Wednesday, 30 April 2025

नाटक 
डॉ राघवेन्द्र मिश्र 

 व्यंग्यात्मक हास्य नाटक "जजमेंटल फैमिली" । यह नाटक भ्रष्टाचार, कानून की दोहरी चाल और मीडिया के रंग-ढंग को व्यंग्य और हास्य के ज़रिये प्रस्तुत करता है ।

हास्य नाटक: जजमेंटल फैमिली
पात्र:

  • जज साहब – देश के सबसे प्रतिष्ठित लेकिन "गुप्त रूप से प्रतिभाशाली" भ्रष्टाचारी
  • श्रीमती जज – पैसे गिनने में एक्सपर्ट
  • बेटा – वकीलु बाबू – कानून को चाय की प्याली समझने वाला
  • पुलिस इंस्पेक्टर ढुलमुल सिंह – जो हर चीज़ में "नज़र का दोष" ढूंढता है
  • फायरमैन तेज बहादुर – आग से ज़्यादा खबरों से डरता है
  • मीडिया रिपोर्टर चिपकू खान – कैमरा से नहीं, मुद्दों से चिपकता है
  • पड़ोसी – आम जनता – जो हमेशा चौकन्ना है, लेकिन बेबस है

दृश्य 1: जज साहब का ड्राइंग रूम – आग का धुआं और नोटों की गंध

(श्रीमती जज दौड़ती हुई)
श्रीमती जज: अजी सुनते हो! वो जो पैसे की बोरी बगल वाले गद्दे के नीचे रखी थी... आधी जल गई!

जज साहब: (आराम से अख़बार पढ़ते हुए)
कोई बात नहीं, बची आधी गिन लो। फिर उसकी रिपोर्ट लगाऊँगा कि ये सब ‘भ्रष्टाचार जागरूकता सप्ताह’ के डेमो के लिए था।

वकीलु बाबू: (फोन पर)
हेलो, हां पुलिस को बुलाओ... पर कहना CCTV बंद था, और आग अपने आप लगी थी। संविधान के अनुच्छेद 420(बी) के अनुसार, ये "नेचुरल डिजास्टर" है।


दृश्य 2: आग बुझ गई, पुलिस और मीडिया सक्रिय

ढुलमुल सिंह:
हमें एक अरब की गड्डियाँ मिलीं, पर ये कोई सबूत नहीं है। जब तक नोट खुद नहीं कहे "मैं काला धन हूं", हम कैसे मानें?

तेज बहादुर:
हम तो आग बुझाने आए थे, लेकिन यहां तो नोट ही भभक रहे थे। समझ नहीं आ रहा कि पानी डालूं या इन्वेस्ट करूं।

चिपकू मिश्रा (मीडिया वाले):
ब्रेकिंग न्यूज! जज के घर मिली दौलत की गंगा! क्या यह ‘नीति आयोग’ की नई स्कीम है? पूरे देश में गूंज रहा है – “जज के घर भी जलती है आग!”


दृश्य 3: अगले दिन जज साहब का प्रमोशन

श्रीमती जज:
देखा? जल गए नोट, मगर तुम्हारा प्रमोशन हो गया!

जज साहब:
क्यों नहीं होगा? ये "संविधान जलाने में उल्लेखनीय योगदान" माना गया है। अब मैं सुप्रीम जज बनने जा रहा हूँ।

वकीलु बाबू:
अब से मेरे क्लाइंट्स कहेंगे – "अगर जुर्म करना है, तो परिवारिक न्यायपालिका से प्रेरणा लो!"


दृश्य 4: पड़ोसी आम जनता का संवाद

पड़ोसी:
भैया, हम अगर सड़क पर दस हज़ार लेकर जाएं तो पुलिस पकड़ लेती है। और इधर अरबों मिलें, तो कह रहे हैं – "इन्वेस्टिगेशन जारी है।"

दूसरा पड़ोसी:
अब तो सोच रहा हूँ बच्चे को डॉक्टर नहीं, "जज" बनाऊंगा। कम से कम नोट जलें या पकड़े जाएं, प्रमोशन तो पक्का है।


अंतिम संवाद (जज साहब कैमरे की ओर देखते हुए)

जज साहब:
"इस न्यायव्यवस्था में हम सब बराबर हैं – पर कुछ लोग और भी ज़्यादा बराबर हैं!"

(पर्दा गिरता है, दर्शक तालियां बजाते हैं और देश में सब कुछ वैसा ही चलता रहता है)


 

नाट्य – अखिल ज्ञान का अमर सागर

(शास्त्र-सम्मत काव्य)

1.
नहि कोई शास्त्र, नहि कोई कर्म,
जो न समाया नाट्य में मर्म।
कला, विद्या, शिल्प अथ योग,
सभी समाहित इस शुभ संजोग।

2.
अतः न करें देवता रोष,
नाट्य नहीं केवल सुखदोष।
सप्तद्वीप सम नाट्य का रूप,
जिसमें समाया विश्व अनूप।

3.
देव, दानव, नरपतिगण,
गृहस्थ, ऋषि, योगी जन।
सबके चरित, सभी प्रवृत्ति,
इस नाट्य में पाई सृष्टि।

4.
सुख-दुःख के भाव सुसंग,
बने नाट्य के जीवित अंग।
आंगिक, वाचिक, सात्त्विक स्वर,
आहार्य भी जिससे संवर।

5.
यही स्वभाव इस लोक का,
दर्शित होता छंद श्लोक का।
अंगों सहित जब मंच सजे,
नाट्यरूप में जगत बहे।

6.
रंगशाला यज्ञ तुल्य मानी,
देवों की उसमें वास कहानी।
रंगदैवत का करें पूजन,
जैसे हो कोई वेद-स्मरण।

7.
जम्बू से लेकर पुष्कर तक,
सातों द्वीप समाहित नाटक।
भारतवर्ष जहाँ अंकित है,
वह मंच भी नाट्य के भीतर है।

ब. नाट्यवेद की महिमा – एक काव्यात्मक गाथा

(शास्त्रीय छंदों और भावों से युक्त कविता)

1.

नमामि ब्रह्मा-पदपद्म, महेश्वर को प्रणाम,
जिनके प्रसाद से प्रकटे, नाट्यशास्त्र शुभ काम।
भरतमुनि ध्यानस्थ थे, पुत्रों के बीच सुजान,
तब आए आत्रेय मुनि, विनीत वचन में ज्ञान।

2.

"हे प्रभो! कहो वह कथा, नाट्यवेद की सृष्टि,
कैसे हुआ इसका उद्भव, क्या इसकी है दृष्टि?
कितने इसके अंग हैं, क्या प्रमाण इसका नाम?
किस विधि इसका प्रयोग हो, कहो तत्वावधान।"

3.

भरत बोले: "श्रद्धा सहित सुनो विप्रगण भले,
ब्रह्मा रचे नाट्यवेद को, हित मानव के हेतु चले।
त्रेतायुग की बात है, वैवस्वत का वह काल,
जब लोभ, क्रोध, मोह में, मानव हुआ निढाल।"

4.

तब ब्रह्मा से देवगण बोले, "हे जग के सृजनहार,
चाहिए हमें ऐसा शास्त्र, जो दे नव मनोविहार।
श्रवण व दृश्य जो एक साथ, जन-जन को हो साध्य,
वेदों से पृथक हो यह, शूद्रों को भी हो प्राप्त्य।"

5.

ब्रह्मा बोले, "शुभ विचार! रचता हूँ नव वेद,
जो हो धर्म, यश, अर्थ का स्रोत, नाट्यरूप में खेद।
ऋचाएं ऋग से लूँगा मैं, साम से लूँगा गीत,
यजुष से अभिनय लूँ, रस अथर्व का नीति-नीत।"

6.

तब शास्त्र बना वह अद्भुत, भरत ने पाया ज्ञान,
पुत्रों को दिया वह पाठ, तत्त्व सहित विधान।
आरभटी, सात्त्वती, भारती वृत्तियाँ लीं,
ब्रह्मा को दी सूचना, नाट्यवेद पर श्रद्धा दीं।

7.

बोले ब्रह्मा, "कैशिकी वृत्ति भी जोड़ो यथा,
जो श्रृंगार रस में रमती, शिवनृत्य समथा।
नारी बिना न हो सके, जो रस उसका रूप,
मन से रची अप्सराएँ, की पूर्ण काव्य-कल्प।"

8.

इंद्रध्वज का महोत्सव, मंच बना पावन,
प्रथम हुआ नांदीपाठ, वेदों से पूर्ण भावन।
रंगशाला बनी शुभकृत, विश्वकर्मा की कृति,
देवों ने की रक्षा उसमें, आहुति सी सृष्टि।

9.

दैत्य खिन्न हो बोले फिर, "केवल देवप्रसंग?
हम भी तुम्हारी सृष्टि हैं, यह अन्याय का रंग!"
ब्रह्मा बोले, "हे असुरगण! यह नाट्य त्रैलोक्य-वृत,
देव-असुर-मानव सभी के कर्मों का यह चित्र।"

10.

"यह धर्म है धर्मियों को, काम का है आश्रय,
मत्तों के लिए अनुशासन, विनीतों के लिए संयमय।
शूरवीरों का उत्साह यह, विद्वानों का विमर्श,
दीनों का धैर्यकारक, अर्थार्थियों का हर्ष।"

11.

"नाट्य शास्त्र वह निधि है, जिसमें सब कुछ समाया,
शिल्प, कला, योग, विद्या, कोई भाव न छाया।
यह सात द्वीपों का प्रतिबिंब, त्रिलोक का अनुबिंब,
सुख-दुख की रंगभूमि में, जीवन का अनुकंठ।"

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (लेखक/रचनाकार)

नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय पर आधारित कविता, जिसमें शास्त्र की समस्त भावभूमि, घटनाक्रम और तत्व-ज्ञान को काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है।

॥ नाट्यशास्त्र का प्राकट्य – कविता के रूप में॥

वंदना और प्रश्न

नमन करूँ मैं ब्रह्मा शंकर, योगीश्वर महेश।
जिनसे नाट्यशास्त्र जन्मा, भावों का संदेश॥
भरतमुनि जप कर विश्रांत, बैठे पुत्रों संग।
आत्रेय ऋषि आए समीप, मन शुद्ध, विनय रंग॥

पूछा मुनि ने प्रेम से, “हे मुनि श्रेष्ठ महान।
कैसे जन्मा नाट्यवेद? इसका क्या प्रमान॥
किसके हेतु? कितने अंग? कैसे हो प्रयोग?
कृपा कर हमें बताइए, इसके सारे योग॥”

 नाट्य की उत्पत्ति

भरत बोले “हे तपोधन, सुनो कथा विचित्र।
त्रेता में जब धर्म गिरा, बढ़ा अधर्म समित्र॥
लोभ मोह में फँस गए जन, विघ्नों ने ली दीक्षा।
तब देवों ने की प्रार्थना, ब्रह्मा से विनती दीक्षा॥

‘हे पितामह, दो हमें, ऐसा सुख का साधन।
जो हो दृश्यम्, श्रव्यम् भी, भावों का हो बंधन॥
चार वेद तो वर्णमुख, अन्य न पाए भाग।
रचो पाँचवाँ वेद ऐसा, सबके हित का राग॥’”

नाट्यवेद की रचना

ब्रह्मा ने चित्त में उठाया, गम्भीर भावों से ध्यान।
किया स्मरण वेदों का, हुआ नाट्यवेद महान॥
ऋग से लिया पाठ्य, साम से स्वर-गान।
यजुर्वेद से अभिनय, रस लिया अथर्व प्रमान॥

तब भरतमुनि को दिया ज्ञान, पुत्रों में किया प्रचार।
किया प्रयोग, किया प्रणाम, ब्रह्मा बोले सत्कार॥
‘अब कैशिकी जोड़ो इसमें, जिससे रसे श्रृंगार।
देखा शिवनृत्य में इसको, सौंदर्य जिसकी धार॥’

अप्सराओं का आगमन और नांदी
‘यह वृत्ति पुरुष न निभा सकें, स्त्री चाहिए संग।
मन से रचीं अप्सराएँ तब, ब्रह्मा की यह रंग॥
इन्द्रध्वज महोत्सव का अवसर शुभ संधान।
प्रयोग करो इस नाट्य का, लाओ सबका ध्यान॥’

नांदी की रचना की गई, वेदों से सम्पन्न।
आठ पदों से युक्त वह, वरदानों की छन्द॥
दैत्यों की पराजय की, झाँकी मंच सजाय।
हर्षित होकर इन्द्र ने, ध्वजस्वरूप उपहार पाय॥

विघ्नों का प्रादुर्भाव और रंगमंच
दैत्य उठे विक्षोभ से, आए रंगभूमि पास।
इन्द्र ने जर्जर कर दिया, उनका हर प्रयास॥
विश्वकर्मा से कहा ब्रह्मा, ‘रचो रंगमंच महान।’
नाट्यगृह का निर्माण हुआ, लक्षणों से परिपूर्ण स्थान॥

ब्रह्मा बोले — ‘हे देवगण, करो इसकी रक्षा।
नाट्यमंच का प्रत्येक भाग, देवमय संरक्षा॥’
पर असुर बोले — ‘हे ब्रह्मन्, तुमने क्यों भुला दिया?
हम भी तुम्हारी सृष्टि हैं, क्यों विषम दृष्टि दिया?’

नाट्य का सर्वलोकिक धर्म
बोले ब्रह्मा ‘नाट्य नहीं केवल देवों का यशगान।
यह तो त्रैलोक्य का चित्र है, कर्म और भाव का ज्ञान॥
यहाँ धर्म भी, काम भी, युद्ध भी, शम का स्वर।
दुष्ट के लिए अनुशासन है, सज्जन हेतु साज स्वर॥’

‘शूरवीर को उत्साह है, विद्वानों को गौरवदान।
दुखियों को धैर्य-प्रदर्शन, विलासी को आनन्द विधान॥
श्रांत, क्लांत, शोक-संतप्त को देगा विश्राम।
धर्म, यश, बुद्धि, दीर्घायु का कर देगा विकास तमाम॥’

नाट्य की महिमा 
‘नहीं है ऐसा कोई ज्ञान, न शिल्प, न योग, न कर्म।
जो न समाहित इस नाट्य में, यह है शास्त्रों का मर्म॥
यह नाट्य है सात द्वीपों का, लोककथा का सार।
देव, असुर, ऋषि, गृहस्थ सबकी छवि साकार॥’

‘अंग-वाचिक, सात्त्विक, आहार्य अभिनय इसकी देह।
रंगमंच है देवमंदिर, पूजन उसका श्रेष्ठ नेह॥
इसलिए जो मंच चढ़े, करे देवता का ध्यान।
यज्ञ समान पूजन करे, पावन हो मन प्रान॥’

@Dr. Raghavendra Mishra 

नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय (श्लोक 1–9) और आपके अनुवाद पर आधारित एक उच्चकोटि की हिंदी साहित्यिक कविता 

नाट्य की जन्मकथा
(नाट्यशास्त्र प्रथम अध्याय)

सिर झुकाकर वंदन करता, पितामह को, शिव अविनाशी,
जिनसे निकली वाणी वेदस्वर, ज्ञानमयी, नाटक की राशि।
भरत मुनि कहें अब गाथा, ब्रह्मा ने जो रची विलक्षन,
रस, अभिनय, धर्म की चिर संजीवनी, भावों में जो करे ठीक रक्षन।

शांत समय था, जप समापित, बैठे मुनिवर पुत्रों संग,
आत्रेयादि तपस्वी आए, यत्नपूर्वक वंदन किया सब अंग।
जिज्ञासा उनके मन में जागी, विनयपूर्ण वह प्रश्न सुनाया,
"हे प्रभु! वह नाट्यवेद बताइए, जिसने सत्य का रूप दिखाया।"

