योगराज! वंदन है तुझको,
ज्ञानयोग का अमर पुरोधा।
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
हिमगिरि की शांत छाया में,
ज्ञानस्रोत जब बहा दिव्य।
प्रत्यभिज्ञा की वीणा से
शिवबोध बना अति सजीव्य॥
उस वीणा के एक सुर में,
गूँजे योगराज महान।
वाणी में जिनके बसते थे,
चैतन्य शिव के गुणगान॥
उत्पल का जो ज्ञानगुरु था,
जग को जो निज रूप दिखाए।
उसी विचार सरिता को फिर,
योगराज ने शब्द पहनाए॥
ईश्वर ही निज आत्मस्वरूप है,
यह रहस्य था गूढ़ अपर।
पर योगराज की व्याख्या से
हुआ वह सहज, हुआ वह प्रखर॥
शिव मूर्ति, शिव ही उपास्य,
वह चेतन का स्वच्छ प्रभात।
वह तो बोले शिव ही तू है,
बिना भेद, बिना कोई बात॥
माया के पट हटाए जिन्होंने,
स्वातन्त्र्य का किया प्रकाश।
बँधे न आत्मा, बँधे न शिव,
सत्य उनका केवल विश्वास॥
ईश्वरप्रत्यभिज्ञा विवृति,
उनके लेखनी का संसार।
जहाँ शुद्ध चैतन्य की झलक,
और शिव का अनुभव अपार॥
उनके शब्द न केवल शास्त्र,
साधक का भी सच्चा पथ।
बोध की उस तीव्र ज्वाला से
जग को मिला शिव का रथ॥
योगराज! वंदन है तुझको,
ज्ञानयोग का अमर पुरोधा।
तेरे पदचिह्नों पर चलकर,
जग पाता शिव का सच्चा योद्धा॥
@Dr. Raghavendra Mishra
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