कश्यप से कश्मीर की अमरगाथा
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
हिमगिरि की गोद में सतीसर, शून्य जलधि विस्तीर्ण खड़ा,
जहाँ प्रकृति थी मौन समाधि में, शिव का चैतन्य छिपा पड़ा।
तब कश्यप तपोमय दृष्टि लिए, उतरे जग के कल्याण हेतु,
सृष्टि का व्याकरण रचाने, शिव संवेदना के बोध हेतु।।
जल का आवरण छिन्न किया, भू का चित् में सिंचन कर,
आत्मशक्ति का तत्त्व प्रतिष्ठित, शिवत्व का अंकुरण कर।
नागों की निधियां जाग उठीं, रहस्यमय तन्त्रों की वाणी,
प्रकृति-पुरुष की अद्वैत छाया में, खिली शिवदृष्टि की कहानी।।
कश्यप की वंशधारा में,
गूंजा प्रत्यभिज्ञा स्वर।
'सोऽहं' का बीज बो कर,
शिवमय बना यह भूधर।।
कालांतर में वही तरंगें,
वसुगुप्त की समाधि में जागीं।
शिवसूत्रों की अमृतधारा,
कल्लट की व्याख्या में भागीं।।
सोमानन्द की दृष्टि में निखरा,
'शिवदृष्टि' का अद्वितीय मर्म,
उत्पलदेव की वाणी में बिखरा,
ईश्वर प्रत्यभिज्ञा का धर्म।।
तन्त्रालोक की दीपशिखा में,
अभिनवगुप्त ने विस्तार किया।
कश्यप की चिति संभावना को,
पूर्ण शिवत्व में आकार दिया।।
क्षेमराज, योगराज, लक्ष्मण जू,
सब उस बीज के अंगुर बने।
कश्यप के शिवबीज की वल्ली पर,
ज्ञान पुष्प सब संपूर्ण बने।।
इस धरा का कण कण गाता,
है चितिरूप शिव सदा।
कश्यप की ऋषि वाणी से निखरा,
कश्मीर शैवदर्शन का प्रभा।।
@Dr. Raghavendra Mishra
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