Friday, 20 June 2025

 

महाभारत के युद्ध पर्व में "चिड़िया की रक्षा की कथा" एक अत्यंत मार्मिक और शिक्षाप्रद उपाख्यान के रूप में आती है, जो युद्ध की विभीषिका में करुणा, धर्म और सह-अस्तित्व का गूढ़ संदेश देती है। यह कथा विशेष रूप से भीष्म पर्व या कर्ण पर्व के दौरान उद्धृत होती है, जब युद्ध अपने चरम पर होता है और चारों ओर हिंसा व्याप्त है।

चिड़िया की रक्षा की कथा: सार और विस्तार

कथानक की पृष्ठभूमि:

कुरुक्षेत्र के युद्ध के बीच जब वीरगति प्राप्त योद्धाओं की संख्या बढ़ती जा रही थी, रक्त की नदियाँ बह रही थीं, तब एक अद्भुत और मार्मिक दृश्य सामने आता है – जिसमें एक पक्षी माँ (चिड़िया) अपने अंडों की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में संघर्ष करती है।

कथा का विस्तार:

एक दिन युद्ध के दौरान जब अगला युद्ध प्रारंभ नहीं हुआ था, तभी अर्जुन अपने रथ पर युद्ध भूमि में पहुंचे। उन्होंने देखा कि युद्ध क्षेत्र के बीचों-बीच एक छोटी सी चिड़िया (या तीतर या पंखी) ने घास और मिट्टी के छोटे-छोटे तिनकों से घोंसला बनाया है। उसमें उसके कुछ अंडे रखे हुए हैं।

अर्जुन ने सोचा:

"यह घोंसला युद्ध भूमि में बना है। यहाँ अगली लड़ाई के समय तो रथ, हाथी, घोड़े, सैनिक सब दौड़ते हुए यहाँ से गुजरेंगे। तब ये अंडे कुचले जाएंगे।"

तब अर्जुन ने अपने रथचालक श्रीकृष्ण से कहा:

“माधव! इस युद्धभूमि में भी यह निरीह पक्षी अपने मातृत्व धर्म को निभा रही है। क्या हम इसके अंडों की रक्षा नहीं कर सकते?”

श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले:

“धनंजय! यह तुम्हारी करुणा और धर्मबुद्धि का प्रमाण है। यही तो धर्म है — कि युद्ध के बीच भी जो जीवन की रक्षा करे, वही सच्चा वीर है।”

रक्षा की युक्ति:

अर्जुन ने तत्काल निर्णय लिया। वह अपने दिव्यास्त्रों द्वारा उस घोंसले के चारों ओर एक अदृश्य रक्षा कवच बना देते हैं — एक ऐसा चक्रव्यूह या शक्ति-कवच — जिसमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता।

फिर भी युद्ध आरंभ होता है। हाथी, रथ, घोड़े, गदा, चक्र, अग्नि — सब कुछ उस क्षेत्र से गुजरते हैं, किन्तु जब युद्ध समाप्त होता है और सभी लौटते हैं, तब देखा जाता है कि:

 चिड़िया का घोंसला ज्यों का त्यों सुरक्षित है,
 और उसके अंडे भी सुरक्षित हैं,
और वह चिड़िया उन अंडों को से रही है।

कथा का प्रतीकात्मक अर्थ:

यह उपाख्यान केवल एक छोटी चिड़िया की रक्षा नहीं है, बल्कि महाभारत के संहारकारी युद्ध में करुणा, धर्म, मातृत्व, और संवेदना के जीवन-मूल्यों की रक्षा का प्रतीक है।

तत्व अर्थ
चिड़िया निरीह जीवन, प्रकृति, मातृत्व
अर्जुन धर्मयुक्त योद्धा
कृष्ण योगेश्वर, नीति का सार
अंडों की रक्षा जीवन-संरक्षण, धर्म के प्रति उत्तरदायित्व
अदृश्य कवच करुणा और युक्ति का मिलन

महत्त्वपूर्ण शिक्षा:

