(यह ज्ञान न सीमित ग्रन्थों में,
यह तो जीवन का मर्म है।
सनातन की पुण्य साधना में,
ज्ञान परम्परा ही कर्म है।।)
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र : लेखक/रचनाकार
वेदों की ध्वनि से गूँजित धरा,
ऋषियों ने रचा सनातन धरोहर।
श्रुति स्मृति की पुण्य परम्परा,
जग को दिया ज्ञान घन तम हरा।।
सांख्य, योग, वैशेषिक ज्ञान,
न्याय, मीमांसा, वेदान्त विधान।
चेतना के उत्कर्ष की भाषा,
प्रज्ञा की अनुपम मधुर मासा।।
चरक, सुश्रुत के शास्त्रों में,
शरीर मन के सूत्र बसे।
लीलावती के अंकगणित में,
ब्रह्मगणित के मन्त्र हसे।।
नाट्यशास्त्र के ताल लय में,
रसा भाव के फूल खिले।
भरत, अभिनवगुप्त सरीखे,
कला के अमृतधार मिले।।
कौटिल्य की अर्थनीति कहे,
राजधर्म की अर्चना करें।
शुश्रुत की शल्यचिकित्सा,
आज भी आधार बनें।।
अक्षर अक्षर में चेतन ज्योति,
गुरुकुल की वह तपस्या मोती।
वसुधैव कुटुम्बकम् का यह स्वर,
विश्वबन्धुत्व का संदेश अमर।।
जल, वायु, धरणी, वनस्पति,
सबमें दैविक प्राण बसे।
लोक परम्परा, शिल्पकला में,
हर कण में ब्रह्म के राग हसे।।
यह ज्ञान न सीमित ग्रन्थों में,
यह तो जीवन का मर्म है।
सनातन की पुण्य साधना में,
ज्ञान परम्परा ही कर्म है।।
चलो पुनः उस मूल को छुएँ,
ज्ञान सरोवर में अर्पण करें।
भारतीय परम्परा के आँचल में,
सत्य, शिव, सुन्दर का दर्शन करें।।
@Dr. Raghavendra Mishra
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