हे आनन्दवर्धन वंदन तुम्हे, काव्य को दी जिसने चेतना।
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
कश्मीर धरा की विभा अपार,
जग में उजागर ज्ञान अपार।
जन्मे जहाँ आनन्दवर्धन,
कविता में बोले सत्य साकार॥१॥
ध्वनि की जोत जलाया जिसने,
रस की धारा बहाया जिसने।
शब्दों में छिपे अर्थों का,
गूढ़ रहस्य बताया जिसने॥२॥
ध्वन्यालोक रचा अपूर्व ग्रंथ,
साहित्य बना पुनः परम सन्त।
काव्य न रहा अब केवल छंद,
भावों का बहे अब रसगंध॥३॥
काव्यस्य आत्मा ध्वनिः कहकर,
कविता को दी दिव्य दृष्टि।
मुख्य लक्षण से जो न कहे,
वह संकेत बने काव्य सृष्टि॥४॥
रसध्वनि माने सर्वोत्तम,
जिसमें झलकें प्रेम वंदन।
संकेतों में बोले जीवन,
शब्दों में छलके अभिनंदन॥५॥
ना अलंकार, ना रीति मात्र,
ना गुण, ना मात्रार्थ विचार।
सच्चा काव्य वहीं पर ठहरे,
जहाँ भाव हो, संकेत अपार॥६॥
भामह, वामन, दंडी, मम्मट,
सबमें उनका प्रतिध्वनि स्वर।
मम्मट ने भी माना ध्वनि को,
आत्मा जैसे हो सुकवि वर॥७॥
शैव रसों से भरे विचार,
तंत्र योग वेदांत का सार।
काव्य बना अब साधना पथ,
रस की साधना, भाव का विस्तार॥८॥
सहृदय बना वह श्रोता धन्य,
जो पढ़ ले संकेतों की गाथा।
कवि बने वह योगी-पथिक,
जो शब्दों में बोले प्रभु थाता॥९॥
हे आनन्दवर्धन, वंदन तुम्हे,
काव्य को दी जिसने चेतना।
शब्दों के पार पहुँचाया जो,
बोल सका जो मौन भावना॥१०॥
@Dr. Raghavendra Mishra
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