डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
(रचनाकार)
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई...
लाल टोपी पहिन के, सफ़ेद झूठ लाई...
छोटका के छोटहन, बड़का के बड़हन,
सबके छीन के अकेले खा जाई।
गरीबी हटे ना, गरीब उठे ना,
बस नारा गढ़े जो सबसे भा जाई।
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई...
कागज़ पर गाँव, और घोषणन में भलाई...
जमींवा बिना खेती, खेतवा बिना पानी,
फिरो सब पंचवर्षी योजना के कहानी।
शिक्षा के नाम पर ज्ञान के हानि,
मुफ्तवा किताब, पर खाली दिमाग की रवानी।
नेता कहे – “हम सब बराबर बनाइब,”
और खुद घुस जाई विदेशी कमराइब।
गरीब पूछे – “का हमहु खाइब?”
नेता हँसे – “अरे, तुमको वोट दिलाइब!”
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई...
कागज़ पर सपनन के महल बनवाई...
अफसर के बच्चा, अंगरेजी पढ़ाई,
मजदूर के लइका, ब्लैकबोर्ड न पाई।
समानता के नाम पर असमानता छुपाई,
मंच पर भाषण, और नीचे मलाई।
बोलत रहिन – “हम जनतंत्र के सेवक,”
लेकिन बन गइलन सत्ता के ठेकेदार-बेवक।
न्याय के नाम पर चले राजनीति,
सच बोलै वाला के मिलै बस निंदा-वृति।
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई...
कुर्सी से चिपक के जड़ जमाई...
गरीब के झोंपड़ी ढह गई बरसात में,
और नेताजी छुट्टी मना रहे स्विट्ज़रलैंड की बात में।
जनता भूखी, पर नारा भूखा न होत,
हर साल नया वादा – फिर पुरान घोट!
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई...
लोक के नाम पर लोभ बस समाई...
@Dr. Raghavendra Mishra
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