नाट्य – अखिल ज्ञान का अमर सागर
(शास्त्र-सम्मत काव्य)
1.
नहि कोई शास्त्र, नहि कोई कर्म,
जो न समाया नाट्य में मर्म।
कला, विद्या, शिल्प अथ योग,
सभी समाहित इस शुभ संजोग।
2.
अतः न करें देवता रोष,
नाट्य नहीं केवल सुखदोष।
सप्तद्वीप सम नाट्य का रूप,
जिसमें समाया विश्व अनूप।
3.
देव, दानव, नरपतिगण,
गृहस्थ, ऋषि, योगी जन।
सबके चरित, सभी प्रवृत्ति,
इस नाट्य में पाई सृष्टि।
4.
सुख-दुःख के भाव सुसंग,
बने नाट्य के जीवित अंग।
आंगिक, वाचिक, सात्त्विक स्वर,
आहार्य भी जिससे संवर।
5.
यही स्वभाव इस लोक का,
दर्शित होता छंद श्लोक का।
अंगों सहित जब मंच सजे,
नाट्यरूप में जगत बहे।
6.
रंगशाला यज्ञ तुल्य मानी,
देवों की उसमें वास कहानी।
रंगदैवत का करें पूजन,
जैसे हो कोई वेद-स्मरण।
7.
जम्बू से लेकर पुष्कर तक,
सातों द्वीप समाहित नाटक।
भारतवर्ष जहाँ अंकित है,
वह मंच भी नाट्य के भीतर है।
ब. नाट्यवेद की महिमा – एक काव्यात्मक गाथा
(शास्त्रीय छंदों और भावों से युक्त कविता)
1.
नमामि ब्रह्मा-पदपद्म, महेश्वर को प्रणाम,
जिनके प्रसाद से प्रकटे, नाट्यशास्त्र शुभ काम।
भरतमुनि ध्यानस्थ थे, पुत्रों के बीच सुजान,
तब आए आत्रेय मुनि, विनीत वचन में ज्ञान।
2.
"हे प्रभो! कहो वह कथा, नाट्यवेद की सृष्टि,
कैसे हुआ इसका उद्भव, क्या इसकी है दृष्टि?
कितने इसके अंग हैं, क्या प्रमाण इसका नाम?
किस विधि इसका प्रयोग हो, कहो तत्वावधान।"
3.
भरत बोले: "श्रद्धा सहित सुनो विप्रगण भले,
ब्रह्मा रचे नाट्यवेद को, हित मानव के हेतु चले।
त्रेतायुग की बात है, वैवस्वत का वह काल,
जब लोभ, क्रोध, मोह में, मानव हुआ निढाल।"
4.
तब ब्रह्मा से देवगण बोले, "हे जग के सृजनहार,
चाहिए हमें ऐसा शास्त्र, जो दे नव मनोविहार।
श्रवण व दृश्य जो एक साथ, जन-जन को हो साध्य,
वेदों से पृथक हो यह, शूद्रों को भी हो प्राप्त्य।"
5.
ब्रह्मा बोले, "शुभ विचार! रचता हूँ नव वेद,
जो हो धर्म, यश, अर्थ का स्रोत, नाट्यरूप में खेद।
ऋचाएं ऋग से लूँगा मैं, साम से लूँगा गीत,
यजुष से अभिनय लूँ, रस अथर्व का नीति-नीत।"
6.
तब शास्त्र बना वह अद्भुत, भरत ने पाया ज्ञान,
पुत्रों को दिया वह पाठ, तत्त्व सहित विधान।
आरभटी, सात्त्वती, भारती वृत्तियाँ लीं,
ब्रह्मा को दी सूचना, नाट्यवेद पर श्रद्धा दीं।
7.
बोले ब्रह्मा, "कैशिकी वृत्ति भी जोड़ो यथा,
जो श्रृंगार रस में रमती, शिवनृत्य समथा।
नारी बिना न हो सके, जो रस उसका रूप,
मन से रची अप्सराएँ, की पूर्ण काव्य-कल्प।"
8.
इंद्रध्वज का महोत्सव, मंच बना पावन,
प्रथम हुआ नांदीपाठ, वेदों से पूर्ण भावन।
रंगशाला बनी शुभकृत, विश्वकर्मा की कृति,
देवों ने की रक्षा उसमें, आहुति सी सृष्टि।
9.
दैत्य खिन्न हो बोले फिर, "केवल देवप्रसंग?
हम भी तुम्हारी सृष्टि हैं, यह अन्याय का रंग!"
ब्रह्मा बोले, "हे असुरगण! यह नाट्य त्रैलोक्य-वृत,
देव-असुर-मानव सभी के कर्मों का यह चित्र।"
10.
"यह धर्म है धर्मियों को, काम का है आश्रय,
मत्तों के लिए अनुशासन, विनीतों के लिए संयमय।
शूरवीरों का उत्साह यह, विद्वानों का विमर्श,
दीनों का धैर्यकारक, अर्थार्थियों का हर्ष।"
11.
"नाट्य शास्त्र वह निधि है, जिसमें सब कुछ समाया,
शिल्प, कला, योग, विद्या, कोई भाव न छाया।
यह सात द्वीपों का प्रतिबिंब, त्रिलोक का अनुबिंब,
सुख-दुख की रंगभूमि में, जीवन का अनुकंठ।"
@Dr. Raghavendra Mishra
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