  • धर्म केवल शत्रु को मारना नहीं, बल्कि निर्दोष की रक्षा करना भी है।
  • युद्ध में भी करुणा जीवित रह सकती है।
  • एक सच्चा योद्धा वही है जो साथी के प्राणों की ही नहीं, निरीह जीवों की रक्षा भी कर सके

यह कथा कर्ण पर्व अथवा भीष्म पर्व के अंतिम भागों में आई है।

Thursday, 19 June 2025

महाभारत एक अत्यंत व्यापक और गूढ़ ग्रंथ है, जिसमें केवल कुरुक्षेत्र युद्ध ही नहीं, बल्कि धर्म, नीति, जीवनमूल्य, दर्शन, लोककथाएँ, ऐतिहासिक प्रसंग, और विविध उपदेशात्मक उपाख्यानों (Sub-stories or Sub-narratives) का भी सुंदर समावेश है। इन उपाख्यानों को संस्कृत में "उपाख्यान" कहा गया है, और ये महाभारत के अठारह पर्वों में विविध स्थानों पर अंतर्भूत हैं।

महाभारत में उपाख्यानों की संख्या:

महाभारत में बहुत ही उपाख्यान है, जिसमें नीति, धर्म, एवं शिक्षोपदेश इत्यादि का उल्लेख किया गया है। ये सभी उपाख्यान राजा, ऋषि, पशु-पक्षी, देवता आदि के माध्यम से किसी नैतिक संदेश या व्यवहारिक जीवन का मार्गदर्शन देते हैं।

प्रमुख उपाख्यानों की सूची व वर्णन

यहाँ 50 प्रमुख उपाख्यानों को उनके सारांश के साथ प्रस्तुत किया गया है। 

1. नल-दमयंती उपाख्यान (वनपर्व)

  • राजा नल और दमयंती की प्रेमकथा, दुःख, त्याग और पुनर्मिलन की गाथा।
  • नीति, प्रेम, धर्म और धैर्य का शिक्षाप्रद उपाख्यान।

2. सावित्री-सत्यवान उपाख्यान (वनपर्व)

  • सावित्री द्वारा अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस लाना।
  • पत्नी का धर्म, नारी शक्ति व दृढ़ संकल्प का आदर्श।

3. ऋष्यशृंग उपाख्यान (विष्णुपर्व / अरण्यपर्व)

  • वानप्रस्थ में पले ऋष्यशृंग को राजा ने कृत्रिम स्त्री के माध्यम से मोहित कर राजमहल लाना।
  • विषयभोग, मोह, राजनीति की सूक्ष्म चर्चा।

4. भीष्म उपदेश (शांतिपर्व)

  • मृत्युशैय्या पर पड़े भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को धर्म, राजा-नीति, शांति और मोक्ष का उपदेश।
  • यह उपाख्यान नीति-दर्शन का भंडार है।

5. शुकनास उपदेश (उद्योग पर्व)

  • विदुर के माध्यम से प्रस्तुत राजधर्म और नीति का प्रसंग।
  • शासक को धर्मपूर्वक शासन कैसे करना चाहिए, उसका विवेचन।

6. पंचतान्तरक उपाख्यान

  • पांच अलग-अलग तंत्रों की रूपरेखा बताने वाला नीति उपदेशात्मक उपाख्यान।
  • जीवन को पांच तत्वों के आधार पर समझाने की दृष्टि।

7. गंगा-जन्म उपाख्यान (आदिपर्व)

  • गंगा का पृथ्वी पर अवतरण, भागीरथ प्रयास।
  • तपस्या, प्रयत्न, एवं धर्माचरण की प्रेरणा।

8. शिव-उमा विवाह उपाख्यान (अनुशासन पर्व)

  • शिव और पार्वती के विवाह का वर्णन।
  • भक्ति, तपस्या और वैराग्य का समन्वय।

9. मत्स्योपाख्यान (वनपर्व)

