डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
भजन शीर्षक:
*“जय अवध नगरी की महिमा न्यारी”*
जय अवध नगरी की महिमा न्यारी,
शूरों की धरती, संस्कृतिमयी प्यारी।
अकबर के शासन में बना सूबा,
मुगल दरबार से पाया रूप नया भारी।
सआदत अली ने सौंपी थी कमान,
लखनऊ, तिलोई – किया सबके मान।
फैजाबाद बसी राजधानी,
जनता में छायी सुख की कहानी।
सफ़दर जंग लाए विस्तार का दौर,
अयोध्या से फैजाबाद, बढ़े प्रभु की ओर।
चुनार-रोहतास के किलों को पाया,
मराठों से मित्रता का दीप जलाया।
जब दिल्ली का सिंहासन डोला,
अवध ने sovereignty को फिर से बोला।
इलाहाबाद भी हुआ अंग अवध का,
जय अवध! गूंजा ये जयघोष हर द्वार का।
शुजा-उद-दौला ने वज़ीरी संभाली,
शाह आलम संग खड़ी थी ये सवारी।
बक्सर की धरती पर लड़ी आखिरी बाज़ी,
फिर भी अवध रही कभी ना आज़ादी से खाली।
जब उठा स्वराज का पहला बिगुल,
अवध बना क्रांति का पहला मुकाम सफल।
लखनऊ की रेजीडेंसी काँपी थी भारी,
वीरों ने जान दी – पर हार ना मानी प्यारी।
जय अवध नगरी, संस्कृति की खान,
धरोहर तेरी, मिटे ना पहचान।
इतिहास तेरा बोले हर ज़ुबान,
तू ही हो भारत की अमर शान।
@Dr. Raghavendra Mishra
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