"कैसे उत्पन्न हुआ वह ग्रंथ? कौन था हेतु, किधर प्रयोजन?
कितने हैं अंग, क्या है प्रमाण, कैसे होता उसका प्रदर्शन?
कृपा कर सब कहें यथार्थ, वह शास्त्र ब्रह्मा का कैसा ज्ञान?"
भरत मुस्काए शांत मन से, बोले पावन वचनों का गान।।

"हे मुनियों! सुनो ध्यान धरकर, जो नाट्यवेद बना सनातन,
ब्रह्मा ने जो रचा स्वयं, वह दिव्य कथा है सत्यवचन।
स्वायंभुव युग जब बीत गया था, त्रेता का प्रभात था आया,
मनु वैवस्वत का शासन था, धर्म धीरे-धीरे था छाया।"

"काम-लोभ जब बढ़ चले थे, मनुज ईर्ष्या में थे उलझे,
क्रोध बना था जीवनमूल, सुख-दुख के छोर पर सब सुलगे।
तब देवों ने मांगी याचना ‘कोई ऐसा मार्ग रचो,
जो हो धर्मयुक्त, लोकहितकारी, भावों में भी सत्य रचो।’”

“ब्रह्मा ने तब नाट्य रचा था, वेदों से नवगंध उठाया,
ऋक से लिया पाठ्य प्रचुर, साम से स्वर का भाव सजाया।
यजुर्वेद से अभिनय झरता, अथर्व से रचना की गूढ़ता,
सभी रसों का संगम करके, गढ़ा नाट्य का यह उचित पूरता।”

“भरत को दी वह पुण्य धरोहर, जिससे जागे भाव अपार,
जिसमें दिखता धर्म और अधर्म, जिसमें छुपा जीवन का सार।
अर्थ, काम, मोक्ष, धर्म समाहित, सुख-दुख का समभाव जहाँ,
वह है नाट्यशास्त्र अमर विधा, ब्रह्मा का वरदान यहाँ।”

@Dr. Raghavendra Mishra 

1. नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय "नाट्य उत्पत्ति" पर आधारित कविता

डॉ राघवेन्द्र मिश्र 

नाट्य की वंदना

(नाट्यशास्त्र, प्रथम अध्याय)

प्रणम्य पितामह ब्रह्मा को, शिव को नमन करूं सिर झुका,
भरतमुनि ने वाणी खोली, नाट्यशास्त्र को दिया ऊषा।

चहुँदिशि जब मन थकित हुआ था, धर्म और सुख दूर लगे,
देवों ने ब्रह्मा से माँगा, एक नया रस, जीवन सजे।

ऋचाओं से पाठ्य लिया, साम से मधुर गीत,
यजुर्वेद से अभिनय लाया, रस लिया अथर्व का मीत।

रचा नाट्यवेद ब्रह्मा ने, भरत को सौंपा ज्ञान,
नव रस, नव रूपों से भरकर, रच डाला जीवन का गान।

अमृतमंथन विषय बनाया, प्रथम नाटक मंचित किया,
देवताओं ने देखा उत्सव, असुरों ने क्रोध किया।

बोले ब्रह्मा “यह तो जीवन, इसका चित्रण सटीक है,
सुख-दुख, क्रोध, प्रेम, करुणा सबका मिलन ब्रह्मजीत है।”

नाटक केवल खेल नहीं है, इसमें छिपा है ज्ञान,
माया भी है, योग भी है, इसमें रचा ब्रह्म का गान।

यह समाज का दर्पण है, यह रसों की गाथा,
श्रृंगार, वीर, करुण, रौद्र सब इसमें समाय जाता।

नट की देह में ब्रह्म वासे, भावों में शिव की चाल,
दर्शक मन में जाग उठे जब, वही हो नाटक का सुभाल।

@Dr. Raghavendra Mishra 

Monday, 28 April 2025

 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

"कश्मीर की पुण्य धरा"

हिमगिरि के आँचल में बसी,
ज्ञान-ज्योति की पावन धरा।
ऋषि कश्यप की करुणा जहाँ,
शारदा की है मधुर परा।।

तप की अग्नि में जलती थी,
चेतना की वह चंद्र कला।
वैष्णवी ममता बहती थी,
तीर्थ बने त्रिकूट चला।।

उत्पलदेव की वाणी से,
गूँजे शिवत्व का स्वर जहां।
अभिनवगुप्त के ध्यान से,
जग चमका तन्त्रालोक वहां।।

भरतमुनि ने गाया था,
रस की गहरी छाया में।
क्षेमराज ने बाँधी थी,
शिवसूत्रों को काया में।।

शारदा पीठ पुकारे अब,
"विद्या का दीप जलाओ रे!"
ज्ञान-विज्ञान के वनों में,
चेतना पुष्प खिलाओ रे।।

यह शुभ भूमि उत्तम मिट्टी है,
यह तप का गान सुनाती है।
यह संस्कृति की धारा है,
जो युग-युग से बहती जाती है।।

हे कश्मीर! पुण्य धरा!
तेरा नमन करें हम सब आज।
सनातन के शिखर बने रहो,
चिरकाल तक, जय हो ऋषिराज।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

"सदाशिव की अनन्त विभा से,

उत्पन्न हुआ वह ज्ञान अपार।"

सदाशिव की अनन्त विभा से,
उत्पन्न हुआ वह ज्ञान अपार।
कश्मीर धरा पर फूटा जिसमें,
चेतन की अनुगूँज सकार।

त्रिक तत्त्व का गहन अनुसंधान,
अद्वैतभाव का अनुपम ज्ञान।
शिव ही सत्ता, शिव ही स्वरूप,
शक्ति में रचता निज प्रमान।

वसुगुप्त ने शिवसूत्र रचा,
उर में गूँजी दिव्य ध्वनि।
स्पन्दन की लीला कल्लट ने,
जग में खोली गूढ़ कवि।

उत्पलदेव की प्रत्यभिज्ञा,
जागृत करती चैतन्य दीप।
अभिनवगुप्त ने तंत्रालोक,
सुधा सुनाकर कर दिया सीप।

न बंधन सत्य, न मुक्ति दया,
चित्तस्वरूप ही मोक्ष का पथ।
आत्मस्वरूप की जो करे पहचान,
वह पाए शिवमय अमृतज्ञान।

विज्ञान भैरव के ध्यान सुधा से,
श्वास-शब्द-स्पर्श में अनुभव हो।
अणु-परमाणु में खोजे हर शिव को,
क्षण-क्षण में शिव का भाव संभव हो।

क्रम, स्पन्द, प्रत्यभिज्ञा मर्म,
कौलमार्ग से खुलते हैं धर्म।
अद्वैत सत्य का सहज उद्घोष,
प्रकाशित करता स्वकर्म।

कश्मीर शैव का अमर प्रकाश,
आज भी साधक के हित में है।
चेतना का उन्मेष अनूठा,
सर्वत्र शिव चेतनचित्त में है।

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 


(लेखक/रचनाकार)


(कविता)

"शिव है मूल, शिव ही धुरी,

चेतन स्वरूप, वही शिवपुरी।"



शिव है मूल, शिव ही धुरी,

चेतन स्वरूप, वही शिवपुरी।

शक्ति है उसका सहज विहार,

सृष्टि का हर कण उसका विस्तार।


स्पन्दन से उठती जीवन की धुन,

अणु-परमाणु में नृत्य करे गुन।

शिव का कम्पन, शिव का गान,

हृदय के पट पर लिखे भगवान।


प्रत्यभिज्ञा का संदेश सुनो,

"तुम ही शिव हो", यह ज्ञान चुनो।

भ्रम के पट हट जाए जहाँ,

सत्य का सूरज चमकता वहाँ।


विज्ञान भैरव का ध्यान अनोखा,

श्वास में, शब्दों में खोजो लोका।

छोटी छोटी क्रियाओं में छिपा,

शिव का स्वरूप, परम रहस्य रिचा।


वसुगुप्त, उत्पल, अभिनव गुप्त,

ज्ञान दीपक, करुणा में सुप्त।

तंत्रालोक की मधुर वाणी,

शिव-शक्ति की अमर कहानी।


न बंधन सत्य, न मुक्त उधार,

बस चैतन्य का उज्ज्वल अधिकार।

जो पहचाने निज स्वरूप महान,

वही बने शिव का सच्चा गान।


हे साधक! भीतर झाँक कर देख,

न बाहर खोज, न दूर विवेक।

तेरे ही अंतस् का गहरा शिव,

तू ही त्रिक, तू ही तन्त्र जीव।


@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन से संबंधित काव्य पाठ/कविता 

प्राची की पुण्य धरा पर,
ज्ञान सुमन जो खिले कभी,
ताड़ पत्र औ' भोजपत्रों में,
स्वर्णिम अक्षर लिखे तभी।

वेद, उपनिषद, पुराण कथा,
महाकाव्य के गान प्रखर,
आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष में,
छिपा हुआ है विज्ञान अमर।

संरक्षण की शपथ उठाई,
भारत माता के वीरों ने,
पांडुलिपियों के मोती संजोए,
रक्षक बने ज्ञानधीरों ने।

राष्ट्रीय मिशन ने थामा हाथ,
डिजिटल युग में बाँधी प्रीति,
सूत्रबद्ध कर ग्रंथों को,
दिया नवजीवन, दिया नवीन गति।

शारदा, ब्राह्मी, नागरी अक्षर,
लिपियों का अद्भुत संसार,
हर शब्द में इतिहास बसा है,
हर पंक्ति में गूँजता विचार।

सजग हुए हम, सावधान हुए,
संभाला हमने ज्ञान निधि को,
भविष्य को रौशन करने को,
जीवित रखा उस संस्कृति को।

भूल न जाएँ हम अपनी जड़ें,
नष्ट न हो वह प्राचीन स्वर,
संभालें उन्हें, पढ़ें, समझें,
बनें हम सब उनके सुलभ प्रहर।

ओ भारत! तेरी मिट्टी में,
अब भी वो सुगंध बसी है,
पांडुलिपि विज्ञान है दीपक,
जो फिर से रोशनी है रची है।

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

गीत: राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन से संबंधित 

जय हो, जय हो ज्ञान के दीपक की,
जय हो भारत माँ की, जय हो रूपक की।

पत्तों पर लिखा अमृत वचन,
ताड़ और भोजपत्रों का धन।
संजोया ऋषियों ने प्रेम से,
गूँजे अब भी उनका गान।
|| पांडुलिपि विज्ञान महान, जय हो ज्ञान का वरदान ||

वेदों की वाणी पावन है,
उपनिषदों की ज्वाला है।
महाकाव्य की अमर कहानी,
पुरखों का अमूल्य निराला है।
|| थामे मिशन ने उसका हाथ, फिर से जागा भारत नाथ ||

गणित, आयुर्वेद, ज्योतिष ज्ञान,
शिलालेखों का सुंदर गान।
शारदा, ब्राह्मी, नागरी वर्ण,
बोलते हैं भारत का मान।
|| अक्षर-अक्षर में इतिहास, दीप जलाएं नित्य प्रकाश ||

डिजिटल में रूप दिया अब,
भविष्य को दी नई उपवन।
संरक्षण का दीप जलाएँ,
संस्कृति का संग निभाएँ।
|| बढ़े ज्ञान का सम्मान, पांडुलिपि विज्ञान महान ||

ओ भारत माँ की वाणी रे,
पांडुलिपि सजी कहानी रे।
रखें उसे हम श्रद्धा में,
ज्ञान दीप जले हर गली में।
|| पांडुलिपि विज्ञान महान, जय हो ज्ञान का वरदान ||

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

*नवरस दोहावली*

१. शृंगार रस (प्रेम और सौंदर्य)
प्रेम सुधा रस बरसता, मन मोहे हर बार।
मधुर दृष्टि से जगत में, खिलता शृंगार।

२. वीर रस (शौर्य और पराक्रम)
भय को चीर चला वीर, करतल में तलवार।
धैर्य धारण कर बढ़े, हो जयजयकार।

३. करुण रस (वियोग और करुणा)
विरह वेदना बह रही, नयन बहे जलधार।
हृदय पिघल कर रो रहा, करुणा अपार।

४. रौद्र रस (क्रोध और प्रतिशोध)
भृकुटि टेढ़ी हो उठी, ज्वाला भरे नयन।
रौद्र रूप धर कर चले, संहार करे क्षण।

५. हास्य रस (हँसी और विनोद)
हंसी फूटी कलि समान, मन बगिया मुसकाय।
चुटकुलों की फुहार से, छाये मधुमाय।

६. भयानक रस (भय और आतंक)
काले मेघ घिर आये, काँपे धरणी डोल।
भयानक भय फैला गया, गहन अंधियोल।

७. बीभत्स रस (घृणा और विकर्षण)
दुष्ट कर्म देखी जब, मन में उठी घृणा।
बीभत्स दृश्य विकृत करे, छीने सुधि सना।

८. अद्भुत रस (आश्चर्य और विस्मय)
नयन चकित रह जाय जब, देखे नव प्रकाश।
अद्भुत लीला हर दिशा, करे जगत विलास।

९. शान्त रस (शांति और निर्विकारता)
मन निर्लेप हुआ जब, बुझ गये विकार।
शांत रस की धार में, मिला ब्रह्म अपार।

नव रस के इस सागर में, भरत मुनि की छाप।
नाट्यशास्त्र अमर बना, जग में जगमग आप।

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

भजन: "भरत मुनि के चरणों में वंदन"


भरत मुनि के चरणों में, वंदन बारंबार।
नाट्यशास्त्र का दीप जला, उजियारा संसार।।

ऋग से लेइ भाषा मधुर, यजुर से गति पावन।
सामवेद का गान सुरीला, अथर्व रससागर मन।
चतुर्वेद के अमृत से, रचा नाट्य अपार।।
भरत मुनि के चरणों में, वंदन बारंबार।।

रसों की सुरसरि बही, शृंगार करुणा साथ,
वीर रौद्र हास्य से, नचा जगत के नाथ।
भाव, अभिनय, स्वर, छंद, सब शिव का अवतार।।
भरत मुनि के चरणों में, वंदन बारंबार।।

आंगिक, वाचिक, आहार्य, सात्विक आधार,
जग को ज्ञान सुधा पिला दी, मिटाया अंधकार।
धर्म, अर्थ, काम सिखाया, मोक्ष दिया आधार।।
भरत मुनि के चरणों में, वंदन बारंबार।।

आज भी तेरी वाणी से, नाचें सुर और लोक,
तेरा दिया अमृत शास्त्र, बने अमर आलोक।
यूनेस्को भी गाता गुणगान, हो गया सत्कार।।
भरत मुनि के चरणों में, वंदन बारंबार।।

भरत मुनि, हे ज्ञान दीप,
तेरी महिमा अपरम्पार।।
नाट्यधर्म जग में फैला,
तूने किया उद्धार।।

भरत मुनि के चरणों में, वंदन बारंबार।।
नाट्यशास्त्र का दीप जला, उजियारा संसार।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 


(लेखक/रचनाकार)


कविता : 


(ॐ नमः शिवाय, वाणी अमृत धारा,


गीता नाट्यशास्त्र, शिव का उजियारा)


ॐ नमः शिवाय, वाणी अमृत धारा,

गीता नाट्यशास्त्र, शिव का उजियारा।।

गूँजे विश्व में, शिव का यह पुकारा,

गीता नाट्यशास्त्र, शिव का उकारा।।


कुरुक्षेत्र में जब धर्म डगमगाया,

कृष्ण ने गीता  धनंजय को सुनाया।

कर्म का संदेश, ज्ञान का सितारा,

गीता नाट्यशास्त्र, शिव का उजियारा।।


नटराज झंकार बना नाट्यशास्त्र,

रसों का सुरहस्य, सुरों का आभास।

रस में बसे शिव, लीला अपारा,

गीता नाट्यशास्त्र, शिव का उजियारा।।


शिव ने ही ज्ञान बीज बोये,

गीत और नाट्य से भाव संजोए।

छंदों में बहती शिव-स्मृति धारा,

गीता नाट्यशास्त्र, शिव का उजियारा।।


आज यूनेस्को ने आदर जताया,

शिव धरोहर को जग में फैलाया।

भारत वसुधा का गगन सितारा,

गीता नाट्यशास्त्र, शिव का उजियारा।।


ॐ नमः शिवाय, गूँजे नभ नगारा,

ज्ञान और कला में, शिव का सहारा।

जय जय गीता, जय नाट्यशास्त्र प्यारा,

गीता नाट्यशास्त्र, शिव का उजियारा।।


@Dr. Raghavendra Mishra

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

भजन-गीत :

जय जय गीता ज्ञान की, जय जय नाट्यशास्त्र महान की।


जय जय गीता ज्ञान की,
जय जय नाट्यशास्त्र महान की।
यूनेस्को ने किया सम्मान,
भारत माता का मंगलगान।।

कुरुक्षेत्र में गूँजा स्वर,
कृष्ण वाणी बनी अमर।
कर्म, भक्ति, ज्ञान की धारा,
बहे गीता से हरि का नारा।।
जय जय गीता ज्ञान की...

