डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
जाति जनगणना : एक दूरदर्शी कदम या सामाजिक समरसता की पुनर्रचना?
लेखक : डॉ. राघवेंद्र मिश्र
(संस्कृत भाषाविद् एवं सामाजिक विमर्शकर्ता)
भारत एक बहुस्तरीय, बहुसांस्कृतिक, और बहुजातीय राष्ट्र है, जहाँ सामाजिक संरचना सदियों से जातियों के आधार पर निर्मित रही है। ऐसी स्थिति में जातिगत आंकड़ों का सम्यक् संकलन केवल प्रशासनिक आवश्यकता नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की नींव है। यदि मोदी सरकार जातिगत जनगणना का निर्णय लेती है, तो यह कदम भारतीय समाज की आकांक्षाओं को एक नया स्वर दे सकता है।
सटीक आंकड़ों की आवश्यकता क्यों?
1931 के बाद से भारत में जाति आधारित कोई पूर्ण जनगणना नहीं हुई। परिणामस्वरूप, नीतियों का निर्माण अनुमान, परंपरा और राजनीतिक गणनाओं पर आधारित रहा। सामाजिक न्याय की योजनाओं, जैसे आरक्षण, छात्रवृत्तियाँ, और विशेष कल्याण कार्यक्रम, तब तक प्रभावी नहीं हो सकतीं जब तक यह न जाना जाए कि कौन-से समुदाय आज भी सामाजिक-शैक्षिक रूप से वंचित हैं।
शिक्षा में बदलाव का द्वार
जातिगत जनगणना से यह स्पष्ट हो सकेगा कि कौन-से समुदाय अब भी साक्षरता, उच्च शिक्षा और तकनीकी ज्ञान से वंचित हैं। इससे सरकार लक्षित योजनाओं की घोषणा कर सकती है – जैसे छात्रवृत्ति, कोचिंग, या विशेष आवासीय विद्यालय। इससे वास्तविक वंचितों को लाभ मिल सकेगा, बजाय इसके कि सुविधाएं केवल उन्हीं तक सीमित रहें जिन्होंने पहले ही सामाजिक सीढ़ियाँ चढ़ ली हैं।
सांस्कृतिक पुनरुद्धार का अवसर
जातियाँ केवल सामाजिक इकाइयाँ नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान की संवाहक भी हैं। लोकनाट्य, संगीत, हस्तशिल्प और परंपराएँ प्रायः जातिगत समुदायों में सुरक्षित रही हैं। जब इनका दस्तावेजीकरण जाति जनगणना के माध्यम से होगा, तो भारत की बहुरंगी सांस्कृतिक विविधता को वैश्विक मंच पर पहचान मिल सकती है। यह यूनेस्को की "Intangible Cultural Heritage" सूची में और अधिक भारतीय परंपराओं को स्थान दिलाने में सहायक हो सकता है।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व में संतुलन
जनगणना के आंकड़े यह उजागर कर सकते हैं कि किन जातियों को अपेक्षाकृत कम राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला है। इससे निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्रचना और पंचायतों से लेकर संसद तक प्रतिनिधित्व में सुधार संभव हो सकेगा। इससे लोकतंत्र अधिक समावेशी और पारदर्शी बनेगा।
कानूनी और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
सर्वोच्च न्यायालय ने इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) और विकास किशनराव गवली बनाम महाराष्ट्र सरकार (2021) जैसे मामलों में स्पष्ट कहा है कि आरक्षण और प्रतिनिधित्व के लिए अद्यतन जातिगत आंकड़े आवश्यक हैं। ऐसे में जाति जनगणना केवल सामाजिक नीति नहीं, एक संवैधानिक आवश्यकता बन जाती है।
संभावित चुनौतियाँ और समाधान
निःसंदेह, जाति जनगणना को लेकर समाज में आशंकाएँ हैं – जैसे सामाजिक विभाजन, राजनैतिक ध्रुवीकरण, या आंकड़ों के दुरुपयोग का भय। परंतु पारदर्शी प्रक्रिया, डेटा गोपनीयता का पालन, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह आशंकाएँ निर्मूल सिद्ध की जा सकती हैं।
अंततः जाति जनगणना केवल एक गणना नहीं, यह सामाजिक पुनर्रचना का युगांतकारी प्रयास हो सकता है। यह भारत को केवल समृद्ध नहीं, समरस भी बना सकता है – जहाँ नीति, प्रतिनिधित्व, और संसाधनों का वितरण आंकड़ों और न्याय पर आधारित हो। यदि यह कार्य व्यापक दृष्टि और संवेदनशीलता से संपन्न होता है, तो आने वाले दशकों में भारत एक नई सामाजिक चेतना का साक्षी बन सकता है।
@Dr. Raghavendra Mishra
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