  • राजा सत्यव्रत को मत्स्यरूप में भगवान विष्णु द्वारा प्रलय की चेतावनी।
  • यह पुराणों के ‘मत्स्यपुराण’ का मूल स्रोत भी है।

10. हरिश्चंद्र उपाख्यान

  • सत्य, धर्म और तपस्या के प्रतीक राजा हरिश्चंद्र की कथा।
  • महान आदर्श और कठिन परीक्षा की गाथा।

11. शिबि उपाख्यान

  • राजा शिबि द्वारा कबूतर की रक्षा हेतु स्वयं को बाज के समक्ष अर्पित करना।
  • अतिथि सत्कार, परोपकार और आत्मत्याग की भावना।

12. एकलव्य उपाख्यान (आदिपर्व)

  • निषाद पुत्र एकलव्य की गुरु भक्ति और द्रोणाचार्य को गुरुदक्षिणा।
  • जातिगत भेदभाव, गुरु-शिष्य संबंधों की आलोचनात्मक झलक।

13. विदुर नीति उपाख्यान (उद्योगपर्व)

  • विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को दिए गए नीति उपदेश।
  • आज भी प्रशासनिक और व्यक्तिगत जीवन में उपयोगी।

14. उत्तंक उपाख्यान

  • उत्तंक ऋषि और नागलोक की यात्रा।
  • तप, धैर्य और अधर्मियों से संघर्ष का रूपक।

15. अष्टावक्र उपाख्यान (शांतिपर्व)

  • विकृत शरीर वाले ब्रह्मज्ञानी ऋषि अष्टावक्र की कथा।
  • आत्मज्ञान का संदेश – शरीर नहीं, ज्ञान की प्रधानता।

16. श्रीनारायण उपाख्यान

  • श्रीकृष्ण का विष्णुरूप और योगेश्वर स्वरूप का विवेचन।
  • भक्ति और दैवी चेतना की प्रेरणा।

17. संपाती उपाख्यान

  • जटायु के भाई संपाती की कथा।
  • युद्ध में त्याग और बंधुत्व का संकेत।

18. सुदामा-कृष्ण उपाख्यान

  • मित्रता, प्रेम, और कृष्ण की करुणा का प्रतीक।
  • भक्ति और निष्काम संबंधों की महिमा।

19. कच्छप उपाख्यान

  • कच्छप रूप में विष्णु का समुद्र मंथन हेतु सहयोग।
  • सहकार्य, तपस्या और कर्म का प्रतीक।

20. सांदीपनि उपाख्यान

  • श्रीकृष्ण-बलराम की शिक्षा, गुरु सेवा।
  • शिष्य धर्म और शिक्षा के आदर्श।

21. अम्बा-अम्बिका-अम्बालिका उपाख्यान

  • तीन कन्याओं की कथा जिनसे पांडव-कौरव वंश विकसित हुआ।
  • स्त्री की नियति और पुरुष वर्चस्व की आलोचना।

22. प्रह्लाद उपाख्यान

  • हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद की विष्णु-भक्ति।
  • धर्म, भक्ति, असुरत्व पर विजय।

23. कपोत उपाख्यान (शांति पर्व)

  • कपोत-पत्नी द्वारा आग में कूदकर शिकारियों को भोजन देना।
  • त्याग, दया और आत्मदान।

24. द्रौपदी-चीरहरण उपाख्यान

  • कौरव सभा में द्रौपदी का अपमान, श्रीकृष्ण द्वारा रक्षा।
  • नारी अस्मिता और धर्म के पतन की सीमा।