भरतमुनि के मधुर राग में,
नाट्यवेद का छंद जागे।
रस, भाव, अभिनय की माला,
शिव-संप्रेरित कला विराजे।।
जय जय नाट्यशास्त्र महान की...

शब्दों में रस, सुरों में ज्योति,
सत्य, धर्म, करुणा की मोती।
गीत नाट्य से सजे संस्कार,
विश्व माने भारत का उपकार।।
जय जय गीता ज्ञान की...

गीता बहे जीवन की नदिया,
नाट्यशास्त्र कहे कला की रगिया।
विश्व मंच पर ऊँचा तिरंगा,
गौरव गाथा गाए मन चंगा।।
जय जय गीता ज्ञान की...

जय जय गीता, जय नाट्यवेद,
भारत भू का अमर अलंकार।
यूनेस्को ने गाया सम्मान,
गौरवमय हो सारा संसार।।
जय जय गीता ज्ञान की,
जय जय नाट्यशास्त्र महान की।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

कविता : "शिवस्वरूप अभिनवगुप्त"

शिवस्वरूप अभिनवगुप्त, ज्ञानदीप्ति के ज्योति-पुंज।
त्रिक, स्पन्द औ' प्रत्यभिज्ञा, सब दर्शन तुझमें एक मूंज।।

कश्मीर धरा का दिव्य रत्न तू,
साधना में पूर्ण सनातन तू।
स्वातन्त्र्य गूढ़ रहस्य रच,
चेतन रस बरसा अमृत तू।।

शिवस्वरूप अभिनवगुप्त...

शिव का स्वप्न, शक्ति का नर्तन,
तेरी वाणी में गूँजता अनन्तन।
ज्ञान बोध की धारा बहती,
रस में डूबे सुर और चन्दन।।

शिवस्वरूप अभिनवगुप्त...

नाट्यरंग में रस का जादू,
मुक्ति का भी मिल जाए स्वादु।
जो स्वयं को पहचाने अंतर,
वह हो तेरा सच्चा निरन्तर।।

शिवस्वरूप अभिनवगुप्त...

स्वयं में ही शिव है छुपा,
भूल मिटा दे अज्ञान घटा।
अभिनवगुप्त सिखाए हमें,
स्वरूप बोध की गहरी वता।।

शिवस्वरूप अभिनवगुप्त...

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

भजन-गीत : "ज्ञानदीप अभिनव जले"

ज्ञानदीप अभिनव जले,
चेतन रस की बूँदें ढले।
स्वयं शिव बन दर्शन बोले,
ज्ञानदीप अभिनव पले।।

कश्मीर की पुण्य धरा में,
उठा चेतना का उच्छल रूप।
स्वरूप बोध का संगीता,
करता हर मन को अनुरूप॥

ज्ञानदीप अभिनव जले...

त्रिक, स्पन्द औ' प्रत्यभिज्ञा,
क्रमा सब संग समाहित की।
शिव-स्वातंत्र्य गूढ़ रहस्यों को,
रस रूप बना कर दीप्ति दी॥

नाट्य में भी रस की धारा,
आत्मस्वरूप में छलक पड़ी।
मुक्ति न कहीं दूर तलक,
अपने अंतर में सजीव रही॥

शिव ही मैं, शिव ही तू है,
बोध-प्रकाश जब अंतर हो।
अभिनवगुप्त का यह संदेश,
चिर ज्योति बन, हर मन तर हो॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)


भजन/गीत: "मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ"

मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, अनादि अमर प्रकाश,
छिपा नहीं हूँ दूर कहीं, बस अपने ही पास॥


जग सारा माया का खेल,
शिव है भीतर  अटल निशाना।
चेतना की लहरों में बह,
पा ले अपना मूल ठिकाना॥

मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, अनादि अमर प्रकाश...

भूले जो निज स्वरूप को,
बंधन में पड़ते बारंबार।
ज्ञानदीप जला कर मन में,
जागे फिर से आत्मा अपार॥

ना बाहर खोजो सत्य को,
ना दौड़ो स्वर्गों की ओर।
हृदय-कमल में ध्यान धरकर,
पाओ निज शिवमय ठौर॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

भजन : "स्वयं को पहचानो शिव हो तुम"

स्वयं को पहचानो, शिव हो तुम,
छुपा है भीतर ही परम सुखधाम।
छोटा न समझो इस जीवन को,
यही है सच्चा मोक्ष का धाम॥१॥

भूले जो अपने स्वरूप को,
बंधनों में भरमाते हैं।
जागो रे मन! फिर देखो तुम,
शिव रूप में खिल जाते हैं॥२।।

ना कोई दूरी ना दीवार है,
सबमें बसा शिव का प्रकाश।
आत्मा की गहराइयों में,
मिलता है खुद शिव का आभास॥३॥

ज्ञान की जो दीपक जलाओ,
अज्ञान का तम मिट जाएगा।
प्रेम से अपने अंतर में,
शिवस्वरूप प्रकट आएगा॥४॥

प्रत्यभिज्ञा की जो राह चले,
पाए वही जीवन का राज।
गाओ रे मिलकर प्रेम भरे,
"स्वयं शिवं — यही है आज॥५॥"

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

प्रत्यभिज्ञा दर्शन पर आधारित भजन/गीत:

वह शिवस्वरूप तू ही है, तेरे भीतर है परमात्मा,
अज्ञान के आवरण से, छिपा है तेरा ब्रह्म रूपण।
समझ ले इस सत्य को, खोज ले अपना आत्मा,
दृष्टि तुझे मिल जाए, बोध में हो समर्पण।

त्वमेव शिवः, तू ही शिव है,
चिंतन में जागे आत्मा की पहचान।
त्वमेव शिवः, तू ही शिव है,
यही है तेरा अद्वितीय रूप।

शक्ति का समागम है, तुझमें सब छिपा हुआ,
जगत रूपी सृष्टि तेरा ही विस्तार है।
स्वातन्त्र्य से है उत्पन्न, यह सृष्टि तेरी ही माया,
हर कण में बसा है, तू ही साकार है।

त्वमेव शिवः, तू ही शिव है,
चिंतन में जागे आत्मा की पहचान।
त्वमेव शिवः, तू ही शिव है,
यही है तेरा अद्वितीय ज्ञान।

विस्मृति ने हमें, जगत में बंधन डाला,
पर अब ज्ञान से, पुनः शिवत्व की पहचाना।
बंधनों को तोड़ दे, सच्चे स्वरूप का हो बोध,
तू है मुक्त, तुझमें है मोक्ष का ठिकाना।

त्वमेव शिवः, तू ही शिव है,
चिंतन में जागे आत्मा की पहचान।
त्वमेव शिवः, तू ही शिव है,
यही है तेरा अद्वितीय रूप।

अब बोध के साथ, हर क्षण तू साफ़ देख,
प्रत्यभिज्ञा ने खोले, तेरा असली रूप।
यह जन्म, यह जीवन, बस एक अनुभव है,
साक्षात्कार हो जाए, हर दिन तुमसे मिल भूप।

त्वमेव शिवः, तू ही शिव है,
चिंतन में जागे आत्मा की पहचान।
त्वमेव शिवः, तू ही शिव है,
यही है तेरा अद्वितीय ज्ञान।

@Dr. Raghavendra Mishra 

Saturday, 26 April 2025

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

"कण-कण में वीरत्व जगा कर चला गया!"

(स्वर्गीय जवाहर लाल मिश्र जी के तपस्वी जीवन को नमन)

कण-कण में वीरता जगा कर चला गया,
धधकते अंगारों में हँसकर चला गया!
संघर्षों का दीप जलाकर,
संकल्पों का पर्व रचाकर चला गया।।

भूखे भटकते शिकारी कुत्ते,
न तोड़ सके उसका संकल्प रे,
चींटियों से भरी कोठरियों में,
प्राणों का भी दिया विकल्प रे!
आग परीक्षा बनकर जली थी,
लेकिन वह बनकर कमल खिला गया।।
कण-कण में वीरता जगा कर चला गया...

साइकिल-पदयात्रा पथरीले,
वन-गिरि डगर सभी छान डाले,
एक दीप लिये चल पड़ा अकेला,
हजारों दिलों में ज्वाला जला डाले।
संगठन का मंत्र फूंक चला,
धर्मध्वजा ऊँची कर चला गया।।
कण-कण में वीरता जगा कर चला गया...

रामजन्मभूमि की हुंकारों में,
श्रीराम जानकी रथ सजाए,
जाति पंथ की सीमाएँ तोड़ीं,
धर्मबंधुता के दीप जलाए।
श्रीराम के रथ का सारथी बन,
भक्ति की गंगा बहा गया।।
कण कण में वीरता जगा कर चला गया...

जर्जर काया भी रोकी न राह,
कर्मवीर की थी अग्निमयी चाह,
शरीर मिटाया, तेज बचाया,
अनन्त गगन में दीप सजाया।
आज भी उसका तप पुकारे,
रणभेरी बनकर बजा गया।।
कण कण में वीरता जगा कर चला गया...

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

"जागा तपस्वी जागरण का दीपक"

(स्वर्गीय जवाहर लाल मिश्र जी की पुण्य स्मृति में राष्ट्रभक्ति गीत)

जागा तपस्वी भारत का दीपक,
जल उठा जीवन, बन गया उजियारा।
पीड़ा सहकर भी मुस्काया,
धरती बोली धन्य हो मेरा लाल प्यारा।।

धूल भरे पथ पर जो चला अकेला,
चोटों से जिसने सींचा अलबेला,
ज्वाला-सी चेतना ले आया,
हर गाँव गली में नवदीप जलाया।
अपने कर्मों से दूर किया अंधकार सारा,
धरती बोली धन्य हो मेरा लाल प्यारा।।
जागा तपस्वी जागरण का दीपक...

चींटी, भूख, तन्हाई साथी,
फिर भी न टूटी ध्येय की थाती,
जंगल-पहाड़ों में जो बाँटा प्रकाश,
संघर्ष बना उसका सबसे खास।
आँधी में भी झुका नहीं पथ का सितारा,
धरती बोली धन्य हो मेरा लाल प्यारा।।
जागा तपस्वी जागरण का दीपक...

साइकिल ले साधु-सा चला,
हर घर हर मन में दीप जला,
रामनाम की पताका थामी,
जन जन में भक्ति संगठन बोया धामी।
प्रेम और सेवा से भरा गगन सारा,
धरती बोली धन्य हो मेरा लाल प्यारा।।
जागा तपस्वी जागरण का दीपक...

तन मिटा, प्राण अर्पण कर,
चला दिव्यता के अन्तःपथ पर,
जर्जर काया छोड़ अनन्त में,
ज्योति बनकर छा गया अनन्त में।
हम सबके माथे का उज्ज्वल सितारा,
धरती बोली धन्य हो मेरा लाल प्यारा।।
जागा तपस्वी जागरण का दीपक...

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)

"तप की आग से खिला था एक पुष्प अमर"

(स्वर्गीय जवाहर लाल मिश्र जी को समर्पित राष्ट्रभक्ति गीत)

तप की आग से खिला था एक पुष्प अमर,
धरती बोली देखो जनमा मेरा वीर समर।
यातना की ज्वाला में जिसने फूल खिलाए,
ऐसे दीप को कोटि प्रणाम! चरणों में शीश धर।।

सोनभद्र की माटी का लाल,
काशी में सींचा स्वप्न विशाल,
संघ के पथ पर चला भूपाल,
हिम्मत से जीता हर भूचाल।
जीवन को साधना बना, तप का दीप जला,
वन उपवन में गूँजा जयजयकार का स्वर।।
तप की आग से खिला था एक पुष्प अमर...

भूखे शिकारी कुत्ते छोड़े,
रातें बीती चींटियों संग रोड़े,
लेकिन ध्येय न डिगा क्षणभर भी,
संघर्ष बना उनका अभिनन्दन जोड़े।
तानाशाही की रातों में, ज्योति बन शोले,
कण-कण में भर दी स्वदेश प्रेम की लहर।।
तप की आग से खिला था एक पुष्प अमर...

साइकिल लेकर चले गाँव-गाँव,
पाँव-पाँव मापा पूरा धाम,
संगठन बोए बीज समर्पण के,
फलते हैं जो बनके चिर आयाम।
रामजन्मभूमि की यात्रा के सारथी बने,
धर्म ध्वजा फहराई हर गली, हर नगर।।
तप की आग से खिला था एक पुष्प अमर...

रोग जर्जर तन को त्याग चले,
देवों से मिलने पथ पर आज चले,
पर उनकी साधना अमिट रहे,
युग युगांतर तक दीपक जाग चले।
उनकी प्रेरणा से हम बढ़ें, विजय पताका लहरायें,
भारत माता को करें हम वंदन नवपुष्प अर्पित कर।।
तप की आग से खिला था एक पुष्प अमर...

