माँ : भाषाओं से परे एक सार्वभौमिक संवेदना
"माँ" पर समाचार संपादकीय प्रकाशन हेतु लेख
लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
(संस्कृताचार्य एवं भारतीय ज्ञान परंपरा विशेषज्ञ)
जब एक शिशु जन्म लेकर इस धरा पर पहला शब्द बोलता है, तो प्रायः वह शब्द होता है “माँ”। यह केवल एक संबोधन नहीं, अपितु जीवन का पहला स्पर्श, पहली ध्वनि, पहला विश्वास होता है। विविध भाषाएँ, असंख्य संस्कृतियाँ, तथा हजारों वर्षों की सभ्यताएँ भले ही विविध प्रतीत होती हों, परन्तु "माँ" की अनुभूति में वे सभी अद्वितीय एकता में बंधी दिखाई देती हैं।
विश्व की लगभग हर भाषा में माँ के लिए प्रयुक्त शब्दों में आश्चर्यजनक साम्यता पाई जाती है। ‘म’, ‘मा’, ‘अम्मा’, ‘मामा’, ‘मॉम’, ‘मुतर’, ‘मादर’, ‘उम्म’ जैसी ध्वनियाँ केवल भाषिक संरचना नहीं, अपितु हृदय की गहराइयों से निकली भावनाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं। भारतवर्ष की संस्कृत परंपरा में ‘माता, अंबा, जननी’ जैसे शब्दों का प्रयोग न केवल मातृत्व के लिए, बल्कि धरती, संस्कृति, वेद, गंगा और भाषा के लिए भी होता है, माँ केवल जननी नहीं, संरक्षिका, शिक्षिका प्रेरणा तथा जीवन का मूल स्रोत है।
सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में, भारत की तरह ही दुनिया की अनेक प्राचीन सभ्यताओं ने भी "माँ" को दिव्यता का प्रतीक माना जाता है। इंक़ा संस्कृति की पचामामा (धरती माँ), माया सभ्यता की ना' देवी, मेसोपोटामिया की निन्हुर्सग, और मिस्र की आइसिस, इन सभी में माँ को सृष्टिकर्त्री माना गया है। चीनी, जापानी, कोरियाई, फारसी, फ्रेंच, रूसी, तुर्की, हिब्रू जैसी भाषाओं में भी माँ के लिए प्रयुक्त शब्दों में ममत्व और मधुरता का अद्भुत संगम दृष्टिगोचर होता है।
इस तथ्य में भी अद्भुत भाषावैज्ञानिक संकेत छुपे हैं कि बच्चे अपने जीवन की आरंभिक ध्वनियों में सहज रूप से ‘म’ का उच्चारण करते हैं — शायद इसीलिए ‘माँ’ एक सार्वभौमिक ध्वनि बन गई है। भाषाई जड़ें भले भिन्न हों, परंतु अनुभव एक समान है।
माँ का अस्तित्व केवल जैविक नहीं, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भी है। वह केवल शरीर नहीं, वह चेतना है। वह भूख में अन्न, भय में सुरक्षा, दुःख में करुणा और उत्सव में मंगलगान है। हमारे शास्त्रों में माता को पिता से भी पहले स्मरण करने का विधान है —
“मातृदेवो भव”, “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”।
आज जब विश्व ‘अंतरराष्ट्रीय मातृ दिवस’ (Mother’s Day) जैसे दिवसों को मनाकर माँ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है, तब हमें यह स्मरण करना चाहिए कि हमारे भारतीय ग्रंथों और लोकसंस्कृति में हर दिन मातृत्व के वंदन का पर्व रहा है।
यह मेरे द्वारा लिखित आलेख एक विनम्र प्रयास है यह समझने का कि भाषा चाहे कोई भी हो, देश चाहे जहाँ भी हो, माँ की पुकार एक ही होती है:
देवनागरी में उच्चारित "माँ"।
@Dr. Raghavendra Mishra
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