अध्याय 1: मीरगंज की चुप्पी
मीरगंज—नाम सुनते ही मन में एक अजीब सी ठिठकन पैदा होती है। यह कोई सामान्य कस्बा नहीं था, बल्कि समय की धूल में दबा एक ऐसा कोना, जहाँ रातें कभी पूरी तरह नहीं सोती थीं। वहाँ की गलियाँ भले ही दिन में शांत प्रतीत होतीं, पर रात के अंधेरे में उन पर अनगिनत अधूरी चीखें घूमती थीं—जैसे कोई अपने पापों को थामे छिप रहा हो।
यहीं जन्मी थी चंडाली। माँ एक वेश्यालय में काम करती थी, पिता कौन था—कभी किसी को नहीं पता चला। वह एक तंग कोठरी में पलती रही, जहाँ दीवारें दर्द को छिपाने की आदी हो चुकी थीं। पर चंडाली उस दर्द से डरने वाली नहीं थी—वह उसी से बनी थी।
बचपन से ही उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—न मोह की, न ममता की—बल्कि जीतने की। वो जानती थी कि दुनिया उसे कभी अपनाएगी नहीं, इसलिए उसने तय किया कि वो ही दुनिया को अपने हिसाब से झुकाएगी।
शिक्षा की सीढ़ियाँ उसने चुपचाप चढ़ीं। वह होशियार थी, चालाक थी, और सबसे बढ़कर—क्रूर थी। जिसने भी उसके रास्ते में आने की कोशिश की, वो या तो गिरा दिया गया, या फिर खरीद लिया गया।
और फिर एक दिन, जब उसे मीरगंज विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया—तो लोगों ने तालियाँ तो बजाईं, पर ज़मीर काँप उठा। क्या यह वही लड़की थी जो वेश्यावृत्ति के अंधेरे से निकली थी? या यह कोई और ही रूप था—एक ऐसी राक्षसी का, जो अब समाज की रगों में ज़हर घोलने आई थी?
अध्याय 2: सत्ता की सीढ़ियाँ
चंडाली ने अपनी चालें बिछा दी थीं। विश्वविद्यालय की चारदीवारी में पाँव रखते ही वह जान चुकी थी कि यहाँ सत्ता केवल ज्ञान से नहीं, बल्कि नियंत्रण से मिलती है। उसे यह भी समझ आ गया था कि जिस संस्था को लोग "शिक्षा का मंदिर" कहते हैं, वहाँ कई दरारें थीं—दरारें, जिनमें वह अपना ज़हर भर सकती थी।
वह कुलपति बनी, तो स्वागत की महफ़िल सजी। चमचमाते कुर्ते-पायजामे, मुस्कुराते चेहरे, नकली अभिनंदन की वर्षा—सब कुछ उसके लिए था। लेकिन चंडाली जानती थी, ये सब मुखौटे हैं। और वह खुद सबसे बड़ा मुखौटा पहनकर आई थी।
कुछ ही महीनों में उसने अपने चारों ओर वफादारों का ऐसा जाल बिछा दिया, जो निष्ठा से नहीं, भय और लोभ से जुड़ा था। जिन्हें ऊँचे पद चाहिए थे, उन्हें उसने वादा दिया। जिन्हें डराना था, उन्हें वह अकेले में बुलाकर उनकी कमज़ोरियाँ याद दिलाती। एक-एक कर उसने विरोध की हर आवाज़ को या तो खरीद लिया, या मिटा दिया।
चंडाली के लिए यह संस्थान एक प्रयोगशाला था, जहाँ वह इंसान की आत्मा को धीरे-धीरे परखती, मरोड़ती और फिर कुचल देती।
कुछ छात्र-नेता उसके विरुद्ध खड़े होने की कोशिश करते, लेकिन जल्द ही या तो वे निष्कासित कर दिए जाते या उनकी छवि को मीडिया में कलंकित किया जाता। कुछ प्रोफेसर जो नैतिकता और मर्यादा की बात करते, उन्हें ‘पुराने जमाने का बोझ’ बताकर हटा दिया गया।
वह अब कुलपति नहीं, शासक बन चुकी थी।
प्रत्येक विभाग में उसका डर था। उसकी मुस्कान के पीछे एक ऐसा भय छिपा था जो सबको जकड़ चुका था। वह जानती थी कि डर सबसे बड़ा उपकरण है—प्रेम से नहीं, डर से राज किया जाता है।
परंतु उस डर के बीच भी एक कमज़ोरी थी—उसका अतीत।
रातों को जब वह अपने विशाल कमरे में अकेली होती, तो दीवारें फिर वही आवाज़ें दोहराने लगतीं—उसकी माँ की सिसकियाँ, अधूरी चीखें, और उसका स्वयं का बचपन। वह हर रात अपना चेहरा शीशे में देखती—और धीरे-धीरे उस चेहरे में किसी और की छाया दिखाई देने लगती।
