Wednesday, 30 April 2025

नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय (श्लोक 1–9) और आपके अनुवाद पर आधारित एक उच्चकोटि की हिंदी साहित्यिक कविता 

नाट्य की जन्मकथा
(नाट्यशास्त्र प्रथम अध्याय)

सिर झुकाकर वंदन करता, पितामह को, शिव अविनाशी,
जिनसे निकली वाणी वेदस्वर, ज्ञानमयी, नाटक की राशि।
भरत मुनि कहें अब गाथा, ब्रह्मा ने जो रची विलक्षन,
रस, अभिनय, धर्म की चिर संजीवनी, भावों में जो करे ठीक रक्षन।

शांत समय था, जप समापित, बैठे मुनिवर पुत्रों संग,
आत्रेयादि तपस्वी आए, यत्नपूर्वक वंदन किया सब अंग।
जिज्ञासा उनके मन में जागी, विनयपूर्ण वह प्रश्न सुनाया,
"हे प्रभु! वह नाट्यवेद बताइए, जिसने सत्य का रूप दिखाया।"

"कैसे उत्पन्न हुआ वह ग्रंथ? कौन था हेतु, किधर प्रयोजन?
कितने हैं अंग, क्या है प्रमाण, कैसे होता उसका प्रदर्शन?
कृपा कर सब कहें यथार्थ, वह शास्त्र ब्रह्मा का कैसा ज्ञान?"
भरत मुस्काए शांत मन से, बोले पावन वचनों का गान।।

"हे मुनियों! सुनो ध्यान धरकर, जो नाट्यवेद बना सनातन,
ब्रह्मा ने जो रचा स्वयं, वह दिव्य कथा है सत्यवचन।
स्वायंभुव युग जब बीत गया था, त्रेता का प्रभात था आया,
मनु वैवस्वत का शासन था, धर्म धीरे-धीरे था छाया।"

"काम-लोभ जब बढ़ चले थे, मनुज ईर्ष्या में थे उलझे,
क्रोध बना था जीवनमूल, सुख-दुख के छोर पर सब सुलगे।
तब देवों ने मांगी याचना ‘कोई ऐसा मार्ग रचो,
जो हो धर्मयुक्त, लोकहितकारी, भावों में भी सत्य रचो।’”

“ब्रह्मा ने तब नाट्य रचा था, वेदों से नवगंध उठाया,
ऋक से लिया पाठ्य प्रचुर, साम से स्वर का भाव सजाया।
यजुर्वेद से अभिनय झरता, अथर्व से रचना की गूढ़ता,
सभी रसों का संगम करके, गढ़ा नाट्य का यह उचित पूरता।”

“भरत को दी वह पुण्य धरोहर, जिससे जागे भाव अपार,
जिसमें दिखता धर्म और अधर्म, जिसमें छुपा जीवन का सार।
अर्थ, काम, मोक्ष, धर्म समाहित, सुख-दुख का समभाव जहाँ,
वह है नाट्यशास्त्र अमर विधा, ब्रह्मा का वरदान यहाँ।”

@Dr. Raghavendra Mishra 

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