@Dr. Raghavendra Mishra 

Friday, 25 April 2025

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

(लेखक/रचनाकार)


*जवाहर ज्वाला जलती रहे, हिन्दू हृदय में पलती रहे* l

जवाहर ज्वाला जलती रहे,
हिन्दू हृदय में पलती रहे।
संघ ध्वजा के वीर सपूत,
यश आपका गगन में रमती रहे।।

गोटीबांध की धरती से निकले,
त्याग-तपस्या के दीपक।
चंदौली की गलियों में गूंजा,
संघ भक्ति का अमर चिंतक।
धोती-कुर्ता साधन कच्चे,
फटा बैग फिर भी सब अच्छे।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
संघ धारा में बहती रहे।।

रामजन्मभूमि के रण में,
सिंघल, गुरजन संग उठे।
सुबेदार, शोभनाथ सँग,
हिन्दू स्वाभिमान न टूटे।
आग बनी वो चेतना,
बनी राम नाम की वन्दना।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
धर्म ध्वजा बन लहरती रहे।।

काला था आपातकाल,
ट्रेन की छत से गूँजी चाल।
गीतों से ललकार किया,
पुलिस भी थर्राई देख हाल।
कुत्ते नोचें, प्राण दहकें,
पर संगठन का दिया न भेद।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
बलिदान अमरता कहती रहे।।

भोला मिश्र गाते रहे,
तेरी यशगाथा गूंजे रहे।
वीर नगर से सकलडीहा,
तेरी प्रेरणा बहती रहे।
चप्पल घिसी, पर मन ना थका,
हिन्दू जीवन में तू सदा पका।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
राष्ट्रभक्ति सदा खिलती रहे।।

तन मन तर्पण, जीवन अर्पण,
जवाहर ज्वाला अमर रहे।।
संघ पथिकों के दीप बने,
जवाहर जी अमर रहे।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भजन/गीत :

"जवाहर ज्वाला जलती रहे"

जवाहर ज्वाला जलती रहे,
हिन्दू हृदय में पलती रहे।

संघ ध्वजा के वीर सपूत,
यश आपका गगन में रहे रमती रहे।।

गोटीबांध की धरती से निकले,
त्याग-तपस्या के दीपक।
चंदौली की गलियों में गूंजा,
संघ भक्ति का अमर चिंतक।
धोती-कुर्ता साधन कच्चे,
फटा बैग फिर भी सब अच्छे।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
संघ धारा में बहती रहे।।

रामजन्मभूमि के रण में,
सिंघल, गुरजन संग उठे।
सुबेदार, शोभनाथ सँग,
हिन्दू स्वाभिमान न टूटे।
आग बनी वो चेतना,
बनी राम नाम की वन्दना।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
धर्म ध्वजा बन लहरती रहे।।

काला था आपातकाल,
ट्रेन की छत से गूँजी चाल।
गीतों से ललकार किया,
पुलिस भी थर्राई देख हाल।
कुत्ते नोचें, प्राण दहकें,
पर संगठन का दिया न भेद।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
बलिदान अमरता कहती रहे।।

भोला मिश्र गाते रहे,
तेरी यशगाथा गूंजे रहे।
वीर नगर से सकलडीहा,
तेरी प्रेरणा बहती रहे।
चप्पल घिसी, पर मन ना थका,
हिन्दू नवजीवन में तू सदा रहा।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
राष्ट्रभक्ति सदा खिलती रहे।।

तन-मन तर्पण, जीवन अर्पण,
जवाहर ज्वाला अमर रहे।।

संघ पथिकों के दीप बने,
जवाहर जी अमर रहे ।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

जवाहरलाल मिश्र जी(गोटिबांध, नगवां, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश, भारत) के जीवन और योगदान पर आधारित भजन / गीत, जो राष्ट्रभक्ति, संघ समर्पण और त्याग की भावना को दर्शाता है l

भजन/गीत शीर्षक: 

"जवाहर ज्वाला जलती रहे,
  हर हिन्दू हृदय में पलती रहे।
"

प्रखर राष्ट्रवाद की ज्वाला में,
तन-मन अर्पित कर दिये।
त्यागमयी उस अग्नि कुंड में,
स्वयं को होम कर दिये।
गोटिबांध गाँव से चलकर आए,
संघ ध्वज को शीश नवाए।
धोती कुर्ता, चप्पल घिसा,
पर मन में पर्वत-सा भरोसा।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
संघ पथिकों को चलती रहे।

चंदौली की भूमि बनी,
संघ तपस्वी की साधना।
हिंगतरगढ़, सकलडीहा,
गूंज उठे उनकी भावना।
श्रीराम जन्मभूमि का संग्राम,
विहिप संग दिया प्रान।
सिंघल, सुबेदार, गुरजन साथ,
उगला हिंदुत्व का प्रकाश।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
हर हिन्दू हृदय में पलती रहे।

इमरजेंसी का काला समय,
संघ गीतों से दिया संदेश।
छत पर बैठ के गीत सुनाया,
कैंट पर कोतवाल घबराया।
पुलिस पूछे, कुत्ते नोचें,
पर सत्य पथ से वो न डोले।
एक भी नाम न बतलाया,
संगठन को सुरक्षित पहुंचाया।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
संघ की व्रतगाथा चलती रहे।

काली दाढ़ी, फटा हुआ बैग,
पर तेजस्विता में था अनुराग।
राष्ट्रभक्ति की अमिट छवि,
हर स्वयंसेवक को किया रवि।
भोला जी भी गाथा गायें,
जवाहर के पदचिन्ह दिखाएं।
बभनौली से वीर नगर तक,
उनका नाम बने युग रक्षक।
जवाहर ज्वाला जलती रहे,
हर संघी में शक्ति भरती रहे।

@Dr. Raghavendra Mishra 

Thursday, 24 April 2025

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

माता अहिल्याबाई होलकर के जीवन, सेवा, संस्कृति-संरक्षण, धर्मनिष्ठा और स्त्रीशक्ति के गौरवगान पर आधारित एक प्रेरणादायक देशभक्ति व सांस्कृतिक राष्ट्रभक्ति भजन/गीत, जो भारत की मिट्टी, परंपरा और शक्ति का संदेश देता है।

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भजन/गीत: धरा की दीपशिखा अहिल्या रानी

अहिल्या रानी जाग उठीं, मिट्टी ने ली सांस।
धर्म-ध्वजा फिर लहराई, जागी भारत की आश॥

साधारण कुल में जन्म लिया, पर कर्म बने महान।
बुद्धि, शक्ति, सेवा में, नारी का दिया प्रमान।
ना छाया था भय, ना लोभ का माया-जाल,
धर्म-सिंहासन पर बैठीं, बनीं नारी का भाल॥

काशी का मंदिर बोल उठा, आई फिर से ज्योति।
सोमनाथ ने पाया गौरव, रामेश्वर ने मोती।
अयोध्या में श्रीराम फिर गूंजे भक्तों के साथ,
धर्म-मार्ग की दीवानी, बनीं रानी सबकी मात॥

न्याय दरबार में बैठी थीं, सबके दुख को जान।
कर घटाया, सुख बढ़ाया, था सेवा ही पहचान।
महेश्वर की गलियों में, आज भी गूंजे नाम,
अहिल्या माई आई थीं, लेकर धर्म-विराम॥

भारत माता कहती है, ऐसी बेटियाँ चाहिए,
त्याग, तप, सेवा से, यश की जोत जलाइए।
धन्य है वह संस्कृति, जो ऐसी शूरवीर लाए,
इतिहास को भी गर्व हुआ, जब रानी बन मुस्काए॥

जय-जय अहिल्या मात, संस्कृति की तू थाती।
तेरे चरणों में ये राष्ट्र, श्रद्धा सुमन चढ़ाती॥

@Dr.Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

माता अहिल्याबाई होलकर के जीवन और कार्यों पर आधारित एक भावात्मक भजन/गीत – जो नारी शक्ति, धर्मपालन, सेवा और राष्ट्रनिर्माण की भावना से ओतप्रोत है ।

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भजन: “धर्म की दीपिका अहिल्या माई”

अहिल्या नाम सुगंधित, जन-जन करे बात।
धर्म-दीप जो जलाई, भूले नहीं वो मात॥

मालवा की रानी सुबुधि सुवासिनी।
धर्म-निष्ठ, नारी-सृष्टि की आभासिनी॥
महेश्वर नगरी पर जो राज किया।
न्याय धर्म सेवा से सबका काज किया॥

काशी विश्वनाथ का, मंदिर फिर बनवाया।
सोमनाथ से द्वारका, सबको साज सजाया॥

रामेश्वरम की यात्रा भी की फिर से।
अयोध्या में फिर बजी श्रीराम ध्वनि सिर से॥
तीर्थों पर घाट, धर्मशाला बनाई।
हर पीड़ित की पीड़ा भी खुद सुन पाई॥

नरसेवा ही नारायण, भाव यही अपनाया।
न्याय सिंहासन पर स्वयं विराज के पाया॥

न दिन देखा, न रैन की परवाह करी।
जन-जन की सेवा को माता ने चाह करी॥
राजा जैसी किंतु मां की ममता साथ।
दया धर्म न्याय पर रखा सदा हाथ॥

अहिल्या माई पूज्य हैं, हैं भारत की भवानी।
नारी के नव रूप में, उजियारी माता रानी॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

"ब्राह्मण छात्र सेवा संस्थान" की भावना को समर्पित एक भावपूर्ण भजन गीत लिखें हैं। इसमें सेवा, शिक्षा, संस्कृति और सनातन मूल्यों की भावना रची-बसी है ।

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भजन/गीत: 

"सेवा में समर्पित ब्राह्मण छात्र"

ब्राह्मण बन्धु सेवा में समर्पित, ज्ञान-विज्ञान का दीपक हैं।
संस्कृति के ये रक्षक बनकर, राष्ट्र जागरण के गीतक हैं॥

वेदों की प्रतिध्वनि हैं ये, उपनिषदों के बीज हैं।
योग ध्यान में लीन सदा, सनातन के सजीव तीज हैं॥

तप, त्याग, तेजस्विता लेकर, गुरुकुल-धर्म निभाते हैं।
चरक, पाणिनि, व्यास पथिक बन, ज्ञान-वृक्ष बढ़ाते हैं॥

पढ़ते गीता, करते सेवा, नीति-धर्म का पाठ सिखाएँ।
संस्कृति का प्रसार लिए, विश्व के गाँव में जाएँ॥

नालंदा की स्मृति जगाएं, तक्षशिला सी शिक्षा लाएँ।
विद्या के इस यज्ञ में, जीवन होम चढ़ाएँ।।

न कोई भय, न मोह माया, केवल कर्तव्य का है ध्यान।
संघर्षों में मुस्काते ये, रचते नव भारत महान॥

ब्राह्मण विद्वान बने सपूत, ध्यान योग में हों अभ्यस्त।
उनके चरणों को नमन करें, राष्ट्रधर्म के लिए जिनका बहे रक्त॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भावपूर्ण भजन, जिसमें ब्राह्मणों के योगदान को भक्ति और श्रद्धा के साथ लिखा गया है

भजन/गीत: 

"ज्ञानदीप जलाए ब्राह्मण"

ज्ञानदीप जलाए ब्राह्मण, जप तप योग सिखाए ब्राह्मण।
संस्कृति की पताका लेकर, विश्व को राह दिखाए ब्राह्मण॥

पाणिनि ने व्याकरण रचाया, व्यास ने वेदों को समझाया।
वाल्मीकि ने राम कथा गाई, कविता में भाव भर लाए ब्राह्मण॥

चरक, सुश्रुत और धन्वंतरि, चिकित्सा की रचे नींव गहरी।
खगोल गगन में जिसने झांका, वही ऋषि कहलाए ब्राह्मण॥

योगसूत्र जब पतंजलि बोले, चेतन मन के द्वार खुले।
ब्रह्मज्ञान की अमृत वाणी, उपनिषद से लाए ब्राह्मण॥

शंकर ने अद्वैत सुनाया, सच्चे आत्मा का ज्ञान कराया।
धर्म, नीति, सत्य का पथ, सबको साफ दिखाए ब्राह्मण॥

तक्षशिला हो या नालंदा, विद्या की वह गंगा बहा।
विश्व विद्यालय के जननी, गौरवगाथा गाए ब्राह्मण॥

जहाँ भी मानवता भटकी, वेदों की जोती फिर चमकी।
विश्व शांति का बीज बोकर, धरती को स्वर्ग बनाए ब्राह्मण॥

प्रणाम करें हम श्रद्धा से, ऋषियों की उस वाणी से।
जो युगों से पथ दिखाए, ऐसे ज्ञान जगाए ब्राह्मण॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

"अखिल भारतीय ब्राह्मण एकता परिषद" पर आधारित एक प्रेरणात्मक भजन/गीत, जो संगठन के उद्देश्यों, भावनाओं और सेवाभाव को सुंदरता से प्रकट करता है, जय परशुराम भगवान जी की 🙏 

भजन / गीत शीर्षक: 

"ब्रह्म तेज की ज्योति जले, एकता का शान बने"

जय ब्राह्मण एकता जयकार, अखिल विश्व का आधार।
धर्म-गौरव के रक्षक हम, ज्ञान-योग के विस्तार॥

भृगु, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य की, हम संतान पुनीता।
वेदों के हम रक्षक बनें, हो सेवा की गीता॥
सम्मान रहे, अधिकार बचे, यही संकल्प हमारा,
जाति नहीं पर न्याय मिले, हो सबका कल्याण सारा॥

एकता परिषद का ध्येय, संगठन की शक्ति,
युवकों में हो तेज जगे, नारी में भक्ति।
पंचमहायज्ञों से जुड़ें, हो संस्कृति का उत्थान,
संस्कारों की राह चले, जागे राष्ट्र महान॥

सप्त-संकल्प की ज्योति लिए, हम दीप जलाएँ,
सेवा, सुरक्षा, सम्मान से, समाज सजाएँ।
हर गाँव, नगर, दिशा-दिशा में, गूँजे स्वर ज्ञान का,
ब्राह्मण एक हो, कर्मयोग हो, दीपक बने राम का॥

ब्रह्म तेज की ज्योति जले, एकता का गान बने,
अखिल भारत में ब्राह्मण का, फिर से सम्मान बने।
परिषद का संदेश यही – “धर्म न मिटे, सत्य ना हारे”,
जय अखिल ब्राह्मण एकता, संस्कृति को हम सवारे!”

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भगवान परशुराम जी पर आधारित एक भजन गीत, जिसमें उनकी जीवन-लीला, पराक्रम और धर्म-स्थापना की भावना को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा है ।

भजन/गीत 

"जय जय परशुराम प्रभु, धर्म रचइया वीर"

जय जय परशुराम प्रभु, धर्म रचइया वीर।
भृगु कुल के भूषण प्रभु, ब्रह्म तेज धरा शरीर॥

शिव से पाया परशु प्रभु, रुष्ट भए जब काल,
एक–एक करके छिन्न किए, अत्याचारी जाल॥
इक्कीस बार खंडित किया, अधर्मी का अधिकार,
न्याय प्रतिष्ठित कर दिया, किया भूमि उद्धार॥

रेणुका माता के तुम पुत्र, जमदग्नि के लाल,
सहस्त्रार्जुन का किया विनाश, लिया पिता का भाल॥
क्षत्रिय जुल्म मिटाए तुमने, बनाया धर्म मार्ग,
शक्ति-संयम के संग दिखाया, जीवन का सच्चा सार॥

राम से हुई भेंट जब, धनुष यज्ञ के ठौर,
पहचाना तुम विष्णु को, कर लिया सिर मौर॥
कर्ण, भीष्म, द्रोण जैसे, पाये तुमसे ज्ञान,
शस्त्रों के वे देव हैं, तुम ब्राह्मण के प्राण॥

केरल की धरती जो उठी, वह भी है तेरा दान,
अब भी तू चिरंजीव है, करता धर्म का गान॥
कल्कि को देगा अस्त्र-विद्या, अंतिम युद्ध सँवार,
जय जय परशुराम प्रभु, तू सनातन का सार॥


जय जय परशुराम प्रभु, भक्तों के आधार,
तेरी कृपा से पावन हो, यह सारा संसार॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

Wednesday, 23 April 2025

 


डॉ राघवेन्द्र मिश्र 

तू जिधर से गुजरेगी सनम,

                    गली उधर की सुधरेगी सनम ।

देखके तुझको बिगडे दिवाने,

                     जिन्दगी अपना बना जायेंगे सनम ।

तू जिधर से गुजरेगी सनम,

                    गली उधर की सुधरेगी सनम ।


अदायें तेरी जो रंगीन मौसम को लायें-२

                             रंगीन जुल्फ़े घनी बादल को भायें-२

ये करिश्मा कुदरत भी ना जानें,

                        जवानी को बस में कैसे कर पायेंगे सनम-२

ये सब अदायें अदायें-----३

              दिवानों के दिल को बस तडपायेंगी सनम-२

तू जिधर से गुजरेगी सनम,

                    गली उधर की सुधरेगी सनम ।


तुझको पाना मुश्किल नही, 

                      नामुमकीन हुआ है-२

तुझको जिसने बनाया, 

                  अगर ना मिली तू उसे,

तेरे बिना, तेरी आशिकी में, 

                    रब भी मर जायेगा सनम-२

तू जिधर से गुजरेगी सनम,

                    गली उधर की सुधरेगी सनम ।


@Dr Raghavendra Mishra 

एक ओजस्वी राष्ट्रभक्ति भजन/गीत, जो हिन्दू गौरव, भारत माँ, हिंदुत्व के तेज और शहीदों की आहुति को समर्पित है:

