Tuesday, 20 May 2025

शैवदीपक आचार्य क्षेमराज

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)

हिमशिखर की भूमि पावन, ध्यान की थी वेदिका,
जाग उठी वहाँ शिवबोध की, निर्मल एक चेतिका।
शिष्य बना वह तेजस्वी, अभिनवगुप्त का प्रखर,
ज्योति फैली ज्ञान की फिर, सब दिशाओं में निखर॥

तंत्रमार्ग के रहस्य को, सूत्रबद्ध कर सिखाया,
प्रत्यभिज्ञा के मूल स्वर को, सहज रूप में दिखलाया।
नाट्य-नाद और शब्द में, स्पन्द का जो स्वर गूँजा,
उसे शब्दों की वीणा में, क्षेमराज ने किया पूजा॥

प्रत्यभिज्ञा हृदय में उन्होंने, शिवत्व का सार दिया,
स्वातंत्र्य चैतन्य परमेश्वर का, साक्षात् आकार लिया।
गूढ़ सूत्र जो शिव कहे थे, रहस्यमय स्वर से भरे,
विमर्शिनी की लेखनी ने, उन्हें अर्थ से सब भरे॥

स्पन्दकारिका की धारा में, शिव के गति की बात चली,
और स्वच्छन्दतंत्र में, साधना की ज्योति मन में जली।
क्षेमराज ने दर्शाया, शिव केवल मूर्ति नहीं,
वह चेतन है, स्वतंत्रता है, भीतर के तूफान कहीं॥

नेत्रतंत्र की वाणी में भी, उन्होंने झाँकी आत्मदृष्टि,
वेद, तंत्र, योग, उपासना सबमें भर दी एक सृष्टि।
ज्ञान नहीं था मात्र बोध, वह जीवन का स्पन्दन था,
हर साधक का एक प्रयास, शिवत्व का अभिनंदन था॥

हे क्षेमराज! वंदन तुझको, तू शैवपंथ का गीत है,
गुरु की वाणी का शिष्य महान, तू चैतन्य का मित है।
तेरी लेखनी शाश्वत गाये, शैवागम का महिमा गान, 
प्रत्यभिज्ञा की पावन धुन में, फैले भारत का यशोगान।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

No comments:

Post a Comment