उसे डर था—कहीं वह राक्षसी केवल उपाधि भर न हो, कहीं वह वास्तव में वही न बन चुकी हो, जिससे वह भाग रही थी।
अध्याय 3: संबंधों का विष-जाल
चंडाली के जीवन में संबंध कभी आत्मीयता का स्रोत नहीं रहे। वे केवल एक साधन थे—लाभ उठाने का, नियंत्रित करने का, और सबसे बढ़कर—अपने भीतर के खालीपन को ढँकने का।
कुलपति बनने के बाद वह केवल संस्था की प्रमुख नहीं थी, बल्कि पूरे समाज की 'प्रतिष्ठित' स्त्री बन चुकी थी। उसका नाम अखबारों में छपता, टीवी चैनलों पर चर्चा होती। पर उसकी असली राजनीति कैमरों के पीछे खेली जाती थी।
उसने अपने चारों ओर ऐसे पुरुषों और महिलाओं का एक "विश्वासपात्र" मंडल बना लिया था, जो या तो उसकी लिप्सा के बंदी थे, या भय के। वह अपने प्रभाव से किसी के भी मन को मोड़ सकती थी—कभी स्नेह का मुखौटा पहनकर, तो कभी क्रूर दंड का भय दिखाकर।
एक युवा प्रोफेसर, अंशुमान, उसकी विशेष रुचि का विषय बन गया था। प्रतिभाशाली, विचारशील, और नैतिक—जो चंडाली के लिए सबसे बड़ा ख़तरा था। उसने अंशुमान को रिझाने की कई बार कोशिश की—कभी पुरस्कार के बहाने, कभी शोधवृत्ति का प्रलोभन देकर।
पर अंशुमान ने विनम्र किन्तु स्पष्ट इंकार किया।
यहीं से चंडाली की क्रूरता ने एक नया रंग लिया। अंशुमान पर झूठे आरोप लगने लगे—प्रशासनिक गड़बड़ी, छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार, और यहाँ तक कि चरित्रहीनता का भी। धीरे-धीरे उसका सामाजिक जीवन टूटने लगा। वह चुपचाप सब सहता रहा, पर चंडाली के भीतर एक भय जाग उठा—क्या कोई है जो मेरे प्रभाव से अछूता है?
उसका गुस्सा अब केवल बाहरी नहीं रहा, वह अंदर भी सुलगने लगा था। वह संबंध बनाती, फिर उन्हें तोड़ देती। उसका मन अब उन लोगों से घिरता जा रहा था जिनसे उसे डर था कि वे उसे छोड़ देंगे। इसलिए वह पहले ही उन्हें छोड़ देती।
रोज़ रात को, जब वह अपनी गद्दीनुमा कुर्सी पर बैठती, तो उसे अंशुमान की मौन आँखें याद आतीं—वो आँखें जो बिना बोले सब कह गई थीं। और उन आँखों के सामने चंडाली स्वयं को नंगी पाती थी—अपनी सत्ता, शृंगार और सम्मान के पीछे छुपी हुई एक राक्षसी, जो अब स्वयं से भी डरने लगी थी।
अध्याय 4: नींव में पहली दरार
मीरगंज विश्वविद्यालय की चमकती इमारतों के नीचे अब खामोश फुसफुसाहटें गूंजने लगी थीं। अंशुमान पर लगे झूठे आरोपों ने कुछ छात्रों और शिक्षकों को भीतर ही भीतर विचलित कर दिया था। वर्षों से सहन की गई अन्याय की चुप्पियाँ अब थकने लगी थीं।
यही वह समय था जब एक नये छात्र संगठन—"प्रतिध्वनि"—ने जन्म लिया। यह संगठन चुपचाप उन सबकी आवाज़ बनने को तैयार था, जो वर्षों से चंडाली की सत्ता तले कुचले जा रहे थे। इसके पीछे कोई राजनीतिक दल नहीं था, कोई बाहरी समर्थन नहीं—केवल सत्य, और उस सत्य को बोलने की हिम्मत थी।
संगठन के पहले पोस्टर लगे:
"हम शिक्षा माँगते हैं, शोषण नहीं। हम न्याय माँगते हैं, डर नहीं।"
चंडाली ने इसे पहले तो नजरअंदाज़ किया। पर जल्द ही उसे एहसास हुआ कि यह संगठन उसके डर के किले में सेंध लगा सकता है।
प्रतिध्वनि ने प्रशासनिक भ्रष्टाचार, शोध फंड के दुरुपयोग, और अनुचित नियुक्तियों की फाइलें इकट्ठी करनी शुरू कर दीं। उन्हें चुपचाप प्रेस तक पहुँचाया गया। कुछ स्थानीय पत्रकारों ने उसे छापा भी—"कुलपति के दरबार में नैतिकता की मौत" जैसे शीर्षक से।