25. नर-नारायण उपाख्यान

  • नर-नारायण ऋषियों की तपस्या और शिव के युद्ध का प्रसंग।

 26. मंडपिक उपाख्यान

 27. भरद्वाज उपाख्यान

 28. पराशर मत्स्य्योपाख्यान

 29. दुर्वासा-द्रौपदी उपाख्यान

 30. नारद-प्रह्लाद संवाद

 31. लोमश ऋषि उपाख्यान

 32. माण्डव्य ऋषि उपाख्यान

 33. महात्मा गालव उपाख्यान

 34. श्रीकृष्ण-रुक्मिणी विवाह उपाख्यान

 35. कच्छ-देवयानी उपाख्यान

 36. ययाति-देवयानी-शर्मिष्ठा उपाख्यान

 37. भीम-हनुमान मिलन उपाख्यान

🔹 38. अर्जुन-उलूपी उपाख्यान

🔹 39. अर्जुन-चित्रांगदा उपाख्यान

🔹 40. अर्जुन-सुभद्रा विवाह उपाख्यान

🔹 41. घटोत्कच जन्म उपाख्यान

🔹 42. बलराम तीर्थयात्रा उपाख्यान

🔹 43. कृष्ण-जरा व्याध उपाख्यान

🔹 44. वृष्णिनाश उपाख्यान

🔹 45. युधिष्ठिर-नकुल-भीम-शिव संवाद

🔹 46. नहुष-ययाति उपाख्यान

🔹 47. ब्रह्मदत्त उपाख्यान

🔹 48. गौतम-आरुंधती उपाख्यान

🔹 49. दुर्वासा-शकुनि संवाद

🔹 50. श्रीकृष्ण-गर्भसंहार उपाख्यान

महाभारत में उपाख्यान केवल कथा नहीं हैं, बल्कि यह भारत की नीतिशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र, सामाजिक जीवन, मानव-व्यवहार, स्त्री-पुरुष के दायित्व, और आध्यात्मिक मूल्य इत्यादि का दर्पण हैं।


Tuesday, 17 June 2025

 

नाट्यशास्त्र के पूर्व और पश्चात् नृत्य की भारतीय परंपराएँ: एक तुलनात्मक अध्ययन 


डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU 

यह लेख भारतीय नृत्य परंपरा के विकास को भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को आधार बनाकर दो चरणों में विश्लेषित करता है नाट्यशास्त्र के पूर्व एवं पश्चात्। वैदिक, पौराणिक, आगमिक तथा लोक परंपराओं में व्याप्त नृत्य के प्रारंभिक स्वरूपों से लेकर नाट्यशास्त्र द्वारा शास्त्रीय अनुशासन प्राप्त नृत्य संरचनाओं तक का समग्र अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यह शोध नृत्य को भारतीय ज्ञान परंपरा में आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टियों से जोड़ता है।

प्रस्तावना:
भारतीय नृत्य परंपरा, एक कला मात्र नहीं, अपितु एक जीवनशैली, धर्मानुष्ठान और सांस्कृतिक संवाद का माध्यम है। नाट्यशास्त्र की रचना ने इस परंपरा को एक शास्त्र रूप प्रदान किया, जिससे पूर्व की बिखरी हुई नृत्य परंपराएं एक संगठित और व्याख्यायित रूप में परिवर्तित हो गईं।

नाट्यशास्त्र के पूर्व की नृत्य परंपराएँ

 वैदिक और उपनिषदकालीन परंपरा
ऋग्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में नृत्य का उल्लेख यज्ञों, उत्सवों और देवताओं की आराधना के रूप में होता है। ऋग्वेद के मंत्रों में "नृत्य" शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे “नृत्यद्वाजं रथेष्ठां वृषणं हुवे”। श्वेताश्वतर उपनिषद में ईश्वर को नृत्य करते हुए मुनियों में देखा गया है  "नृत्यते मुनिः आत्मन्येव"।

 पौराणिक व आगमिक नृत्य दृष्टि
शिव के ताण्डव और पार्वती के लास्य से नृत्य के द्वैत भाव की स्थापना होती है। विष्णु के रासलीला रूप में भक्ति रस प्रधान नृत्य की कल्पना दिखाई देती है। लिंगपुराण, शिवपुराण, नारद पुराण में नृत्य को ब्रह्मांडीय ऊर्जा और धर्म का अवयव माना गया है।