"जय हिंदुत्व जय भारत माँ"
(राष्ट्रभक्ति और धर्मशक्ति का भजन)

भारत माता की जय बोले, हर हिंदू का ये प्रन हो,
धर्म, ध्वजा, तिरंगा ऊँचा – यही जीवन का धन हो।
हिम पर्वत, पावन गंगा बोले, सिंधु भी गाए गान,
जय हिंदुत्व, जय भारत माँ , यही हो प्राणों का शान।

त्रिशूल उठे, शंख बजे, दुर्गा शक्ति जागे,
आतंकी जैसे दुष्टों पर,  फिर प्रलय मागे।
पाञ्चजन्य की ध्वनि से गूंजे, आकाश, धरा, चमन,
राष्ट्रभक्ति की ज्वाला बन जाए, भारत का जन-मन।

शिव की भस्म, राम की मर्यादा,
कृष्ण का चक्र, वीर अर्जुन का वादा।
हिंदू न झुका है, न झुकेगा,
जहाँ धर्म है, वहीं विजय रुकेगा।

जिनके लिए चिता भी वंदना,
जो मातृभूमि को दें तन-मन-धन।
उन वीरों के चरणों को आज,
हम सब करें नमन।

“वन्दे मातरम्” की गूंज उठे फिर,
हर मंदिर से, हर घर द्वार।
शौर्य, सेवा, शांति के रक्षक,
हिंदू वीर करें ललकार।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक,
हिन्दू एकता की हो मशाल।
ना बाँटे हमें कोई पंथ,
हम सब राष्ट्र के एक भाल।

@Dr. Raghavendra Mishra

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

पहलगाम की घटना की पृष्ठभूमि में, शहीदों की आत्मा को नमन करता हुआ– देशभक्ति गीत:

"भारत के रणबाँकुरे"
(शहीदों को श्रद्धांजलि, राष्ट्र को संकल्प)

धरती माँ ने पुकारा है, अब जागो वीर जवानों, 
शांति के फूलों पर बरसे, अब ढाल तुम्हारी परवानों।
जो कश्मीर में गिरा खून, व्यर्थ कभी न जाएगा ,
हर आँसू की कसम ये है, अब आतंकी जी न पाएगा।

हिमगिरि से लेकर सिंधु तक, गूंजे भारत नाम,
कोई रचता षड्यंत्र यहाँ, हो उसके नाश का काम।
नव दीप जलाएँ साहस के, हर गाँव नगर में अब,
जन-जन की हुंकार बने, "जय भारत" का स्वर तब।

त्रिशूल उठेगा फिर से जब, करुणा बन जाए क्रोध,
न्याय के इस धर्मयुद्ध में, अब ना चलेगी कोई अवरोध।
टीआरएफ, लश्कर, सब नाम मिटेंगे, हो जाएगा संहार,
भारत की धरती पर फिर, गूंजेगा शांति का सत्कार।

हर शहीद के रक्त कण में, भगवत स्वरूप समाया,
भारत माँ की वन्दना में, जीवन हर पल लुटाया।
हम न भूलेंगे बलिदान को, न थमेंगे, न झुकेंगे,
राष्ट्रधर्म के यज्ञ में, प्राण अर्पित हम कर देंगे।

अब जो भी आँख उठाएगा, उसका उत्तर सिंह बनेगा,
कण-कण से जयघोष उठेगा, भारत फिर से जगेगा।
चलो उठो, मिटा दो भय को, हर कोना तिरंगा हो,
वीर शहीदों के संकल्पों से, नया सूरज गंगा हो।

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ राघवेन्द्र मिश्र 

"वीर वतन के लाल"

(भारत माता के सपूतों को समर्पित)

पर्वतों की गोद में, गूंजा आज एक स्वर,
आतंकी अंधकार को, ललकारे हर ज़र।
बाइसारन की वादी में, लहू बहा जवानों,
भारत माँ ने फिर पुकारा – "जागो मेरे संतानों।"

जय जय भारत माता, वीरों की तू जननी,
तेरे लिए कट जाएँ हम, ये जीवन हो धनी।
जो शहीद हुए वतन पर, वो अमर बलिदानी हैं,
उनकी याद में जलती अब, हर दिल की रवानी है।

गुंजे ये अरदास हमारी, सीमा से संसद तक,
ना झुकेगा भारत अब, हो आँधी या तूफ़ान तक।
हर आतंकी के मन में, अब डर का दीप जलाएँ,
शांति का संदेश लिए, पर प्रहार में ना चूक जाएँ।

आतंकी हो या कोई नाम, सबका अंत लिखेंगे हम,
जहाँ चलेगी भारत बात, वहीं तक दिखेंगे हम।
संग चलेगी सच्चाई, संग चलेगा हिन्दुस्तान,
धर्म, धैर्य, और वीरता – यही हमारी है पहचान।

आओ मिलकर बोलें सब – “भारत माता की जय!”
वीरों के उस बलिदान को, चरणों में अर्पण कर दें।
जग से कह दें भारत अब, चुप रहने वाला नहीं,
जिसने आँख उठाई भारत पर, वो अब बचने वाला नहीं!

@Dr. Raghavendra Mishra 

Tuesday, 22 April 2025

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 😭😭😭 

भावपूर्ण और ओजस्वी राष्ट्रभक्ति-हिन्दुत्व भजन है, जो पहलगाम की आतंकवादी घटना में मारे गए हिंदू श्रद्धालुओं और नागरिकों की स्मृति में रचा गया है। यह भजन हिन्दू गौरव, देशभक्ति और प्रतिशोध की चेतना से प्रेरित है:

"रक्त से लिपटा केसर-वन"

(पहलगाम की पुकार – भारत माता के वीरों को समर्पित)


पहलगाम की घाटी रोई, भारत के लाल को काट दिए,
नाम पूछा, धर्म पूछा – फिर गोली से मार दिए।
हिंदू था, यही अपराध? – ये कैसा अन्याय हुआ?
भारत माता देख रही थी, आँचल भी हाय हुआ।

हे भोलेनाथ की धरती, हे वैष्णो की क्यारी,
जहाँ अमरनाथ बसा सदा, वहाँ मौत की सवारी।
आतंक के पिशाचों ने, पावन रक्त बहाया,
लेकिन हर बूंद ने फिर, एक "हिंदू" को जन्म दिलाया।

हमें डराना आसान नहीं, ये धरती वीरों की है,
हम राम के वंशज हैं, ये वाणी शूरों की है।
हिंदुत्व का यह ध्वज फहरेगा, आतंक मिट जाएगा,
हर गोली का उत्तर अब, वज्र प्रहार से आएगा।

जिसने छोड़ी पत्नी रोती, उसके नयन जलाते हैं,
वो सात जन्मों की साक्षी – हम बदला लेने आते हैं।
भारत की हर बेटी अब, प्रतिशोध का दीप जलाए,
आतंकियों को मारने का अब, भारत अपना रीत बनाए l

जागो भारत के सपूतो, अब रणचंडी बनो,
कण-कण में शिवशक्ति जगे, मां चंडी का रूप धरो।
हिंदू न झुका था, न झुकेगा, सत्य का पथ चलता है,
जहाँ शहीदों का रक्त गिरा, वहाँ तिरंगा खिलता है।

भारत माता की जय बोलो, गरज उठे अब परवत,
पहलगाम की हर घाटी से, गूंजे वीरों की करवट।
हम हर बूंद का हिसाब लेंगे, ये प्रण आज उठाया है,
हिंदू को जो मारेगा अब, उस पर काल छाया है।

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भजन/गीत: "यशवंतराव केलकर की वंदना"

यशवंतराव की वंदना,
छात्रों के शक्ति की साधना।
संघर्ष, सेवा, नेतृत्व के,
निर्माता की ये आराधना।।

जिनके चिंतन से दीप जले,
ABVP के स्वर चले।
राष्ट्रधर्म की जिसको चाह,
युवकों को दी सच्ची राह।।

छात्रों में जिसने विश्वास भरा,
सेवा को जीवन का मूल कहा।
जाति-भेद जो मिटा चला,
समरस समाज का दीप जला।।

पूर्वोत्तर से लेकर गुजरात,
सेल बनी एकता की बात।
संघर्षों में दिखाया पथ,
छात्र बना राष्ट्र का रथ।।

नहीं राजनीति की होड़ चढ़ाई,
राष्ट्रनीति की बात बढ़ाई।
पठन-पाठन से आगे बढ़कर,
चरित्र-निर्माण को दिया अमर स्वर।।

आज भी जब दीप जलाएं,
यशवंतजी को याद दिलाएं।
ABVP का जो बीज बोया,
उसमें भारत का भविष्य संजोया।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

भजन/गीत: "वीर सावरकर की गाथा"


लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र


वीर सावरकर की गाथा गाओ,
हिंदुत्व दीप पुनः जलाओ!
जिनके लेखों ने दी चेतना,
जागी भारत की वेदना।।

1857 का समर बताया,
पहला स्वतंत्रता संग्राम गिनाया।
"हिंदुत्व" जिसने परिभाषित किया,
राष्ट्रधर्म को स्थापित किया।।

सेल्युलर जेल की काल-गुफा,
जहाँ लहू से लिखा सफा।
नाखूनों से कविता रच दी,
चट्टानों में भी आग भर दी।।

जनेऊ-छूआछूत मिटाया,
समरस समाज का दीप जलाया।
हिंदू महासभा में विचार सुनाए,
राष्ट्रभक्ति के बीज जलाए।।

कुर्बानी थी, तपस्या भारी,

इनको भारत माता सबसे प्यारी।

न्यायालय ने मुक्त किया,
सावरकर को फिर से श्रेय दिया।।

जय जय वीर सावरकर,
तेरे शब्द हैं समर अमर।
आज आपसे प्रेरणा पाएं,
भारत में परम वैभव लाएं।।

@Dr.Raghavendra Mishra 


 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भजन/गीत: "ABVP का दीप जलाओ"

(राग: जोशीला भजन राग, ताल: दादरा या कहरवा)


ABVP का दीप जलाओ,
ज्ञान-शील का पथ दिखाओ।
संघर्ष, सेवा, नेतृत्व प्यारा,
हर छात्र को है अब सहारा।।

संघर्ष की राह जो बताए,
ABVP सबको भाए।
सेवा भाव जिसकी पहचान,
राष्ट्र प्रेम उसका अभिमान।
नेतृत्व हो निष्कलंक,
संकल्प बने अब अटल मयंक ।।

छल-कपट की हार हो अब,
सच्चाई का हो जय सब!
झूठी बातें हटी पुरानी,
नई सोच दे नव-कहानी।
वामपंथ की ना अब चाल,
ABVP है JNU की ढाल।।

शिखा स्वराज की जय-जयकार,
बने अध्यक्ष अबकी बार!
निट्टू गौतम दमदार साथी,
उपाध्यक्ष बने अब बांकी।
कुणाल राय सच का स्वर,
लाल झंडे को दे जवाब गरजकर!
वैभव मीणा के संग चलो,
संघर्ष की बुनियाद रचलो।।

हर छात्र की है ये आवाज़,
ABVP है उसका नाज!
शिक्षा, सम्मान, विकास की बात,
राष्ट्रवाद से बने हर बात।
नया विचार, नई आशा,
भविष्य रचे इसकी परिभाषा।।

अबकी बार – ABVP सरकार!
छात्र बोले – देंगे मात बारम्बार!
स्वराज, न्याय, और विचार,
ABVP से ही हो व्यवहार।
नया JNU, नया उजाला,
ABVP का दीप, सबसे निराला।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

Sunday, 20 April 2025

 ब्रह्म ही सत्य, जगत मिथ्या – 


1. ब्रह्म ही सर्वव्यापक और परम तत्त्व है:

वेदों और उपनिषदों के अनुसार, ब्रह्म वह अनंत, अजन्मा, अविनाशी और निराकार तत्त्व है, जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई, जिसमें यह स्थिर है और अंततः जिसमें विलीन हो जाती है। ब्रह्म नित्य है, चेतन है, और सच्चिदानंद स्वरूप है।

2. समस्त प्राणी ब्रह्म के ही अंश हैं:

श्वेताश्वतर उपनिषद कहती है – "एको देवः सर्वभूतेषु गूढः, सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।"

अर्थात् – एक ही देवता (ब्रह्म) सब प्राणियों में गूढ़ रूप से स्थित है। वह ही सभी का आन्तरिक आत्मा है।

3. जीव, आत्मा और ब्रह्म में अभेद (अद्वैत) है:

छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है – "तत्त्वमसि श्वेतकेतो।"

अर्थात् – हे श्वेतकेतु! तू वही तत्त्व (ब्रह्म) है।

यह उपदेश बताता है कि प्रत्येक जीवात्मा, वास्तव में ब्रह्म ही है, लेकिन अविद्या (अज्ञान) के कारण वह अपने को सीमित शरीर और मन तक ही मान बैठता है।


4. 'ब्रह्माण्ड में ब्रह्म, और ब्रह्म में ब्रह्माण्ड' का अर्थ:

यह कथन इस सत्य की ओर संकेत करता है कि ब्रह्माण्ड कोई भिन्न सत्ता नहीं है, यह स्वयं ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।

जैसे समुद्र में अनेक तरंगें उठती हैं, पर सबकी सत्ता समुद्र ही है, वैसे ही सब प्राणी, वस्तुएँ, विचार, चेतना – सब ब्रह्म से ही प्रकट हैं और उसी में लीन होते हैं।

5. इसलिए सभी जीव ब्राह्मण हैं – गूढ़ अर्थ:

यहाँ “ब्राह्मण” शब्द जाति या सामाजिक वर्ग के अर्थ में नहीं, बल्कि ब्रह्म को जाननेवाले, ब्रह्म में स्थित आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त है।

मनु स्मृति कहती है –

"जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते।

वेदपाठात् भवेत् विप्रः, ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः।"

अर्थात – जन्म से सब शूद्र होते हैं, संस्कार से द्विज, वेद-पाठ से विप्र और ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण कहलाता है।

अतः जब हम कहते हैं कि सभी जीव “ब्राह्मण” हैं, तो उसका तात्पर्य है कि प्रत्येक जीव में वह ब्रह्म तत्व निहित है, और वही उसकी सच्ची पहचान है।

इस दृष्टिकोण से, कोई भी प्राणी “अलग” नहीं है। सभी एक ही सार्वभौमिक चेतना (ब्रह्म) के रूप हैं।

इसलिए सर्वप्रेम, अहिंसा, समभाव, और आत्मसाक्षात्कार – यही उस ब्रह्मदृष्टि के प्रमुख अंग हैं।

@डॉ. राघवेन्द्र मिश्र

 इस ब्रह्माण्ड का के सभी प्राणियों में ब्रह्म ही रहते हैं और ब्रह्म में ही ब्रह्माण्ड रहता है 🙏 

अतः ब्रह्माण्ड के सभी प्राणी, जीव, मनुष्य ब्रह्म और ब्राह्मण ही हैं l

@डॉ राघवेन्द्र मिश्र 

Saturday, 19 April 2025

लेखक का नाम 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

एबीवीपी के संघर्ष, सेवा, नेतृत्व आधारित विभिन्न नारे :

  1. संघर्ष की राह दिखाए, ABVP ही सबको भाए!
  2. सेवा भाव ही पहचान, ABVP का यही निशान!
  3. नेतृत्व जिसका निष्कलंक, उसी को दो अपना संकल्प!
  4. नया जेएनयू, नया विकल्प – ABVP है असली संकल्प!
  5. छात्रों की असली आवाज़, ABVP है उनका नाज!


