कविता: सावरकर की लेखनी
(एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि)
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)
कलम चले जब वीर का, चेतन भूमि ही जागे,
शब्द बने फिर शंखध्वनि, युवा उठ कर हो आगे।
अंडमान की काल गुफा में, गूंजे जहाँ विचार,
सावरकर की लेखनी थी, स्वतंत्रता की पुकार।।
‘१८५७ समर’ लिखा, न था वह विद्रोह मात्र,
था वह पहला दीपक जो, बन गया अग्निपात्र।
इतिहास का सत्य उकेरा, झूठ की चीर दी चादर,
‘हिंदुपदपादशाही’ में जगा, शिवराय का आदर।।
'हिंदुत्व' का किया प्रकाश, पूछा कौन है हिंदू?
जिसकी पुण्यभूमि भारत हो, वही है सच्चा बंधु।
ना मज़हब की संकीर्णता, ना जाति की दीवार,
वह गढ़े एक राष्ट्र, जहाँ, हर नर हो खुद श्रृंगार।।
'माझी जन्मठेप' की पीड़ा, बने जन-जागरण गीत,
अंडमान के काले पानी में, जलता रहा मन मीत।
सींक से दीवारें चीरकर, लिखा था उसने ग्रंथ,
कांप उठी थी ब्रिटिश सत्ता, बोल गया उनका अंत।।
‘पतित पावन मंदिर’ खोला, छूआछूत को ललकारा,
धर्म नहीं जो बाँटे मानव, वो अधर्म ही सारा।
कविता में ‘कमला’ थी, और ‘श्रद्धानंद’ की शान,
‘जयोस्तुते’ गाते रहे, देशभक्ति का वो गान।।
लेख, निबंध, भाषणों में, झलके युग का तेज,
हर विचार में था समर्पण, हर पंक्ति में संवेग।
‘मराठा’ और ‘मित्र’ से, जन-मन को दी चेतना,
उठो! जागो! कहती रही, कलम की वह वेदना।।
ना केवल क्रांति के अगुआ, ना केवल बंदी वीर,
थे साहित्य के वो साधक भी, राष्ट्रधर्म के तीर।
वीर सावरकर का साहित्य, है तप, यज्ञ व प्रार्थना,
उसमें बसती है भारत की, गौरवशाली अर्चना।
@Dr. Raghavendra Mishra
8920597559
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