कश्मीर की घाटी में जागा, इतिहास तरंगित मन,
सत्य धर्म की वीणा पर, गाए कल्हण वचन।
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
कश्मीर की घाटी में जागा, इतिहास तरंगित मन,
सत्य धर्म की वीणा पर, गाए कल्हण वचन।
न राजा के चरणों में झुके, न स्वार्थ की हो माया,
नीतिगत उस लेखनी ने, सच का दीप जलाया।।
वर्णन न केवल विजयों का, पर हारों की भी कथा,
जहाँ अधर्म हंसता था, वहाँ बज उठी व्यथा।
गोनंद से जयसिंह तक की, लहरों की यह गाथा,
तरंग तरंग में छिपा हुआ, युगों युगों का माथा।।
न प्रियतम हम किसी के, न वैरी बनें किसी के,
जो न्यायपथ से डिगे, उन्हें दर्पण दिखाएँ उसी के।
ऐसी निर्भय वाणी उसकी, जो चाटुकारी से परे,
शिलालेखों, वंशावलियों से, सत्य-सरिता बहे।।
राजतरंगिणी के पृष्ठों में, केवल काल न बसा,
धर्म, नीति, समाज बिंबित, हर स्वर उसमें हंसा।
स्मृति-सरिता बहे विचारों का, चेतन तीरथ स्थल,
कल्हण की दृष्टि समत्व की, बने धरोहर सजल।।
न केवल इतिहास कहा, चेताया भी समय को,
जो भूले अपनी जड़ें, खो देंगे निज श्रम को।
कश्मीर की माटी से गूँजी, भारत का वह स्वर,
कल्हण की लेखनी बनी, संस्कृति हो अमर।।
आज विकृतियाँ जो गढ़तीं, झूठे आख्यानों को,
कल्हण का सत्य उजागर करे, मिटा दे व्याख्यानों को।
इतिहास नहीं है केवल कथा, यह चेतना का संकल्प,
राजतरंगिणी सिखलाए, स्वत्व बोध का विकल्प।।
तरंगों में इतिहास बहे, कल्हण का अमृत गान,
नीति, धर्म, समभाव से, रचे कश्मीर महान।
जो जाने निज अतीत को, वही सजे भवितव्य,
राजतरंगिणी की ध्वनि से, जागे भारत हो भव्य।।
@Dr. Raghavendra Mishra
No comments:
Post a Comment