व्यंग्यात्मक हास्य नाटक "जजमेंटल फैमिली" । यह नाटक भ्रष्टाचार, कानून की दोहरी चाल और मीडिया के रंग-ढंग को व्यंग्य और हास्य के ज़रिये प्रस्तुत करता है ।
हास्य नाटक: जजमेंटल फैमिली
पात्र:
- जज साहब – देश के सबसे प्रतिष्ठित लेकिन "गुप्त रूप से प्रतिभाशाली" भ्रष्टाचारी
- श्रीमती जज – पैसे गिनने में एक्सपर्ट
- बेटा – वकीलु बाबू – कानून को चाय की प्याली समझने वाला
- पुलिस इंस्पेक्टर ढुलमुल सिंह – जो हर चीज़ में "नज़र का दोष" ढूंढता है
- फायरमैन तेज बहादुर – आग से ज़्यादा खबरों से डरता है
- मीडिया रिपोर्टर चिपकू खान – कैमरा से नहीं, मुद्दों से चिपकता है
- पड़ोसी – आम जनता – जो हमेशा चौकन्ना है, लेकिन बेबस है
दृश्य 1: जज साहब का ड्राइंग रूम – आग का धुआं और नोटों की गंध
(श्रीमती जज दौड़ती हुई)
श्रीमती जज: अजी सुनते हो! वो जो पैसे की बोरी बगल वाले गद्दे के नीचे रखी थी... आधी जल गई!
जज साहब: (आराम से अख़बार पढ़ते हुए)
कोई बात नहीं, बची आधी गिन लो। फिर उसकी रिपोर्ट लगाऊँगा कि ये सब ‘भ्रष्टाचार जागरूकता सप्ताह’ के डेमो के लिए था।
वकीलु बाबू: (फोन पर)
हेलो, हां पुलिस को बुलाओ... पर कहना CCTV बंद था, और आग अपने आप लगी थी। संविधान के अनुच्छेद 420(बी) के अनुसार, ये "नेचुरल डिजास्टर" है।
दृश्य 2: आग बुझ गई, पुलिस और मीडिया सक्रिय
ढुलमुल सिंह:
हमें एक अरब की गड्डियाँ मिलीं, पर ये कोई सबूत नहीं है। जब तक नोट खुद नहीं कहे "मैं काला धन हूं", हम कैसे मानें?
तेज बहादुर:
हम तो आग बुझाने आए थे, लेकिन यहां तो नोट ही भभक रहे थे। समझ नहीं आ रहा कि पानी डालूं या इन्वेस्ट करूं।
चिपकू मिश्रा (मीडिया वाले):
ब्रेकिंग न्यूज! जज के घर मिली दौलत की गंगा! क्या यह ‘नीति आयोग’ की नई स्कीम है? पूरे देश में गूंज रहा है – “जज के घर भी जलती है आग!”
दृश्य 3: अगले दिन जज साहब का प्रमोशन
श्रीमती जज:
देखा? जल गए नोट, मगर तुम्हारा प्रमोशन हो गया!
जज साहब:
क्यों नहीं होगा? ये "संविधान जलाने में उल्लेखनीय योगदान" माना गया है। अब मैं सुप्रीम जज बनने जा रहा हूँ।
वकीलु बाबू:
अब से मेरे क्लाइंट्स कहेंगे – "अगर जुर्म करना है, तो परिवारिक न्यायपालिका से प्रेरणा लो!"
दृश्य 4: पड़ोसी आम जनता का संवाद
पड़ोसी:
भैया, हम अगर सड़क पर दस हज़ार लेकर जाएं तो पुलिस पकड़ लेती है। और इधर अरबों मिलें, तो कह रहे हैं – "इन्वेस्टिगेशन जारी है।"
दूसरा पड़ोसी:
अब तो सोच रहा हूँ बच्चे को डॉक्टर नहीं, "जज" बनाऊंगा। कम से कम नोट जलें या पकड़े जाएं, प्रमोशन तो पक्का है।
अंतिम संवाद (जज साहब कैमरे की ओर देखते हुए)
जज साहब:
"इस न्यायव्यवस्था में हम सब बराबर हैं – पर कुछ लोग और भी ज़्यादा बराबर हैं!"
(पर्दा गिरता है, दर्शक तालियां बजाते हैं और देश में सब कुछ वैसा ही चलता रहता है)
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