षड्यंत्रों से बचा रहा।
अंत समय में भी राष्ट्र का वंदन किया,
वीर केविचारों का जन ने अभिनंदन किया।
शरीर गया, पर वाणी रही,
राष्ट्रधर्म का दर्शन दिया।
वीर सावरकर! वंदन तुझे,
तेरा साहस अमर रहे।
तेरे स्वप्नों का भारत,
सदा स्वतंत्र, समर रहे।
@Dr. Raghavendra Mishra
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