"प्रारंभिक वैदिक काल (14500–11500 ईसा पूर्व)" पर आधारित काव्यात्मक रचना,
प्राची की वह वैदिक प्रभा,
फिर से भारतवर्ष में छाया।
(14500 ई.पू. से प्रारंभ एक युगगाथा)
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
धनिष्ठा में जब सूर्य थमा था,
ऋतुपथ पर ब्रह्मा चला था।
जागी ज्योति ज्ञान की दिव्य,
सृष्टि प्रांगण हर्षित हुआ था।
स्वायंभुव मनु प्रकट हुए तब,
सूर्यवंश की रेखा खींची।
इक्ष्वाकु की छाया में ही,
धरा ने संस्कृति सींची।
सप्तर्षियों की सभा बसी थी,
अत्रि-मरीचि, वशिष्ठ महान।
अंगिरा, पुलह, पुलस्त्य सम,
क्रतु ऋषि के ज्ञान का मान।
उत्तानपाद हुए प्रतापी,
ध्रुव ने ध्रुव पद पाया।
रघुकुल दीप ऋषभ हुए तब,
योगमार्ग समझाया।
पृथु राजा धरती का पालक,
भू-देवी को दान दिया।
अयोध्या की नींव रखी जब,
मनु ने वह वरदान लिया।
कश्यप, अदिति, सुरभि साथ,
सृष्टि की रचना बढ़ती गई।
तिष्य नक्षत्र में जब सहयोग,
सूर्य-बृहस्पति की गाथा सही।
रुद्र, वसु, आदित्य संग,
अश्विनीकुमार बने संगी।
देव-असुर की नीति-गाथा,
वृत्रासुर की छाया जंगी।
सोम चंद्रवंश का नायक,
राजवंशों का मार्ग बना।
पुरु, यदु, अनु, तुर्वश, द्रुह्यु,
पाँचों शाखाओं ने लिए जना।
मरुत्त अविक्षित की राजसभा,
विश्वेदेवों ने सम्मान दिया।
त्रिशंकु ने स्वर्ग की चाह,
लेकिन संतुलन डगमग किया।
वशिष्ठ-जमदग्नि, ऋषियों की जोड़ी,
ऋतुचक्र से नव संकेत लिया।
श्रवण में विश्वामित्र उभरे,
मेनका संग मन मोह लिया।
दुष्यंत-शकुंतला की कथा,
कण्व की छाया में लिखी गई।
भरत बना वह चक्रवर्ती,
जिससे भारत की गाथा कहि गई।
जनपदों की ध्वनि उभरी तब,
मद्र, केकय, अंग, वंग भासे।
कौशांबी, सौराष्ट्र, मत्स्य भी,
गिरिव्रज के गीत सुहासे।
स्वारोचिष, उत्तम, तापस मनु,
हर युग में नई परंपरा लाई।
रैवत मनु जब गिरनार पहुँचे,
कुशस्थली की ईंट जमाई।
विदर्भ नरेश ने भूमि सँवरी,
यदुवंश का अभिमान बना।
कुशस्थली डूबी, फिर उभरी,
सागर से संवाद बना।
और जब चाक्षुष मनु आए,
समय के रथ को आगे बढ़ाया।
प्राची की वह वैदिक प्रभा,
फिर से भारतवर्ष में छाया।
@Dr. Raghavendra Mishra
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