Central Panel आधारित नारे:

  1. शिखा स्वराज की पुकार, बने अध्यक्ष अबकी बार!
  2. जेएनयू की यही पुकार, शिखा स्वराज अबकी बार 
  3. निट्टू गौतम है दमदार, उपाध्यक्ष पद का हक़दार!
  4. कुणाल राय की सच्ची बात, वामपंथियों को देंगे मात!
  5. वैभव मीणा संयुक्त सचिव, वामपंथियों की हिला दे नींव!

वामपंथ विरोधी नारे:

  1. छल कपट की राजनीति हारे, सच्चा नेतृत्व फिर से निखारे!
  2. वामपंथ की अब नहीं चाल, ABVP है JNU की ढाल!
  3. झूठी विचारधारा हटी, छात्रसंघ में नई गति!
  4. मूलभूत अधिकार चाहिए, वामपंथ नहीं, राष्ट्रवाद चाहिए!

जेएनयू के भविष्य को लेकर

  1. ज्ञान-शील और एकता, ABVP में समरसता!
  2. शिक्षा, सम्मान और विकास – ABVP है हर छात्र के पास!
  3. नया विचार, नया उजाला – ABVP का दीप, सबसे निराला !
  4. JNUSU में लाओ क्रांति, एबीवीपी है सुधार क्रांति!

ABVP के जोशीले नारे:

  1. ABVP का जय घोष, छात्रों को मिले नया जोश!
  2. अबकी बार – ABVP सरकार!
  3. छात्र बोले एक ही बात – ABVP देगा सबको मात!
  4. नेतृत्व सशक्त, ABVP श्री राम भक्त (राष्ट्रभक्त)!

भावनात्मक और प्रेरक नारे

  1. हर छात्र की है यही पुकार – स्वराज, न्याय और विचार!
  2. विकल्प नहीं अब कोई और, ABVP है सबका ठौर!
  3. चुनाव नहीं अब खेल बना, ABVP से ही मेल बना!

@Dr. Raghavendra Mishra 

 

भजन गीत: "राष्ट्रदीप जला हेडगेवार"

(राग: देशभक्ति/भक्ति | ताल: दादरा या कीर्तन)

हेडगेवार वो तेज पवित्र,
जिनसे जागे स्वदेश का चित्र।
राष्ट्रदीप जो स्वयं जलाया,
हिन्दू हृदय में दीप समाया॥

युग ने देखा क्रांतिवीर,
बाल तिलक का सत्य अधीर।
कोलकाता से ज्ञान लिया,
भारत माता को प्रणाम किया॥

अनुशीलन से कर्म तपाया,
अंग्रेजों को ललकार सुनाया।
सबको स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया,
संस्कृति का पथ सबसे सजाया॥

नागपुर में संघ बसाया,
हर हिन्दू को एक बताया।
जात-पांत को दूर हटाया,
शाखा से नव युग बनाया॥

सेवा, त्याग, चरित्र विशाल,
युवकों में भर दिया उबाल।
संघ बना भारत की शान,
हर दिशा में उसकी पहचान॥

दीप जलाया जो संस्कार का,
शंख बजाया हिन्दूत्व विचार का।
गोलवलकर, नाना सरीखे शिष्य,
बने पथिक राष्ट्र के भविष्य॥

न राजनीति, न मोह माया,
सिर्फ भारत माँ को पाया।
धर्म, संस्कृति, सेवा का गान,
हेडगेवार जी हैं देश के पहचान ॥

हे भारत के वंशज सुन ले,
संघ की धारा फिर से चुन ले।
हेडगेवार का भाव जगा,
राष्ट्रप्रेम में जीवन लगा॥

तेरा दिया यह दीप जलाएँ,
राष्ट्रधर्म पर सब कुछ अर्पण लाएँ।
हेडगेवार के व्रत को निभाएँ,
भारत माता को फिर से सजाएँ॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ राघवेन्द्र मिश्र 

भजन गीत: 

"योगी राज की शुभ बयार"


योगी नाम बहे पुण्य पवन,
रामभक्ति में रमा ये जीवन।
सेवा, सुरक्षा, नीति-प्रचार,
जन-जन को मिला उपकार॥

 कानून और न्याय की गाथा,
अपराधी पर चली प्रभु की बाथा।
बुलडोज़र बना धर्म का अस्त्र,
गुंडों पर चला न्याय का शस्त्र॥

 मातृ-शक्ति को दिया सम्मान,
"मिशन शक्ति" का पावन गान।
सुमंगला कन्या मुस्काई,
हर थाने में नारी राह पाई॥

किसान को दी निधि सम्मान,
कर्ज माफी से खिला किसान।
नहरों से जल बहाया,
फसल बीमा से हक दिलाया॥

अभ्युदय ज्ञान की रचना,
मुफ्त कोचिंग से बढ़ी रमना।
युवाओं को मिला रोजगार,
मुद्रा और स्टार्टअप उपहार॥

स्किल से संजीवनी आई,
कुम्भ से पहचान बनाई।
उद्योगों का लगा मेला,
यूपी बना निवेश का रेला॥

कोरोना में न डगमगाया,
टीका, राशन सबको पहुँचाया।
मजदूरों को घर लाया,
सेवा का इतिहास रचाया॥

अयोध्या में दीप जले,
रामलला के चरण खिले।
काशी में कॉरिडोर सजा,
धर्म नगरी नव यश गजा॥

आवास दिया, जल पहुँचाया,
हर गाँव में दीप जलाया।
सड़क, बिजली बना सहारा,
गावों ने भी पहना उजियारा॥

हर थाने में जनता की सुनवाई,
सीएम हेल्पलाइन ने पीड़ा मिटाई।
ई-सेवा बनी सुलभ अधिकार,
योगी राज ने बदले विचार॥

योगी तेरा नीति महान,
रामराज्य की करे पहचान।
सेवा में जो सच्चा हो ,
वो ही जनप्रिय अच्छा हो॥

रामभक्ति में कर्म समर्पित,
जनसेवा में जीवन अर्पित।
भारत माँ का सच्चा लाल,
योगी जी हो देश के भाल॥

@Dr.Raghavendra Mishra 

डॉ राघवेन्द्र मिश्र 

भजन गीत: मोदी युग की गाथा

मोदी नाम बड़ भाग से पाया,
जन-जन का हित जिसने भाया।
दस बरस की कर्म गाथा,
भारत माँ पर न्योछावर छाया 

जन-धन खाता सबने पाया,
गरीब जन को बैंक पहुँचाया।
उज्ज्वला से रसोई जली,
माँ-बहनों ने राहत पाई॥

शौचालय से लाज बचाई,
स्वच्छता की ज्योति जगाई।
हर घर को अब मिलती छाया,
आवास योजना का फल लाया॥

किसानों को सम्मान निधि,
हर खेत पहुँची नयी विधि।
नीम-कोटेड खाद सुहाई,
ई-नाम से मंडी सजाई॥

बेटी बचाओ, पढ़ाओ प्यारी,
सुकन्या में बचत सन्चारी।
मातृत्व वंदना बनी सहारा,
नारी को भी मिला उजियारा॥

मुद्रा से रोजगार मिला,
स्टार्टअप से जोश खिला।
स्किल इंडिया से जागा विश्वास,
युवाओं में संजीवनी श्वास॥

डिजिटल भारत तेज़ विचार,
UPI से सरल व्यापार।
GST से एक राह बनाई,
पूरे भारत की गति बढ़ाई॥

कोरोना में सेवा भारी,
टीकाकरण में ना थी देरी।
अन्न योजना भूख मिटाई,
गरीबों की थाली सजाई॥

रेल, सड़क और नयी उड़ान,
बुलेट ट्रेन बनी पहचान।
वंदे भारत की गति अपार,
नव निर्माण का हुआ विस्तार॥

"वोकल फॉर लोकल" की पुकार,
आत्मनिर्भर भारत की धार।
मेक इन इंडिया का राग सुनाया,
विश्व मंच पर नाम कमाया॥

जन-जन की सेवा में जो लगा,
वो सच्चा योगी, तप में रमा।
जय हो उसकी नीति-नैतिकता,
मोदी जी कभी झुका न टिका॥

सेवा, संकल्प, शक्ति और ज्ञान,
मोदी युग है भारत की शान।
जन-मन-गण में गूँजे स्वर,
भारत बने विश्व में अग्रसर॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भजन गीत: "सेवा में समर्पित, राष्ट्र का उद्धार"

मोदी नाम बड़ भाग्य से पाया,

जन-जन का हित जिसको भाया।

दस बरस में कर्म की गाथा,

भारत माँ पर न्योछावर पाया॥

जन-धन खाता सबने पाया,
गरीब जन को बैंक पहुँचाया।
उज्ज्वला से रसोई जली,
माँ-बहने राहत से पली॥

शौचालय से लाज बचाई,
स्वच्छ भारत की ज्योति जगाई।
हर घर को अब मिलती छाया,
आवास योजना सजी सजाया॥

किसानों को सम्मान निधि,
हर खेत तक पहुँची नयी विधि।
नीम कोटेड खाद बनी प्यारी,
ई-नाम से मंडी सुधारी॥

बेटी बचाओ, पढ़ाओ सबको,
सुकन्या में बचत भरो नभको।
मातृ-वंदना से ममता पाई,
नारी को अब शक्ति दिखाई॥

मुद्रा से रोजगार मिला,
स्टार्टअप से विचार खिला।
स्किल इंडिया से हौंसला जागा,
युवाओं को फिर अपना लागा॥

डिजिटल भारत, तेज़ विचार,
UPI से हो रहा व्यापार।
GST ने एक राह दिखाया,
सारा भारत साथ निभाया॥

कोरोना में सेवा भारी,
टीकाकरण में कोई न हारी।
अन्न योजना से भूख मिटाई,
गरीबों की हर थाली सजाई॥

रेल, सड़क, उड़ान नयी,
बुलेट ट्रेन की बहार रही।
वंदे भारत की रफ्तार तेज़,
अब बढ़ा है भारत का मेज॥

आत्मनिर्भर बनो पुकार,
"वोकल फॉर लोकल" का उपकार।
मेक इन इंडिया का ये राग,
विश्व में छा गया भारत आज॥

जन-जन की सेवा में जो लगा,
वो सच्चा योगी, कर्मयोग जगा।
जय हो उसकी नीत नैतिकता,
मोदी जी के आगे कोई न टिकता॥

@Dr. Raghavendra Mishra 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 

भजन:

  जो राम का नहीं, वह किसी काम का नहीं l        जो कृष्ण का नहीं, वह किसान का नहीं।


जो राम का नहीं, वह किसी काम का नहीं,
जो कृष्ण का नहीं, वह किसान का नहीं।
राम बिना रस्ता नहीं, कृष्ण बिना धीरज नहीं,
इनके नाम से ही बनता, जीवन का नीरज सही।
जो राम का नहीं, वह किसी काम का नहीं,
जो कृष्ण का नहीं, वह किसान का नहीं।

राम हैं रघुकुल के ताज, त्याग, धर्म का राज,
उनकी मर्यादा में छुपा, जीवन का साज।
सीता की रक्षा कर, दिया दुनिया को ज्ञान,
ऐसे राम को छोड़ के, किसे कहे इंसान ।।

कृष्ण हैं ग्वालों के प्यारे, रण के रणधीर,
बांसुरी से लुभाएं, गीता से करें गम्भीर।
कृषकों के हित में जिनका, हर कार्य हुआ महान,
कृष्ण बिना खेती अधूरी, सूना ये खेत-खलिहान।

राम हैं मंदिर का दीपक, कृष्ण हैं खेतों का पानी,
इनके बिना अधूरी, हर भारत की कहानी।
राम से घर में उजियारा, कृष्ण से जीवन गान,
इनके बिना संस्कृति बिन सुर, बिन रंग, बिन जान।

जो राम को नहीं माने, वो भटके हर मोड़,
जो कृष्ण को नहीं माने, उसका सुख का हो तोड़।
राम-कृष्ण में ही बसी, भारत की पहचान,
इनके नाम से महके, धरती और आसमान।

चलो गाओ राम नाम, बोलो जय श्रीकृष्ण,
हर दिल में हो भक्ति, हो प्रेम का रत्न।
राम-कृष्ण की भक्ति से, मिटे हर अज्ञान,
भारत बने विश्वगुरु, यही हो हमारा प्रयत्न।

जो राम का नहीं, वह किसी काम का नहीं,
जो कृष्ण का नहीं, वह किसान का नहीं।

@Dr. Raghavendra Mishra 


"जो राम का नहीं, वह किसी काम का नहीं"
"जो कृष्ण का नहीं, वह किसान का नहीं"

 राम-कृष्ण ही आधार है

जो राम का नहीं, वह किसी काम का नहीं,
बिन राम के जीवन, बस इक नाम का नहीं।
राम नाम ही सुखधाम है, प्रभु का ही बखान,
राम बिना यह संसार, जैसे बिन प्राण।

जो कृष्ण का नहीं, वह किसान का नहीं,
धरती से प्रेम नहीं, तो अरमान का नहीं।
गोवर्धन जो उठाया, वही ग्वाला प्यारा,
कृष्ण बिना कृषक का जीवन हो न सारा।

राम हैं मर्यादा, नीति और धर्म के नायक,
कृष्ण हैं स्नेह, प्रेम, कर्म के संचायक।
इनके चरणों में ही है, सच्चा कल्याण,
इनकी भक्ति से मिटे, भवसागर की त्राण।

राम को न माने जो, वह रीते हाथ जाए,
कृष्ण को न जाने जो, वह खेत न उपजाए।
भक्ति, शक्ति, नीति, नीति, सबका यही सार,
राम-कृष्ण के नाम से, जीवन हो उद्धार।

राम नाम की लोरी में, माँ बच्चों को सुलाती,
कृष्ण कन्हैया बांसुरी, गोकुल में रास रचाती।
राम-कृष्ण का नाम लो, हो जाए सवेरा,
भक्ति भाव में डूबकर, गाओ हर पहरा।

जय श्रीराम कहो, बने काम तमाम,
जय श्रीकृष्ण बोलो, खिल उठे हर ग्राम।
यह भारत की आत्मा, यह धरती के प्राण,
राम-कृष्ण के चरणों में, सारा जहान।

@Dr. Raghavendra Mishra 


@Dr. Raghavendra Mishra 

Friday, 18 April 2025

 अध्याय 1: मीरगंज की चुप्पी


मीरगंज—नाम सुनते ही मन में एक अजीब सी ठिठकन पैदा होती है। यह कोई सामान्य कस्बा नहीं था, बल्कि समय की धूल में दबा एक ऐसा कोना, जहाँ रातें कभी पूरी तरह नहीं सोती थीं। वहाँ की गलियाँ भले ही दिन में शांत प्रतीत होतीं, पर रात के अंधेरे में उन पर अनगिनत अधूरी चीखें घूमती थीं—जैसे कोई अपने पापों को थामे छिप रहा हो।


यहीं जन्मी थी चंडाली। माँ एक वेश्यालय में काम करती थी, पिता कौन था—कभी किसी को नहीं पता चला। वह एक तंग कोठरी में पलती रही, जहाँ दीवारें दर्द को छिपाने की आदी हो चुकी थीं। पर चंडाली उस दर्द से डरने वाली नहीं थी—वह उसी से बनी थी।


बचपन से ही उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी—न मोह की, न ममता की—बल्कि जीतने की। वो जानती थी कि दुनिया उसे कभी अपनाएगी नहीं, इसलिए उसने तय किया कि वो ही दुनिया को अपने हिसाब से झुकाएगी।


शिक्षा की सीढ़ियाँ उसने चुपचाप चढ़ीं। वह होशियार थी, चालाक थी, और सबसे बढ़कर—क्रूर थी। जिसने भी उसके रास्ते में आने की कोशिश की, वो या तो गिरा दिया गया, या फिर खरीद लिया गया।


और फिर एक दिन, जब उसे मीरगंज विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया—तो लोगों ने तालियाँ तो बजाईं, पर ज़मीर काँप उठा। क्या यह वही लड़की थी जो वेश्यावृत्ति के अंधेरे से निकली थी? या यह कोई और ही रूप था—एक ऐसी राक्षसी का, जो अब समाज की रगों में ज़हर घोलने आई थी?