 लोक परंपराएँ

भील, संथाल, गोंड, यक्षगान, छाऊ जैसे नृत्य लोक जीवन से सीधे जुड़े रहे। इनकी भाषा, संगीत, ताल, वेशभूषा और भाव प्रदर्शन स्थानीयता में निहित थी। ये नृत्य उत्सव, युद्ध, विवाह तथा देवी-देवता की पूजा से संबद्ध होते थे।

 नाट्यशास्त्र का आगमन: नृत्य की शास्त्रीय संरचना

नाट्यशास्त्र में अंगिक, वाचिक, सात्त्विक, और आहार्य अभिनय के साथ नृत्य की व्यापक परिभाषा दी गई। रस-सिद्धांत, भाव, चारी, करण, अंगहार, तथा नृत्त-नृत्य-नाट्य की स्पष्ट व्याख्या की गई। शिव के 108 करणों का उल्लेख – जो शास्त्रीय नृत्य की मूल इकाई बने।

भरतमुनि ने नृत्य को तीन भागों में विभाजित किया:

  1. नृत्त – शुद्ध गति और चालनाएँ
  2. नृत्य – भावप्रदर्शन सहित गति
  3. नाट्य – संवाद और अभिनयप्रधान नाट्य

इसके साथ ही रस सिद्धांत के आधार पर नृत्य को दर्शक के हृदय में अनुभवजगत की अनुभूति कराने वाला माध्यम माना गया।

नाट्यशास्त्र के पश्चात् विकसित नृत्य परंपराएँ

नृत्य की क्षेत्रीय शाखाएँ
नाट्यशास्त्र के पश्चात् भारत में नृत्य विभिन्न शैलियों में विभाजित होकर समृद्ध होता गया:

भरतनाट्यम् (तमिलनाडु) – मंदिर-नृत्य, देवदासी परंपरा, अभिनय और करणा प्रधान
कथक (उत्तर भारत) – कथा वाचन से उत्पन्न, दरबारी और लोक दोनों प्रभाव
ओडिसी (ओडिशा) – त्रिभंगी, चौक, जगन्नाथ मंदिर परंपरा
मणिपुरी (मणिपुर) – रासलीला आधारित, माधुर्य रस
कथकली (केरल) – वीर रस, रंगमंचीय, मुखाभिनय पर केंद्रित
कुचिपुड़ी (आंध्रप्रदेश) – नाट्य रूप में नृत्य
सत्रिया (असम) – वैष्णव भक्ति पर आधारित, शंकरदेव द्वारा प्रस्थापित

 ग्रंथ परंपरा

  • नंदिकेश्वर – अभिनयदर्पण
  • शारंगदेव – संगीतरत्नाकर
  • अभिनवगुप्त – अभिनवभारती (नाट्यशास्त्र पर टीका, रस की अनुभूति को केंद्रीय स्थान)

तुलनात्मक विश्लेषण

पक्ष नाट्यशास्त्र से पूर्व नाट्यशास्त्र के पश्चात
दृष्टिकोण धार्मिक, अनगढ़ कलात्मक, शास्त्रबद्ध
विधि लोक प्रेरित, परंपरागत अनुशासित, ग्रंथाधारित
सौंदर्यशास्त्र प्राकृतिक सांख्यिक, दार्शनिक
भाव सामूहिक आस्था व्यक्तिगत अनुभूति
प्रयोजन आराधना, अनुष्ठान सौंदर्य, संवाद, साधना

 निष्कर्ष

भारतीय नृत्य परंपरा का इतिहास केवल एक कलात्मक अनुशासन का इतिहास नहीं, बल्कि भारत के धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक चिंतन की गूढ़तम अभिव्यक्ति है। नाट्यशास्त्र ने इस परंपरा को एक शास्त्रीय आधार, तात्त्विक गहराई और सार्वकालिकता प्रदान की। यह स्पष्ट है कि नृत्य भारत में केवल देह की गति नहीं, बल्कि आत्मा की गति है "नृत्यते आत्मा प्रबुद्धः।"

