ब्रह्म ही सत्य, जगत मिथ्या –
1. ब्रह्म ही सर्वव्यापक और परम तत्त्व है:
वेदों और उपनिषदों के अनुसार, ब्रह्म वह अनंत, अजन्मा, अविनाशी और निराकार तत्त्व है, जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई, जिसमें यह स्थिर है और अंततः जिसमें विलीन हो जाती है। ब्रह्म नित्य है, चेतन है, और सच्चिदानंद स्वरूप है।
2. समस्त प्राणी ब्रह्म के ही अंश हैं:
श्वेताश्वतर उपनिषद कहती है – "एको देवः सर्वभूतेषु गूढः, सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।"
अर्थात् – एक ही देवता (ब्रह्म) सब प्राणियों में गूढ़ रूप से स्थित है। वह ही सभी का आन्तरिक आत्मा है।
3. जीव, आत्मा और ब्रह्म में अभेद (अद्वैत) है:
छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है – "तत्त्वमसि श्वेतकेतो।"
अर्थात् – हे श्वेतकेतु! तू वही तत्त्व (ब्रह्म) है।
यह उपदेश बताता है कि प्रत्येक जीवात्मा, वास्तव में ब्रह्म ही है, लेकिन अविद्या (अज्ञान) के कारण वह अपने को सीमित शरीर और मन तक ही मान बैठता है।
4. 'ब्रह्माण्ड में ब्रह्म, और ब्रह्म में ब्रह्माण्ड' का अर्थ:
यह कथन इस सत्य की ओर संकेत करता है कि ब्रह्माण्ड कोई भिन्न सत्ता नहीं है, यह स्वयं ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।
जैसे समुद्र में अनेक तरंगें उठती हैं, पर सबकी सत्ता समुद्र ही है, वैसे ही सब प्राणी, वस्तुएँ, विचार, चेतना – सब ब्रह्म से ही प्रकट हैं और उसी में लीन होते हैं।
5. इसलिए सभी जीव ब्राह्मण हैं – गूढ़ अर्थ:
यहाँ “ब्राह्मण” शब्द जाति या सामाजिक वर्ग के अर्थ में नहीं, बल्कि ब्रह्म को जाननेवाले, ब्रह्म में स्थित आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त है।
मनु स्मृति कहती है –
"जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते।
वेदपाठात् भवेत् विप्रः, ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः।"
अर्थात – जन्म से सब शूद्र होते हैं, संस्कार से द्विज, वेद-पाठ से विप्र और ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण कहलाता है।
अतः जब हम कहते हैं कि सभी जीव “ब्राह्मण” हैं, तो उसका तात्पर्य है कि प्रत्येक जीव में वह ब्रह्म तत्व निहित है, और वही उसकी सच्ची पहचान है।
इस दृष्टिकोण से, कोई भी प्राणी “अलग” नहीं है। सभी एक ही सार्वभौमिक चेतना (ब्रह्म) के रूप हैं।
इसलिए सर्वप्रेम, अहिंसा, समभाव, और आत्मसाक्षात्कार – यही उस ब्रह्मदृष्टि के प्रमुख अंग हैं।
@डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
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