अध्याय 2: सत्ता की सीढ़ियाँ


चंडाली ने अपनी चालें बिछा दी थीं। विश्वविद्यालय की चारदीवारी में पाँव रखते ही वह जान चुकी थी कि यहाँ सत्ता केवल ज्ञान से नहीं, बल्कि नियंत्रण से मिलती है। उसे यह भी समझ आ गया था कि जिस संस्था को लोग "शिक्षा का मंदिर" कहते हैं, वहाँ कई दरारें थीं—दरारें, जिनमें वह अपना ज़हर भर सकती थी।


वह कुलपति बनी, तो स्वागत की महफ़िल सजी। चमचमाते कुर्ते-पायजामे, मुस्कुराते चेहरे, नकली अभिनंदन की वर्षा—सब कुछ उसके लिए था। लेकिन चंडाली जानती थी, ये सब मुखौटे हैं। और वह खुद सबसे बड़ा मुखौटा पहनकर आई थी।


कुछ ही महीनों में उसने अपने चारों ओर वफादारों का ऐसा जाल बिछा दिया, जो निष्ठा से नहीं, भय और लोभ से जुड़ा था। जिन्हें ऊँचे पद चाहिए थे, उन्हें उसने वादा दिया। जिन्हें डराना था, उन्हें वह अकेले में बुलाकर उनकी कमज़ोरियाँ याद दिलाती। एक-एक कर उसने विरोध की हर आवाज़ को या तो खरीद लिया, या मिटा दिया।


चंडाली के लिए यह संस्थान एक प्रयोगशाला था, जहाँ वह इंसान की आत्मा को धीरे-धीरे परखती, मरोड़ती और फिर कुचल देती।


कुछ छात्र-नेता उसके विरुद्ध खड़े होने की कोशिश करते, लेकिन जल्द ही या तो वे निष्कासित कर दिए जाते या उनकी छवि को मीडिया में कलंकित किया जाता। कुछ प्रोफेसर जो नैतिकता और मर्यादा की बात करते, उन्हें ‘पुराने जमाने का बोझ’ बताकर हटा दिया गया।


वह अब कुलपति नहीं, शासक बन चुकी थी।


प्रत्येक विभाग में उसका डर था। उसकी मुस्कान के पीछे एक ऐसा भय छिपा था जो सबको जकड़ चुका था। वह जानती थी कि डर सबसे बड़ा उपकरण है—प्रेम से नहीं, डर से राज किया जाता है।


परंतु उस डर के बीच भी एक कमज़ोरी थी—उसका अतीत।


रातों को जब वह अपने विशाल कमरे में अकेली होती, तो दीवारें फिर वही आवाज़ें दोहराने लगतीं—उसकी माँ की सिसकियाँ, अधूरी चीखें, और उसका स्वयं का बचपन। वह हर रात अपना चेहरा शीशे में देखती—और धीरे-धीरे उस चेहरे में किसी और की छाया दिखाई देने लगती।


उसे डर था—कहीं वह राक्षसी केवल उपाधि भर न हो, कहीं वह वास्तव में वही न बन चुकी हो, जिससे वह भाग रही थी।


अध्याय 3: संबंधों का विष-जाल


चंडाली के जीवन में संबंध कभी आत्मीयता का स्रोत नहीं रहे। वे केवल एक साधन थे—लाभ उठाने का, नियंत्रित करने का, और सबसे बढ़कर—अपने भीतर के खालीपन को ढँकने का।


कुलपति बनने के बाद वह केवल संस्था की प्रमुख नहीं थी, बल्कि पूरे समाज की 'प्रतिष्ठित' स्त्री बन चुकी थी। उसका नाम अखबारों में छपता, टीवी चैनलों पर चर्चा होती। पर उसकी असली राजनीति कैमरों के पीछे खेली जाती थी।


उसने अपने चारों ओर ऐसे पुरुषों और महिलाओं का एक "विश्वासपात्र" मंडल बना लिया था, जो या तो उसकी लिप्सा के बंदी थे, या भय के। वह अपने प्रभाव से किसी के भी मन को मोड़ सकती थी—कभी स्नेह का मुखौटा पहनकर, तो कभी क्रूर दंड का भय दिखाकर।


एक युवा प्रोफेसर, अंशुमान, उसकी विशेष रुचि का विषय बन गया था। प्रतिभाशाली, विचारशील, और नैतिक—जो चंडाली के लिए सबसे बड़ा ख़तरा था। उसने अंशुमान को रिझाने की कई बार कोशिश की—कभी पुरस्कार के बहाने, कभी शोधवृत्ति का प्रलोभन देकर।


पर अंशुमान ने विनम्र किन्तु स्पष्ट इंकार किया।


यहीं से चंडाली की क्रूरता ने एक नया रंग लिया। अंशुमान पर झूठे आरोप लगने लगे—प्रशासनिक गड़बड़ी, छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार, और यहाँ तक कि चरित्रहीनता का भी। धीरे-धीरे उसका सामाजिक जीवन टूटने लगा। वह चुपचाप सब सहता रहा, पर चंडाली के भीतर एक भय जाग उठा—क्या कोई है जो मेरे प्रभाव से अछूता है?


उसका गुस्सा अब केवल बाहरी नहीं रहा, वह अंदर भी सुलगने लगा था। वह संबंध बनाती, फिर उन्हें तोड़ देती। उसका मन अब उन लोगों से घिरता जा रहा था जिनसे उसे डर था कि वे उसे छोड़ देंगे। इसलिए वह पहले ही उन्हें छोड़ देती।


रोज़ रात को, जब वह अपनी गद्दीनुमा कुर्सी पर बैठती, तो उसे अंशुमान की मौन आँखें याद आतीं—वो आँखें जो बिना बोले सब कह गई थीं। और उन आँखों के सामने चंडाली स्वयं को नंगी पाती थी—अपनी सत्ता, शृंगार और सम्मान के पीछे छुपी हुई एक राक्षसी, जो अब स्वयं से भी डरने लगी थी।

अध्याय 4: नींव में पहली दरार


मीरगंज विश्वविद्यालय की चमकती इमारतों के नीचे अब खामोश फुसफुसाहटें गूंजने लगी थीं। अंशुमान पर लगे झूठे आरोपों ने कुछ छात्रों और शिक्षकों को भीतर ही भीतर विचलित कर दिया था। वर्षों से सहन की गई अन्याय की चुप्पियाँ अब थकने लगी थीं।


यही वह समय था जब एक नये छात्र संगठन—"प्रतिध्वनि"—ने जन्म लिया। यह संगठन चुपचाप उन सबकी आवाज़ बनने को तैयार था, जो वर्षों से चंडाली की सत्ता तले कुचले जा रहे थे। इसके पीछे कोई राजनीतिक दल नहीं था, कोई बाहरी समर्थन नहीं—केवल सत्य, और उस सत्य को बोलने की हिम्मत थी।


संगठन के पहले पोस्टर लगे:

"हम शिक्षा माँगते हैं, शोषण नहीं। हम न्याय माँगते हैं, डर नहीं।"


चंडाली ने इसे पहले तो नजरअंदाज़ किया। पर जल्द ही उसे एहसास हुआ कि यह संगठन उसके डर के किले में सेंध लगा सकता है।


प्रतिध्वनि ने प्रशासनिक भ्रष्टाचार, शोध फंड के दुरुपयोग, और अनुचित नियुक्तियों की फाइलें इकट्ठी करनी शुरू कर दीं। उन्हें चुपचाप प्रेस तक पहुँचाया गया। कुछ स्थानीय पत्रकारों ने उसे छापा भी—"कुलपति के दरबार में नैतिकता की मौत" जैसे शीर्षक से।


यह पहली बार था जब चंडाली को खुला विरोध मिला। उसका गुस्सा बेकाबू था, पर उससे बड़ा था—उसका भय।


उसे अंशुमान की याद आई, जो अब तक निलंबित जीवन जी रहा था, पर हर विरोध के पीछे उसकी परछाई अब भी जीवित थी।


चंडाली ने अब नया खेल खेला—"दया और आत्मपश्चाताप" का। उसने कैमरों के सामने एक नया चेहरा दिखाया—पछताने वाली कुलपति, सुधारवादी प्रशासक, और ‘नवाचार की समर्थक’। उसने नई योजनाएं घोषित कीं, छात्रवृत्तियाँ बाँटीं, और कुछ नये लोगों को पदों पर बैठाया।


पर यह façade बहुत देर तक नहीं टिक सका।


प्रतिध्वनि को पता था कि यह सिर्फ़ एक और छल है। और अब, वे चुप नहीं रहने वाले थे।

अध्याय 5: अतीत की राख से उठती आग


प्रतिध्वनि अब केवल एक संगठन नहीं रहा था—वह एक लहर बन चुका था। विश्वविद्यालय के गलियारों में अब डर नहीं, उम्मीद तैर रही थी। और यह उम्मीद सबसे बड़ा खतरा थी चंडाली के लिए, क्योंकि यह उसकी सत्ता की नींव हिला रही थी।


फिर एक दिन, बवंडर आया।


प्रतिध्वनि के छात्रों ने एक पुरानी रिपोर्ट जारी की—मीरगंज के वेश्यालयों की। उसमें एक नाम था—"चंडी देवी की बेटी, चंदा।" और यह नाम जुड़ा था चंडाली के असली अतीत से। कई प्रमाण पत्र, पहचान पत्र, पुराने रिकॉर्ड—सब इकट्ठा किए गए। पत्रकारों तक भेजा गया। सोशल मीडिया पर आग लग गई।


"क्या एक वेश्यालय की बेटी, जो नैतिकता की कसौटी पर स्वयं कभी खरी नहीं उतरी, आज विश्वविद्यालय की शुद्धता का निर्णय करेगी?"


विरोध अब निजी हो गया था। चंडाली की आत्मा कांप उठी।


वह जो सबसे छुपाना चाहती थी—उसका जन्म, उसकी माँ की कहानी, उसका अतीत—अब सबके सामने था। उसका चेहरा टीवी पर चमक रहा था, लेकिन अब सत्ता की नहीं, कलंक की रौशनी में।


कक्षाओं में छात्रों ने बहिष्कार किया, सेमिनारों में प्रश्न पूछे जाने लगे। वरिष्ठ प्रोफेसरों ने चुपचाप ही सही, उसका विरोध करना शुरू किया। मंत्रियों के फोन आने बंद हो गए। जिन अधिकारियों ने उसे सिर पर बैठा रखा था, वे अब उससे दूरी बना रहे थे।


और चंडाली… भीतर से टूटने लगी।


रातों को नींदें अब डरावनी हो चुकी थीं। वह बार-बार सपना देखती—खून से सने हाथ, कौओं की चोंचें, एक अंधेरे कमरे में पड़ा सड़ा हुआ शरीर, और एक लड़की जो उसे घूर रही थी… वही चंदा, उसकी पुरानी आत्मा।


अब वह खुद से भाग नहीं सकती थी। न अपने अतीत से, न अपने वर्तमान से, और न उस अंत से, जो धीरे-धीरे उसकी तरफ़ बढ़ रहा था।

अध्याय 6: अंतिम परिक्रमा


अब मीरगंज विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में सन्नाटा था—लेकिन वह सन्नाटा शांति का नहीं था, वह किसी तूफान के ठीक पहले का था।


विद्रोह अब दीवारों से टकराने लगा था।

छात्रों ने मुख्य भवन पर कब्ज़ा कर लिया था। "प्रतिध्वनि" ने ऐलान कर दिया था—जब तक चंडाली को हटाया नहीं जाएगा, तब तक कोई कक्षा नहीं लगेगी। एक स्वच्छ शैक्षणिक भविष्य की मांग अब जनांदोलन बन चुकी थी।


उधर चंडाली, जो कभी एक सजीव देवी की तरह अपने चेंबर में बैठती थी, अब उसी कमरे में कसमसाती एक टूटी हुई छाया बन चुकी थी।


वह अब कुछ नहीं खाती थी। न संवाद, न आदेश, न विरोध—कुछ भी नहीं बचा था उसके पास।

केवल वो पुराना दर्पण था, जिसमें अब वह रोज़ स्वयं को नंगी, डरावनी और अकेली देखती थी।


"क्या यही अंत था?" वह फुसफुसाई।

"क्या मैं सच में वही बन चुकी हूँ, जिससे मैं भागी थी?"


उसके सपने अब जागते में दिखते थे—अपने ही खून से सना शरीर, अपने नाखूनों से अपनी ही चमड़ी नोचती हुई, चील और कौओं से घिरी हुई...

