मिज़ोरम की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक और नैतिक गरिमा को समर्पित कविता, जो भारतीय संस्कृति में उसके अद्वितीय योगदान को रेखांकित करती है :
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)
("हे भारत माँ! तू धन्य है, जिसने रचा यह रत्न विशाला।
मिज़ोरम है शांतिगाथा, एक सभ्यता, सरल, निराला।।")
जहाँ बादल बनते चादर से, वनों की रचते वीणा।
वहाँ बसता है मिज़ोरम, पर्वत रत्नों की शुभ मीना।।
शूरवीरों का तेज जहाँ, निःस्वार्थ सेवा भाव प्रबल।
हर घर आश्रम, हर मन मंदिर, हर जीवन का लक्ष्य सबल।।
दया, तपस्या, त्याग जहाँ, धर्म न सीमित ग्रंथों में।
प्रकृति जहाँ करती आरती, वहाँ संस्कृति है अर्थों में।।
चेरॉ नृत्य की छाया में, बाँसों के सुर गूँजें गगन।
मिम कुट, चपचार के मेले, गाते अन्नपूर्णा का प्रन।।
संगीत में ऋतुगान झूमे, नारी भी रचती गीत महान।
लोककथाएँ, वीरगाथा बुनें, समय का सुनहरा शान।।
शब्द बने मिज़ो के मोती, लुशाई वाणी की मीठी धार।
भारत लिपि में सजे विचार, ज्ञान बने हर कोना पार।।
झूम खेत की साधना में, धरती से प्रकट सम्वाद।
हर बीज में छिपा धर्म है, सदैव हो ऋषि का सम्नाद।।
स्वास्थ्य जहाँ नीति का पूरक, शिक्षा में उज्जवल जनवाद।
विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में, बसी सभ्यता की मधु संवाद।।
वन औषधि, नदियाँ, पर्वत, कहते हैं प्रकृति ही वेद।
साक्षरता बने दीपशिखा, जन जन में हो ना हो कभी भेद।।
न कोई जाति, न कोई द्वेष, जनजातियों में मेल अपार।
भाषाएँ मिलें मुस्कानों में, बंधुत्व यहाँ परम आधार।।
हे भारत माँ! तू धन्य है, जिसने रचा यह रत्न विशाला।
मिज़ोरम है शांतिगाथा, एक सभ्यता, सरल, निराला।।
पूर्व दिशा का यह दीप जले,जग को कर दे आलोकित काल।
भारत के गले की मणि, विश्वबंधुता का जीवंत भाल।।
@Dr. Raghavendra Mishra
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