डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
जातीय जनगणना पर आधारित एक गंभीर और विचारपूर्ण गीतात्मक कविता, जो भारतीय समाज पर इसके प्रभाव को भावनात्मक और वैचारिक रूप में प्रस्तुत करता है ।
कविता "जाति की जंजीरें"
लेखक: डॉ. राघवेंद्र मिश्र
जब भारत थी जननी समान,
सबको देखे एक समान,
न था कोई ऊँच-नीच का भाव,
सबको मिलता था सत्प्रभाव।
फिर आया इक फिरंगी तंत्र,
जिसने रचा कूटनीति का मंत्र,
बाँट दिया समाज चाल से,
जाति बाँध दी नस्ल जाल से।
एकहत्तर में पहला वार हुआ,
जनगणना में जाति प्रचार हुआ,
टेम्पल और रीस्ले की लेखनी,
बाँट गए भारत की रेखनी।
जातियाँ बनीं आँकड़ों की कथा,
शुद्ध-अशुद्ध की चली व्यथा,
कर्म से नहीं, वंश से पहचान,
गुण नहीं, जात बना सम्मान।
जो था लचीला, कठोर हो गया,
जो था जीवित, चिताभस्म हो गया,
वर्णों की गति जाति में सिमटी,
नस्ल की राजनीति भीतर चिमटी।
बनाया जिसे धर्म ने साधन,
उसे बना दिया फूट का कारन,
भाई-भाई में दरारें पड़ीं,
संघर्ष की कालिखें गहरी चढ़ीं।
आज भी वही आंकड़े बोझ हैं,
जातीय राजनीति की खोज हैं,
न्याय का नहीं, गिनती का सवाल,
सत्ता के हाथों बँटे हैं काल।
उठो भारत, पहचानो मूल,
जाति नहीं है निजता का उसूल,
कर्म से हो फिर से मूल्यांकन,
न हो कभी नस्लीय आंकलन।
गीत नहीं यह, चेतावनी है,
जागृति की इक साधना बनी है,
तोड़ो अब ये जंजीर पुरानी,
बनाओ नव भारत की कहानी।
@Dr. Raghavendra Mishra
यह गीत ब्रिटिश काल की जातीय जनगणना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उसके सामाजिक परिणामों को काव्यात्मक रूप में व्यक्त करता है। यह गीत भारतीयों से सामाजिक समरसता, कर्म आधारित मूल्यांकन, और जातिगत बंधनों को तोड़ने का आह्वान करता है।
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