डॉ. राघवेन्द्र मिश्र
गीत / भजन:
*"सनातन की वाणी, अमर कल्याणी"*
सनातन की वाणी, अमर कल्याणी,
संस्कृति की जड़ें, वेदों में समानी।
श्रुति-स्मृति की गूँज में, सजीव यह धारा,
प्रेम-करुणा-सत्य का, यही सच्चा सहारा।
हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी सबके मूल,
एक सूत्र में पिरोए, सत्य-धर्म के फूल।
अथर्ववेद से उपजे, सिंधु की मिट्टी में,
रचा गया जीवन, एकता की सृष्टि में।
वसुधैव कुटुम्बकम् की है वाणी,
सर्वे भवन्तु सुखिनः की कहानी।
एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति,
सत्य-चेतन-आनंद सदा बहती।
ऋग, यजु, साम, अथर्व में स्वर बसा,
उपनिषदों से ज्ञान का दीप जला।
पुराण, महाभारत, रामायण गाथाएं,
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को राह दिखलाएं।
वेदों की छाया, शांति की माया,
सनातन की ध्वनि, अमर मंत्र की छाया।
ना शस्त्र से, ना रण के सहारे,
शास्त्रों ने जीता जग सारा हमारे।
त्रिपिटक की वाणी, तत्त्वार्थ का दर्शन,
संगम साहित्य से निकला संयम-रस-सम्मिलन।
गुरुग्रंथ साहब, दशम ग्रंथ बांचे,
गोंड महाकाव्य से जीवन नाचे।
विश्व की सभ्यताओं में जो नहीं मिट पाई,
वो भारत की संस्कृति है – शाश्वत, परिपाई।
ऋग्वेद प्रथम ग्रंथ, छंदों का सृजन,
ज्ञान का प्रकाश, सत्य का संगम।
भारत ना भेजे सेना कभी बाहर,
विचारों से जीते, बना ज्ञान का सागर।
सनातन की चेतना है अभी भी जीवित,
विश्व के कल्याण का दीपक है दीप्त।
जपो 'सनातन', गाओ 'संस्कृति',
यह न भूले, न रुके, न झुके सृति।
भारत बने विश्वगुरु फिर से,
जग में फैले प्रेम और सत्य के किस्से।
@Dr. Raghavendra Mishra
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