ग्रंथ और संदर्भ सूची

  1. Natyashastra of Bharata, Translated by Manomohan Ghosh, Asiatic Society
  2. Abhinavabharati by Abhinavagupta
  3. Abhinaya Darpanam – Nandikeshwara
  4. Sangeet Ratnakar – Sharngadeva
  5. Kapila Vatsyayan – Traditions of Indian Classical Dance
  6. Raghavan, V. – Bharata’s Natyashastra and Its Tradition
  7. Reports and Papers from Sangeet Natak Akademi and IGNCA.                                                                                                   @Dr. Raghavendra Mishra JNU 

युगानुकूल अर्थ रचना: दीनदयाल का समरस गीत

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

ना धन ही जीवन का अंतिम लक्ष्य, ना भूख ही अंतिम सत्य,
दीनदयाल ने कहा युग को अर्थ हो धर्ममय पथ।
न पूंजीवाद की दौड़ हो, न हो साम्यवाद की पीड़ा,
भारत को चाहिए अर्थनीति, जो संस्कृति का हो हीरा।।

युगानुकूल अर्थ-रचना हो, जो समय के संग चले,
परंतु मूल जड़ों से जुड़कर, संतुलन की भाषा कहे।
न हो विदेशी ढांचे पर आधारित, न हो अंध अनुकरण,
बल्कि स्वदेशी भावनाओं से, हो नव भारत का सर्जन।।

ग्राम हो विकास की धुरी, न हो केवल शहरों का भार,
कृषक, शिल्पी, कारीगर सबको मिले स्वाभिमान और प्यार।
स्थानीयता में हो सामर्थ्य, लघु उद्योग हों बलवान,
तब जाकर अर्थ-व्यवस्था बनेगी भारत की पहचान।।

श्रम को मिले प्रतिष्ठा, न हो हाथों का अपमान,
हर परिश्रमी जन बने वहां, स्वावलंबन का महान गान।
न सिर्फ़ लाभ हो उद्देश्य, न हो केवल उत्पादन,
धर्म हो अर्थ का नियंत्रक, यही हो नीतिपथ का निर्धारण।।

धर्म हो अर्थ का दीपक, नीति हो नैतिक छाँव,
प्रकृति के संग मैत्रीपूर्ण हो, हर विकास की नाव।
ना दोहन हो जल-जंगल का, ना विनाश हो जीवन का,
हर संसाधन में दिखे दर्शन एकात्मता के मन का।।

न मनुष्य बने बाज़ार की वस्तु, न समाज बने दास,
मानवता की हो विजय जहाँ, वहीं अर्थ का हो प्रकाश।
न हो उपभोक्तावाद का जाल, न ही संग्रह की भूख,
संयम, संतुलन और सेवा यही है जीवन का सुख।।

समाज हो सहभागी, सत्ता हो सेवक धर्मशील,
और अर्थ हो साधन, न कि साध्य यही हो लक्ष्य प्रवीण।
दीनदयाल ने यही बताया, विकास हो होश में,
न हो विस्मरण संस्कृति का, न हो पतन जोश में।।

धन हो दया का साधन, व्यापार बने समर्पण,
उद्योग हों धर्म से बँधे, श्रमिक हों आत्मार्पण।
युगानुकूल हो अर्थविचार, जो समय को साधे,
लेकिन मूल न खो दे कभी, संस्कृति को बाँधे।।

चलो उसी पथ पर अब फिर से, रचें नव संकल्प-विधान,
दीनदयाल के स्वप्नों का हो, उन्नत भारत एक महान।
जहाँ अर्थ न हो केवल अंक, बल्कि मूल्य और मान,
जहाँ हो मानव पूर्णतः समरस, और राष्ट्र सदा सृजन प्राण।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

त्रयी सत्य की गूंज: व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठि

(पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानवदर्शन पर आधारित काव्य प्रस्तुति)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

ना व्यक्ति अकेला, ना समाज अधूरा,
ना परम सत्य बिना पथ पूरा।
तीनों बिंदु, तीन किरणें, एक ही दीप जलाएं,
दीनदयाल के दर्शन में, मानव धर्म जगाएं।

