Sunday, 11 May 2025

 "माँ" एक स्वर, एक संसार

रचनाकार: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र

माँ तेरे नाम से आरंभ, जीवन का हर संवाद,
तेरे बिना अधूरा है जग का हर अनुवाद।
ना कोई वर्ण, ना कोई जाति,
तेरी ममता सबसे ऊपर, तू है विशेष बाति।।

भाषाएँ बदलीं, देश बदलते,

तुझको पुकारें सब “माँ” कहकर चलते।

कहीं “मुतर”, कहीं “उम्म” कहीं मुख्य “अम्मा”
हर बच्चे की पहली ध्वनि, तू ही तो है माँ।।

इंक़ा की धरती पचामामा,
माया की देवी ना’ छाया 
मिस्र की आइसिस,
निन्हुर्सग की शुभ माया।

संस्कृत बोले “माता”, “जननी”,
गंगा भी माँ, वेदों की ध्वनि।
जननी जन्मभूमि के तुल्य स्वर्ग भी झुके,
तेरे चरणों में ही सृष्टि के रहस्य रुके।

चीन से जापान, कोरिया से फारस,
हर लोरी में तेरा ही सरगम तू है सारस।
फ्रांस की “मेरे”, रूस की “मात”,
तुर्क की “आना”, हिब्रू की बात।

ममता का एक राग,
हर संस्कृति का साझा अनुराग।
तेरे आँचल में मिलती शांति,
तेरे स्पर्श में ही है ब्रह्म की क्रांति।

माँ तू शरीर नहीं, तू चेतना है,
भूख में अन्न, भय में शरण,
दुख में आँसू पोंछने वाली मधुर वेदना है।

तेरे बिना न वाणी, न वेद,
न संस्कृति, न धर्म, न ज्ञान के भेद।
तेरी ममता की ज्योति जलती रहे,
हर युग में तेरी पूजा चलती रहे।

इसलिए चाहे कोई भी भाषा बोले,
माँ की आवाज़ सबके मन में डोले।
"माँ" एक स्वर है, जो सदा अमर है,
"माँ" एक संसार है जो सबमें अजर है।

@Dr. Raghavendra Mishra 

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