डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
(लेखक/रचनाकार)
भजन-गीत : "ज्ञानदीप अभिनव जले"
ज्ञानदीप अभिनव जले,
चेतन रस की बूँदें ढले।
स्वयं शिव बन दर्शन बोले,
ज्ञानदीप अभिनव पले।।
कश्मीर की पुण्य धरा में,
उठा चेतना का उच्छल रूप।
स्वरूप बोध का संगीता,
करता हर मन को अनुरूप॥
ज्ञानदीप अभिनव जले...
त्रिक, स्पन्द औ' प्रत्यभिज्ञा,
क्रमा सब संग समाहित की।
शिव-स्वातंत्र्य गूढ़ रहस्यों को,
रस रूप बना कर दीप्ति दी॥
नाट्य में भी रस की धारा,
आत्मस्वरूप में छलक पड़ी।
मुक्ति न कहीं दूर तलक,
अपने अंतर में सजीव रही॥
शिव ही मैं, शिव ही तू है,
बोध-प्रकाश जब अंतर हो।
अभिनवगुप्त का यह संदेश,
चिर ज्योति बन, हर मन तर हो॥
@Dr. Raghavendra Mishra
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