व्यष्टि: व्यक्ति की व्याप्ति


व्यष्टि वह बीज, जहां से जीवन का वृक्ष उगे,
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा चार धुरी जहाँ सधे।
न केवल पेट की भूख बुझे, न केवल बुद्धि में ज्वार,
मानव तभी पूर्ण कहलाए, जब आत्मा हो साकार।।

शरीर माँगे रोटी, मन माँगे नेह,
बुद्धि खोजे सत्य, आत्मा चाहे गेह।
इन सबका समन्वय ही मानव का मर्म,
दीनदयाल ने कहा यही है राष्ट्रधर्म।।

समष्टि: समाज का स्वरूप

व्यष्टियाँ मिलें, बने समष्टि यह है सहजीवन राग,
जहाँ जाति, पंथ, वर्ग न बाँटे, हर कोई में अनुराग।
परिवार से समाज तक, फिर राष्ट्र बने महान,
जहाँ सबका हो उत्थान, ना हो कोई अपमान।।

समष्टि ना भीड़ का नाम है, ना केवल शक्ति का जोर,
यह संस्कृति की बँधी हुई डोर, जिसमें बहे करुणा की भोर।
दीनदयाल कहते समष्टि वह तन है, व्यष्टि उसका प्राण,
दिशा वही दे सकती है, जो हो धर्मपरायण जान।।

परमेष्ठि: परम की प्रेरणा

परमेष्ठि वह शाश्वत सत्ता, जो सबका मूल आधार,
जिससे जीवन में बँधे नीति, धर्म, विवेक और प्यार।
ना वह केवल देवालयों में, ना ग्रंथों के वचन मात्र,
वह हर आत्मा में जाग्रत हो, यही है सनातन पात्र।।

धर्म न संप्रदाय बने, ना बाँटे वह नर-नारी,
धर्म दे जीवन की दशा, जो दे सबको जिम्मेदारी।
परमेष्ठि का पथ जब दिखे, समष्टि में बहे समरसता,
और व्यष्टि हो नतमस्तक यही हो पूर्ण एकात्मता।।


तीनों धारा जब बहती संग, तब जीवन सधता है,
व्यक्ति, समाज और परमेश्वर जब मिलें तो पथ बनता है।
दीनदयाल का एकात्म गीत, न भूले भारतवासी,
यह दर्शन है पथप्रदर्शक, यह संस्कृति की संजीवनी रासी।।

चलो चलें उस राह पर, जहाँ व्यष्टि की हो गरिमा,
समष्टि में बहे सेवा, परमेष्ठि से मिले अणिमा।
भारत फिर बने विश्वगुरु, दीनदयाल की राह,
जहाँ मानव न केवल जीव, बल्कि चेतना की चाह।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

 दीन दयाल उपाध्याय जी का राष्ट्रधर्म

(पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के राष्ट्रवाद की सम्यक अवधारणा पर आधारित)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

भारत भूमि ना केवल धरती, है यह संस्कृति की पुकार,
यहां हर कंकर शंकर है, हर गंगा सच्चा संसार।
हमने माना धरती माता, यह है आत्मा की अभिव्यक्ति,
दीनदयाल ने बताया राष्ट्र की है यही एकता सच्ची।।

न भूगोल से, न भाषा से, न जाति, धर्म, न संप्रदाय,
राष्ट्र वही जो एकात्म भाव से, आत्मविभोर होकर दे व्यापक छाय।
संस्कृति हो जिसकी आत्मा, धर्म हो जीवन का सार,
ऐसे राष्ट्र का निर्माण करें, जिसमें हो सबका आदर अपार।

"एकात्म मानवदर्शन" कहकर, जोड़ा सबको सूत्र एक,
व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सृष्टि सबका हो समन्वय नेक।
धन न हो ध्येय अकेला, न भोग बने उद्देश्य,
कर्म-धर्म का हो आलोक, नीति से हो राष्ट्र विशेष।।

