डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
कविता: "कर्म की कसौटी, जाति नहीं"
लेखक: डॉ. राघवेंद्र मिश्र
जाति न थी कोई दीवार,
न था कोई भूगोल प्रकार,
भारत की माटी कहती थी,
तब एक गंगा बहती थी ।
ऋषियों ने न गिना रक्त रंग,
न माँगा जाति का कोई संग,
कर्म ही था पहचानों का धर्म,
गुण ही था कुल का तब मर्म।
फिर आई आँधी विदेशी चाल,
बाँट दिए वे नस्ल के जाल,
जनगणना में अंकित कर दिया,
कौन बड़ा, क्या, किसको लिया।
टेम्पल-रीस्ले की लेखनी ने,
सभ्यता बाँटी फेकनी में,
सनातन को खंड-खंड कर,
खड़ा किया फिर 'जाति' के प्रश्न पर।
अब फिर वही इतिहास रचा है,
सत्ता ने जाल नया बिछाया है,
गिनती में इंसान नहीं देखे,
केवल जाति के टुकड़े देखे।
विद्यालयों में संवाद मरेगा,
भाईचारा भी पीछे हटेगा,
छात्र अब जात पूछकर लड़ेंगे,
ज्ञान नहीं, पहचान पढ़ेंगे।
गाँव-गाँव में बातें होंगी,
“तेरा कुल क्या?”, “तू किस गिनती में?”
नैतिकता का दीप बुझेगा,
राजनीति फिर जाति में सजेगा।
क्या यही है समता की चाह?
या पुनः वही विघटन की राह?
बोलो भारत, क्या बनना है?
एक राष्ट्र या बिखरा समाज?
कर्म से बड़ा कुछ और नहीं,
गुण ही कुल की ज्योति सही,
जाति नहीं हो नीति की जड़,
सत्य वही जो किया समाज को बड़ ।
उठो युवा! पहचानो मूल,
ना बाँटो माटी जाति के उसूल,
ज्ञान, करुणा, तप और त्याग,
बने फिर भारत का नया राग।
@Dr. Raghavendra Mishra
जातीय जनगणना की ऐतिहासिक और वर्तमान पृष्ठभूमि में खड़ी सामाजिक चुनौतियों पर प्रश्न उठाते हुए भारत की सनातन परंपरा को कर्म, गुण और समरसता की कसौटी पर पुनः प्रतिष्ठित करने का आह्वान करती है।
जातीय जनगणना पर आधारित एक गंभीर, विचारशील और प्रेरक कविता, जो भारत में सामाजिक चेतना को जगाने और सनातन दृष्टि को पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रही है।
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