यह पहली बार था जब चंडाली को खुला विरोध मिला। उसका गुस्सा बेकाबू था, पर उससे बड़ा था—उसका भय।
उसे अंशुमान की याद आई, जो अब तक निलंबित जीवन जी रहा था, पर हर विरोध के पीछे उसकी परछाई अब भी जीवित थी।
चंडाली ने अब नया खेल खेला—"दया और आत्मपश्चाताप" का। उसने कैमरों के सामने एक नया चेहरा दिखाया—पछताने वाली कुलपति, सुधारवादी प्रशासक, और ‘नवाचार की समर्थक’। उसने नई योजनाएं घोषित कीं, छात्रवृत्तियाँ बाँटीं, और कुछ नये लोगों को पदों पर बैठाया।
पर यह façade बहुत देर तक नहीं टिक सका।
प्रतिध्वनि को पता था कि यह सिर्फ़ एक और छल है। और अब, वे चुप नहीं रहने वाले थे।
अध्याय 5: अतीत की राख से उठती आग
प्रतिध्वनि अब केवल एक संगठन नहीं रहा था—वह एक लहर बन चुका था। विश्वविद्यालय के गलियारों में अब डर नहीं, उम्मीद तैर रही थी। और यह उम्मीद सबसे बड़ा खतरा थी चंडाली के लिए, क्योंकि यह उसकी सत्ता की नींव हिला रही थी।
फिर एक दिन, बवंडर आया।
प्रतिध्वनि के छात्रों ने एक पुरानी रिपोर्ट जारी की—मीरगंज के वेश्यालयों की। उसमें एक नाम था—"चंडी देवी की बेटी, चंदा।" और यह नाम जुड़ा था चंडाली के असली अतीत से। कई प्रमाण पत्र, पहचान पत्र, पुराने रिकॉर्ड—सब इकट्ठा किए गए। पत्रकारों तक भेजा गया। सोशल मीडिया पर आग लग गई।
"क्या एक वेश्यालय की बेटी, जो नैतिकता की कसौटी पर स्वयं कभी खरी नहीं उतरी, आज विश्वविद्यालय की शुद्धता का निर्णय करेगी?"
विरोध अब निजी हो गया था। चंडाली की आत्मा कांप उठी।
वह जो सबसे छुपाना चाहती थी—उसका जन्म, उसकी माँ की कहानी, उसका अतीत—अब सबके सामने था। उसका चेहरा टीवी पर चमक रहा था, लेकिन अब सत्ता की नहीं, कलंक की रौशनी में।
कक्षाओं में छात्रों ने बहिष्कार किया, सेमिनारों में प्रश्न पूछे जाने लगे। वरिष्ठ प्रोफेसरों ने चुपचाप ही सही, उसका विरोध करना शुरू किया। मंत्रियों के फोन आने बंद हो गए। जिन अधिकारियों ने उसे सिर पर बैठा रखा था, वे अब उससे दूरी बना रहे थे।
और चंडाली… भीतर से टूटने लगी।
रातों को नींदें अब डरावनी हो चुकी थीं। वह बार-बार सपना देखती—खून से सने हाथ, कौओं की चोंचें, एक अंधेरे कमरे में पड़ा सड़ा हुआ शरीर, और एक लड़की जो उसे घूर रही थी… वही चंदा, उसकी पुरानी आत्मा।
अब वह खुद से भाग नहीं सकती थी। न अपने अतीत से, न अपने वर्तमान से, और न उस अंत से, जो धीरे-धीरे उसकी तरफ़ बढ़ रहा था।
अध्याय 6: अंतिम परिक्रमा
अब मीरगंज विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में सन्नाटा था—लेकिन वह सन्नाटा शांति का नहीं था, वह किसी तूफान के ठीक पहले का था।
विद्रोह अब दीवारों से टकराने लगा था।
छात्रों ने मुख्य भवन पर कब्ज़ा कर लिया था। "प्रतिध्वनि" ने ऐलान कर दिया था—जब तक चंडाली को हटाया नहीं जाएगा, तब तक कोई कक्षा नहीं लगेगी। एक स्वच्छ शैक्षणिक भविष्य की मांग अब जनांदोलन बन चुकी थी।
उधर चंडाली, जो कभी एक सजीव देवी की तरह अपने चेंबर में बैठती थी, अब उसी कमरे में कसमसाती एक टूटी हुई छाया बन चुकी थी।
वह अब कुछ नहीं खाती थी। न संवाद, न आदेश, न विरोध—कुछ भी नहीं बचा था उसके पास।
केवल वो पुराना दर्पण था, जिसमें अब वह रोज़ स्वयं को नंगी, डरावनी और अकेली देखती थी।
"क्या यही अंत था?" वह फुसफुसाई।
"क्या मैं सच में वही बन चुकी हूँ, जिससे मैं भागी थी?"