धर्म ना संप्रदाय मात्र, है कर्तव्य बोध महान,
राष्ट्रधर्म का मंत्र दिया हो सेवा, त्याग, बलिदान।
राजनीति हो पुण्य पथ, ना केवल सत्ता का व्यापार,
सिद्धांतों पर टिके कदम, न टूटे कोई सदाचार।।

समरसता का संदेश दिया, ना भेद हो न कोई विषमता,
हर मानव को मिले समानता, हर हृदय में हो आत्मीयता।
आर्थिक दृष्टि हो स्वदेशी, नीति हो शुभ भारतमातामयी,
दीनदयाल की यह विचारधारा, बन जाए राष्ट्र की अमर कथा जयी।।

जब पश्चिम जग हो चुका भ्रमित, खोज रहा विकास का सार,
भारत की सनातन दृष्टि दे रही समाधान अपार।
दीनदयाल के राष्ट्रवाद में, है केवल न भू-रचना,
यह है आत्मा, धर्म और संस्कृति की अविरल धारा-संरचना।।

चलो उसी पथ पर बढ़ें हम, जो दर्शन है दिव्य और सरल,
न हो विभाजन, न हो दंभ, हो आत्मगौरव का संबल।
राष्ट्र एक शरीर है पावन, जिसमें आत्मा संस्कृति महान,
दीनदयाल का यह राष्ट्रवाद, भारत का हो गौरवगान।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

एकात्म मानवदर्शन: भारत का आत्मस्वर 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

अमृतकाल की देहरी पर, भारत खड़ा विराट,
दुविधा में डूबा है जग, पर दीपक बनें प्रभात।
प्रकृति सम्मत चिंतन से, सज्जित हो नवध्यान,
एकात्म दर्शन बन गया, भारत का परिमार्जन गान।।

शोषण में रत पश्चिम है, खोता चला विवेक,
भारत बोले सत्व से, मानव है सब एक।
न साम्यवाद, न पूँजीवाद, न रूखा कोई वाद,
मन, तन, आत्मा का संतुलन यही हमारा नाद।।

माटुंगा में गुंजी थी, स्वर-सरिता की लहर,
चार दिवसों में पंडित ने, खोल दिया सत्व-सागर।
22 से 25 अप्रैल, उन्नीस सौ पैंसठ की बात,
उदित हुआ चिंतन नक्षत्र, दीनदयाल का प्रकाश।।

“मैं नहीं सर्जक इसका”, बोले पावन स्वर,
“यह तो ऋषियों की विरासत, यह जाने भारत भर।”
गांव, गाय, गगन, गंगा सबमें ही आत्मा बसती,
जहाँ नदियाँ गाती जीवन, वहीं राष्ट्र की चिति हँसती।।

नर को न देखो टुकड़ों में, देखो समग्र रूप,
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सब मिलकर बने स्वरूप।
धरा, गगन, जल, वायु, अग्नि पंचतत्त्व के मेल,
इनसे ही जीवन बने, इनसे ही जीवन खेल।।

ग्राम्य चेतना भारत की, उसका मूलाधार,
गांव उठेगा तभी जगेगा, भारत का सच्चा विचार।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ पवित्र,
यही बने जीवन सूत्र, यही हो नित्य चरित्र।।

विकास का मापदंड अपना, हम स्वयं गढ़ेंगे,
दीनदयाल की वाणी में, आत्मबल संप्रेषित देंगे।
नापेगा ना हमें कोई, पश्चिमी दर्पन से,
हम ही बनें उदाहरण, अपने ही दर्शन से।।

उनके सखा नानाजी ने,  दिया साधना की धार,
दीनदयाल शोध संस्थान से, किया विचार को साकार।
नीति से नीति तक पहुंचा, दर्शन का यह नाद,
भूमि पर उतरी चेतना, बनी जन-जन की बात।।

हे भारत! याद रखो यह, तुम्हारा स्वत्व महान,
एकात्म मानवदर्शन से, होय विश्वकल्याण।
राष्ट्रधर्म हो चेतना, संस्कृति हो आहार,
दीनदयाल के स्वप्न से, रचो नवसंस्कार।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU