डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
कविता: “वीर भूमि सोनभद्र”...
सोनभद्र की धरती पावन, बलिदानों की गाथा गाए,
जहाँ कुंवर सिंह की हुंकार से, दुश्मन की नींद उड़ जाए।
1857 की ज्वाला, यहाँ धधकती आग जली,
लक्ष्मण सिंह के शौर्य से, फिरंगी सत्ता भाग चली।
विजयगढ़ की प्राचीरों ने, विद्रोहों की तान सुनी,
धरती बोली “मैं स्वतंत्र हूँ”, जब तलवारें तनिक हिलीं।
रामगढ़ की घाटियों में, आज़ादी की सांस बसी,
सत्य और त्याग की महिमा, जन-जन की पहचान रची।
गांधीजी के असहयोग में, यहाँ जन-जन जाग उठा,
नमक सत्याग्रह की आंधी, वन-पर्वत तक को नाप चुका।
झूमर गीतों में छुपा संदेश, “वंदे मातरम्” की बात,
लोक परंपरा से फैला, स्वतंत्रता का मंत्र प्रभात।
धर्म, जाति सब भूल यहाँ पर, एकता का दीप जला,
हिंदू, बुद्ध, जैन, गोंड सभी ने, भारत-माँ से नाता पला।
जाति पंथ की सीमाओं से, ऊपर उठ कर साथ चले,
राजनीति के मंचों पर भी, समरसता की बात गले।
आज भी जिन पत्थरों पर, बंदूकें गरजी थीं कभी,
वहीं विद्यालयों में अब, बच्चों की मुस्कान जगी।
यह भूमि नहीं मात्र धरा है, यह तप की ज्योति बनी,
स्वतंत्रता की नींवों में, सोनभद्र की शौर्य कथा सनी।
जय सोनभद्र, जय भारत-माता!
जहाँ हर कण में बसती है आज़ादी की परिभाषा।
@Dr. Raghavendra Mishra
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