डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
"माँ अमिला धाम" पर आधारित कविता
विंध्य की गोद में सजी धरा पर,
हरियाली में लिपटी पावन डगर।
जहाँ शक्ति की ज्योति प्रकट होती,
वहीं विराजे अमिला मातु अमर।।
तरिया की तरंगों में तप की लहर,
धूप-छाँव में साधना का स्वर।
नारी शक्ति का तेज अनोखा,
जहाँ स्वयं प्रकृति हो माँ का दर।।
ना गार्डर, ना सीमेंट की भाषा,
खूट और चूड़ की अद्भुत आशा।
खजुराहो जैसी कलात्मक छाया,
भारतीय स्थापत्य की यह अभिलाषा।।
नवरात्रों में उमड़े भक्त हजारों,
झारखंड-बिहार से आते नर-नारी अपारों।
कर्मकांड, अर्चन, दीप-धूप संग,
मन, वचन, कर्म में भक्ति के रंग।।
तांत्रिकों की भूमि, योगियों की राह,
ध्यान की छाया, समाधि की चाह।
अमिला भवानी, तू शाश्वत जननी,
तेरे चरणों में मिलता है गुप्त रजनी।।
जनपद के दिल में तू चेतना बनी,
लोकगीतों में गूँजे तेरी वाणी धनी।
तेरा धाम न केवल पूजा का स्थल,
बल्कि संस्कृति और शोध की अमर गाथा पल।।
चलो चलें उस शांत धाम की ओर,
जहाँ माँ की दृष्टि करे जीवन संजोर।
अमिला भवानी की कथा अनंत,
जिसे लिख न पाए कोई ग्रंथ।।
@Dr. Raghavendra Mishra
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