उसके सपने अब जागते में दिखते थे—अपने ही खून से सना शरीर, अपने नाखूनों से अपनी ही चमड़ी नोचती हुई, चील और कौओं से घिरी हुई...
कभी वह ज़ोर से चीख़ती, कभी हँसती। वह अब किसी को पहचान नहीं पाती थी—न कर्मचारियों को, न वफादारों को।
विश्वविद्यालय के अंदर उसका बुत अब ढहने लगा था।
एक रात, जब बाहर प्रदर्शन उफान पर था, अंदर चंडाली ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया। न कोई गार्ड, न सचिव, न वाहन—केवल वह, और उसका अतीत।
कमरे की लाइट बुझा दी गई। पर्दे खींच दिए गए।
अंतिम बार उसने अपनी पुरानी वेश्यालय वाली चप्पलें पहनीं, माँ की एक जर्जर तस्वीर को देखा, और फर्श पर लेट गई।
उसने धीरे-धीरे अपने ही शरीर को नोचना शुरू किया। वह जानती थी, अब उसे किसी और से दंड नहीं चाहिए—वह स्वयं को भक्षण करेगी।
सुबह जब दरवाज़ा तोड़ा गया, तो वहाँ केवल बदबू थी, सड़न थी, और दीवारों पर अजीब-सी लकीरें थीं—शायद खून की, शायद आत्मा की।
अध्याय 7: पुनर्जन्म की मिट्टी
वो सुबह, जब चंडाली की लाश मिली, विश्वविद्यालय में कोई शोक नहीं था। न शोक सभा, न शांति मार्च। बस एक अजीब-सी राहत थी—जैसे किसी लंबे अस्वस्थ सपने से जागा हो पूरा परिसर।
कई लोग चुप थे, पर उनके चेहरे पर संतोष था।
"अब कुछ नया शुरू होगा..." यह भावना हवा में तैर रही थी।
प्रतिध्वनि के नेतृत्व में विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों ने एक संकल्प सभा बुलाई।
जहाँ कभी डर बोला करता था, अब वहां आत्मसम्मान बोल रहा था।
अंशुमान—जो अब बहाल हो चुका था—ने सभा में कहा:
"हमने केवल एक तानाशाह को नहीं हटाया है, हमने अपने भीतर के डर को हराया है। शिक्षा तभी पवित्र होती है, जब उसमें स्वतंत्रता, संवाद और सत्य हो।"
सभा में नारे नहीं थे, केवल मौन और वचन था।
धीरे-धीरे विश्वविद्यालय की दीवारों पर नए रंग चढ़ाए गए। उन कमरों को, जहाँ अन्याय के आदेश दिए गए थे, अब शोध और नवाचार के केंद्र में बदला गया। नई नीति बनी—“कोई भी अतीत से भाग नहीं सकता, पर शिक्षा के माध्यम से हर आत्मा का पुनर्जन्म संभव है।”
चंडाली का नाम इतिहास में नहीं मिटाया गया, लेकिन उसे "भूल का प्रतीक" मानकर उसकी स्मृति पर एक पत्थर लगाया गया:
"यहाँ वह सोई है, जिसने सत्ता के मद में आत्मा को खो दिया।
यह चेतावनी है—सत्ता के पथ पर भी संयम जरूरी है।"
उपन्यास का अंतिम वाक्य:
"मीरगंज की राख से एक नई शिक्षा की अग्नि जली,
और चंडाली की कहानी, एक अंत नहीं—बल्कि एक सीख बन गई।"
@Dr.Raghavendra Mishra
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