भारत की गाथा, जब जब बहे,
राजतरंगिणी का दीप जलता रहे।।
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
कल्हण की वाणी, सत्य की बानी,
कंठकुंडल से उठी सुमधुर कहानी।
न राजा का भय, न लोभ का भार,
कलम बनी उसके नीति का आधार।।
पिता थे चम्पक, नीति के पुजारी,
राजा हर्ष के दरबार के अधिकारी।
पर कल्हण ने चुना विवेक का पंथ,
काव्य में बुना इतिहास का संत।।
तटस्थ दृष्टि, निष्पक्ष विचार,
हर राजा का किया संपूर्ण संचार।
श्लोकों में लिपटी सच्ची व्यथा,
जनश्रुति, शिलालेख, सब बनी कथा।।
प्रथम तरंग से उठा वंश गोनंद,
मेघवाहन की गाथा मनमंद।
ललितादित्य का तेज अपार,
दूसरे तरंग में था उसका सार।।
संग्रामराज, हर्ष का हुआ पतन,
षष्ठ तरंग में दिखा शासन का मरन।
जयसिंह का युग, समकाल का रंग,
अष्टम तरंग में कल्हण का संग।।
न वह चाटुकार, न महल का गायक,
वह था नीति का निर्भीक प्रति पालक।
जहाँ सत्य तम से डगमगाने लगे,
वहाँ कल्हण ज्ञान दीप जलाने लगे।।
नारी, प्रजा, संस्कृति का मर्म,
हर पंक्ति में ज्ञान भाषा का धर्म।
धर्मो रक्षति, सदा ये मूलमंत्र खड़ा,
अधर्म पर हर राजा से वह लड़ा।।
राजतरंगिणी, तरंगों की धारा,
इतिहास नहीं बस, संस्कार हमारा।
काल के गर्भ से निकली वह रचना,
भारत भूमि की अमर सरंचना।।
जोनराज, श्रीवर बढ़ाए परंपरा,
शुक, प्रज्यभट्ट ने गूंथी यह धरा।
पर जो आरंभ किया वह कल्हण महान,
रच गए वे कालजयी इतिहास गान।।
कश्मीर की माटी, गूंजे अब सदियां,
कल्हण की ध्वनि, सत्य की नदियाँ।
भारत की गाथा, जब जब बहे,
राजतरंगिणी का दीप जलता रहे।।
@Dr. Raghavendra Mishra
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