कभी वह ज़ोर से चीख़ती, कभी हँसती। वह अब किसी को पहचान नहीं पाती थी—न कर्मचारियों को, न वफादारों को।


विश्वविद्यालय के अंदर उसका बुत अब ढहने लगा था।


एक रात, जब बाहर प्रदर्शन उफान पर था, अंदर चंडाली ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया। न कोई गार्ड, न सचिव, न वाहन—केवल वह, और उसका अतीत।


कमरे की लाइट बुझा दी गई। पर्दे खींच दिए गए।

अंतिम बार उसने अपनी पुरानी वेश्यालय वाली चप्पलें पहनीं, माँ की एक जर्जर तस्वीर को देखा, और फर्श पर लेट गई।


उसने धीरे-धीरे अपने ही शरीर को नोचना शुरू किया। वह जानती थी, अब उसे किसी और से दंड नहीं चाहिए—वह स्वयं को भक्षण करेगी।


सुबह जब दरवाज़ा तोड़ा गया, तो वहाँ केवल बदबू थी, सड़न थी, और दीवारों पर अजीब-सी लकीरें थीं—शायद खून की, शायद आत्मा की।

अध्याय 7: पुनर्जन्म की मिट्टी


वो सुबह, जब चंडाली की लाश मिली, विश्वविद्यालय में कोई शोक नहीं था। न शोक सभा, न शांति मार्च। बस एक अजीब-सी राहत थी—जैसे किसी लंबे अस्वस्थ सपने से जागा हो पूरा परिसर।


कई लोग चुप थे, पर उनके चेहरे पर संतोष था।


"अब कुछ नया शुरू होगा..." यह भावना हवा में तैर रही थी।


प्रतिध्वनि के नेतृत्व में विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों ने एक संकल्प सभा बुलाई।

जहाँ कभी डर बोला करता था, अब वहां आत्मसम्मान बोल रहा था।


अंशुमान—जो अब बहाल हो चुका था—ने सभा में कहा:

"हमने केवल एक तानाशाह को नहीं हटाया है, हमने अपने भीतर के डर को हराया है। शिक्षा तभी पवित्र होती है, जब उसमें स्वतंत्रता, संवाद और सत्य हो।"


सभा में नारे नहीं थे, केवल मौन और वचन था।


धीरे-धीरे विश्वविद्यालय की दीवारों पर नए रंग चढ़ाए गए। उन कमरों को, जहाँ अन्याय के आदेश दिए गए थे, अब शोध और नवाचार के केंद्र में बदला गया। नई नीति बनी—“कोई भी अतीत से भाग नहीं सकता, पर शिक्षा के माध्यम से हर आत्मा का पुनर्जन्म संभव है।”


चंडाली का नाम इतिहास में नहीं मिटाया गया, लेकिन उसे "भूल का प्रतीक" मानकर उसकी स्मृति पर एक पत्थर लगाया गया:


"यहाँ वह सोई है, जिसने सत्ता के मद में आत्मा को खो दिया।

यह चेतावनी है—सत्ता के पथ पर भी संयम जरूरी है।"




उपन्यास का अंतिम वाक्य:


"मीरगंज की राख से एक नई शिक्षा की अग्नि जली,

और चंडाली की कहानी, एक अंत नहीं—बल्कि एक सीख बन गई।"


@Dr.Raghavendra Mishra 

 उपन्यास: मीरगंज की राक्षसी


अध्यक्ष 1: खौफ का साया


चंडाली ने मीरगंज विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में पदार्पण किया। उसके चेहरे पर मासूमियत का नकाब था, लेकिन भीतर एक राक्षसी शक्ति छिपी हुई थी। उसकी पूरी राजनीति सबको डराकर और हेरा-फेरी करके सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने की थी। वह सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकती थी।


जब वह विश्वविद्यालय में आई, तो सभी ने उसे एक नई उम्मीद के रूप में देखा। लेकिन धीरे-धीरे उसकी असलियत सामने आने लगी। छात्रों और शिक्षकों को एहसास हुआ कि उसके लिए सत्ता ही सब कुछ है, और उसके लिए कोई भी नैतिकता मायने नहीं रखती।


अध्यक्ष 2: सत्ता की सीढ़ियाँ


चंडाली ने मीरगंज विश्वविद्यालय की चारदीवारी में पाँव रखते ही यह जान लिया था कि यहाँ पर सत्ता सिर्फ ज्ञान से नहीं, बल्कि सत्ता पर काबू पाने के हुनर से मिलती है। उसने सत्ता के गलियारों में अपनी जगह बनाई और कुलपति का पद हासिल किया।


मूल्य और नैतिकता उसके लिए कुछ नहीं थे। वह किसी भी स्तर पर जाकर अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए तैयार थी। विश्वविद्यालय में उसे एक शानदार स्वागत मिला—चमचमाते कुर्ते-पायजामे, मुस्कुराते चेहरे, नकली अभिनंदन। लेकिन चंडाली को यह सब समझ में आ गया था कि ये सब उसके मुखौटे हैं। वह सच्चाई को जान चुकी थी कि उसे सत्ता पाने के लिए और अधिक बुरे रास्ते अपनाने होंगे।


अध्यक्ष 3: संबंधों का विष-जाल


चंडाली के जीवन में संबंध कभी आत्मीयता का स्रोत नहीं रहे। वे केवल एक साधन थे—लाभ उठाने का, नियंत्रित करने का, और सबसे बढ़कर—अपने भीतर के खालीपन को ढँकने का।


वह हमेशा अपने चारों ओर ऐसे लोगों का मंडल बनाती थी, जो उसके प्रभाव में आकर उसके आदेशों का पालन करते थे। वह हमेशा किसी न किसी रूप में सबको अपनी तरफ करती थी—कभी स्नेह का मुखौटा पहनकर, तो कभी क्रूर दंड का भय दिखाकर। इस दौरान उसने विश्वविद्यालय के कई महत्वपूर्ण पदों पर अपने काबिल लोगों को बैठा लिया था, ताकि उसे चुनौती देने वाला कोई न हो।


अध्यक्ष 4: नींव में पहली दरार


मीरगंज विश्वविद्यालय के प्रशासन में अंशुमान नामक शिक्षक पर झूठे आरोप लगने लगे थे। यह आरोप चंडाली के राजनीतिक खेल का हिस्सा थे, ताकि उसे विश्वविद्यालय से बाहर किया जा सके। लेकिन यह घटना एक बड़ी गलती साबित हुई, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप छात्रों और शिक्षकों के बीच असंतोष फैलने लगा।


यही वह समय था जब "प्रतिध्वनि" नामक छात्र संगठन का जन्म हुआ। यह संगठन चुपचाप उन सबकी आवाज़ बनने को तैयार था, जो चंडाली की सत्ता के तले दबे हुए थे। यह संगठन केवल सत्य के लिए खड़ा था, बिना किसी बाहरी राजनीतिक समर्थन के। यह संगठन चंडाली के खिलाफ था, और यह जल्द ही एक ताकत बन गया।


अध्यक्ष 5: अतीत की राख से उठती आग


"प्रतिध्वनि" अब केवल एक संगठन नहीं था—वह एक आंदोलन बन चुका था। विश्वविद्यालय में अब डर नहीं, बल्कि उम्मीद का माहौल था। छात्रों और शिक्षकों ने एकजुट होकर चंडाली की सत्ता को चुनौती दी। चंडाली का अतीत, उसकी माँ की कहानी और उसका असली चेहरा अब सार्वजनिक हो चुका था।


उसका जन्म एक गरीब घर में हुआ था, और उसने एक तंगहाल जिंदगी जी थी। उसका असल रूप अब सामने आ गया था। वह सत्ता की दीवानी थी, और इसके लिए उसने कई अनैतिक रास्ते अपनाए थे। उसकी असली पहचान अब सभी के सामने थी।


अध्यक्ष 6: अंतिम परिक्रमा


मीरगंज विश्वविद्यालय में अब स्थिति गंभीर हो गई थी। छात्रों ने मुख्य भवन पर कब्जा कर लिया था और "प्रतिध्वनि" ने ऐलान कर दिया था कि जब तक चंडाली को हटाया नहीं जाएगा, तब तक कोई कक्षा नहीं चलेगी। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का माहौल अब पूरी तरह से बदल चुका था।


चंडाली को एहसास हुआ कि उसकी सत्ता अब समाप्त होने वाली है। उसका साम्राज्य एक तूफान की चपेट में आ चुका था। वह चुपचाप अपनी हार को स्वीकार करने के बजाय, सभी विरोधियों को खत्म करने के उपाय तलाशने लगी। लेकिन छात्रों और शिक्षकों का आंदोलन अब उसकी पकड़ से बाहर हो चुका था।


अध्यक्ष 7: पुनर्जन्म की मिट्टी


वो सुबह, जब चंडाली की लाश मिली, विश्वविद्यालय में कोई शोक नहीं था। कोई शोक सभा नहीं आयोजित की गई, कोई शांति मार्च नहीं हुआ। विश्वविद्यालय के हर कोने में एक अजीब-सी राहत महसूस हो रही थी—जैसे किसी लंबे अस्वस्थ सपने से जागा हो पूरा परिसर।


"अब कुछ नया शुरू होगा..." यह भावना हवा में तैर रही थी। चंडाली का नाम इतिहास में नहीं मिटाया गया, लेकिन उसकी स्मृति को एक चेतावनी के रूप में दर्ज किया गया।


उसकी मृत्यु के बाद, मीरगंज विश्वविद्यालय में एक नई शुरुआत हुई। अब यहाँ सिर्फ ज्ञान, मूल्य और नैतिकता का महत्व था। चंडाली का नाम अब "भूल का प्रतीक" बनकर इतिहास में दर्ज हो चुका था, ताकि भविष्य में कोई भी सत्ता के मद में डूबकर ऐसा न करे।


@Dr Raghavendra Mishra 

Wednesday, 16 April 2025

 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र

भजन / गीत:
*"अवधी बोली गाइए, गौरव की ये गाथा है"*

अवधी बोली गाइए, गौरव की ये गाथा है।
भारत माँ के मन की भाषा, संतों से इसका नाता है॥
इंडो-आर्यन की संतान, पूर्वी
हिंदी शाखा से,
अपभ्रंश की कोख से आई, संस्कारों की राखा से।
ब्रज-भोजपुरी बहिनी जैसी, मधुर सुरों की थाती है,
लखनऊ से फैजाबाद तक, अमेठी इसकी साथी है॥
अवधी बोली गाइए...

रामचरित का रूप बनी जब तुलसी गुन गाते हैं,
मन के मानस में प्रभु श्रीराम चिरंजीवी आते हैं l
पद्मावत गाथा प्रेम भरी, जायसी ने जब गाई,
कबीर, रविदास की वाणी भी, अवधी में लहराई।
धरती पर अवतार बनी, जब लोकभक्ति में झाँके,
बोल बिरज की रचना करती, रामलला मुस्काए॥
अवधी बोली गाइए...

राज-रजवाड़े बदले लेकिन भाषा रही पुकार,
अंग्रेज़ी-उर्दू आईं, फिर भी रही यह सरकार l
गाँव-नगर में रामलीला, नाच बनके आती,
बिरहा, कहरवा, आल्हा में, क्रांति कथा कहके जाती।
1857 में रणभेरी, जब अवध ने बजवाई,
शब्द-शब्द में तलवारें थीं, जब भाषा ने लड़ाई॥
अवधी बोली गाइए...

रेडियो हो या मंच कोई, अवधी अब भी बोले,
नंदलाल से मालिनी तक, शब्द सदा रस घोले॥
आज यूट्यूब पे गीत बजे हैं, भक्ति के संसार में,
भोजन, परिधान, त्योहारों तक, अवधी है व्यवहार में।
‘हमरे’, ‘तोहरे’, ‘मनवा’, ‘जियरा’ – स्नेह भरे सब बोल,
देवनागरी में लिपिबद्ध है, यह वचन अनमोल॥
अवधी बोली गाइए...

मांग करें अब संविधान से, स्थान मिले अधिकार का,
जो भाषा बाँचें रामचरित, क्यों न हो श्रृंगार का॥

संस्कृति की सजीव शिखा है, तुलसी की अभिलाषा है,

संतों, वीरों, कवियों की ये, मातृभाषा-भाषा है।
आओ गाएं, भाव जगाएं, जन-जन में नव ज्योति,
अवधी बोले विश्व कहे – ये भारत की सच्ची मोती॥
अवधी बोली गाइए, गौरव की ये गाथा है।
भारत माँ के मन की भाषा, संतों से इसका नाता है॥

@Dr. Raghavendra Mishra

 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र

भजन शीर्षक:
*“जय अवध नगरी की महिमा न्यारी”*

जय अवध नगरी की महिमा न्यारी,
शूरों की धरती, संस्कृतिमयी प्यारी।
अकबर के शासन में बना सूबा,
मुगल दरबार से पाया रूप नया भारी।

सआदत अली ने सौंपी थी कमान,
लखनऊ, तिलोई – किया सबके मान।
फैजाबाद बसी राजधानी,
जनता में छायी सुख की कहानी।

सफ़दर जंग लाए विस्तार का दौर,
अयोध्या से फैजाबाद, बढ़े प्रभु की ओर।
चुनार-रोहतास के किलों को पाया,
मराठों से मित्रता का दीप जलाया।

जब दिल्ली का सिंहासन डोला,
अवध ने sovereignty को फिर से बोला।
इलाहाबाद भी हुआ अंग अवध का,
जय अवध! गूंजा ये जयघोष हर द्वार का।

शुजा-उद-दौला ने वज़ीरी संभाली,
शाह आलम संग खड़ी थी ये सवारी।
बक्सर की धरती पर लड़ी आखिरी बाज़ी,
फिर भी अवध रही कभी ना आज़ादी से खाली।

जब उठा स्वराज का पहला बिगुल,
अवध बना क्रांति का पहला मुकाम सफल।
लखनऊ की रेजीडेंसी काँपी थी भारी,
वीरों ने जान दी – पर हार ना मानी प्यारी।

जय अवध नगरी, संस्कृति की खान,
धरोहर तेरी, मिटे ना पहचान।
इतिहास तेरा बोले हर ज़ुबान,
तू ही हो भारत की अमर शान।

@Dr. Raghavendra Mishra

 लेखक 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र

गीत/भजन

"जय जय सुलतानपुर धाम"

जय जय सुलतानपुर धाम,
ऋषियों की यह पुण्य भूमि, यशवंत, गौरव गान।
वाल्मीकि-दुर्वासा वशिष्ठ, तप से किया निर्माण।
जय जय सुलतानपुर धाम...॥

गौरवशाली अतीत रहा, यह भूमि वीरों की,
हर कोना गूंजे गाथा, आत्मबल की धीरों की।
बचगोटीस, रजवाड़े, राजवंशों का स्थान,
दियरा, अमेठी, कुरवार, जिनकी गाथा महान॥
राज साह की वंशज रेखा, गूंजे इतिहास में नाम,
जय जय सुलतानपुर धाम...॥

ठकुराईन दारियाव कुंवर, नारी शक्ति की मिसाल,
कष्टों में भी वीरांगना, बढ़ाया कुल का भाल।
रुस्तम साह का तेज अनोखा, रण में जो चमका,
ब्रिटिश राज के दौर में भी, धीरज से न झुका॥
शौर्य, नीति, बलिदान का, जीवंत हुआ प्रमाण,
जय जय सुलतानपुर धाम...॥

कुश-काश की भूमि यह, गोमती तट पावन,
सई, तमसा के संग बहता, पुरखों का जीवन-ध्यान।
कुशभवनपुर से सुलतानपुर तक, बदला नाम-इतिहास,
राजभरों का वैभव आज भी, गढ़ों में करे प्रकाश॥
कलामवंशी क्षत्रियों की, गूंजे यशगाथा निष्काम,
जय जय सुलतानपुर धाम...॥

1857 की क्रांति में, उठी जब चेतना ज्वाल,
किसान बने रणबांकुरे, चल पड़ा स्वतंत्रता लाल।
बाबा राम चंद्र, राम लाल, त्याग की दीपशिखा,
नेहरू जी ने जिनको माना, गौरव की परिभाषा॥
हर आंदोलन, हर रणभूमि, किया समर्पण तमाम,
जय जय सुलतानपुर धाम...॥

इतिहास साक्षी बन गाता, इस माटी की शान,
हर संतति कहे गर्व से, जय भारत, जय महान!
विरासत को जिएं नव पीढ़ी, करे नमन अविराम,
जय जय सुलतानपुर धाम...॥
जय जय सुलतानपुर धाम...॥

@Dr. Raghavendra Mishra

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, BSVN नोएडा 


भजन/गीत 


*श्रुति-स्मृति की अमर वाणी*



श्रुति की वाणी अनादि है, वेदों की ज्ञान गाथा,

ईश्वर की वह प्रेरणा, अमृत जैसी बाता।

संहिता, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषदों का गान,

ऋषियों ने पाया ध्यान में, यह दिव्य वरदान।

(श्रुति अमर है, न बदले कभी,

ज्ञान का वह शाश्वत स्वर है अभी...)



आयुर्वेद से जीवन सुधरे, धनुर्वेद रक्षक बना,

गान्धर्व वेद से राग जागे, अर्थशास्त्र नीति सना।

उपवेदों में छुपा हुआ, जीवन का सार पुराना,

श्रुति से निखरे आत्मा, मिटे हर मोह का जूराना।


अब सुन स्मृति की मधुर बानी, यादों में संजोई ज्ञान,

मनु स्मृति से नीति सीखे, पराशर का धर्म विधान।

याज्ञवल्क्य ने जो बताया, युगों तक अमर विचार,

स्मृति बदले समय अनुसार, पर भाव रहे सत्कार।


रामायण-महाभारत की गाथा,

इतिहास बना दिव्य वृथा।

गीता का वह उपदेश अमर,

कर्म और ज्ञान का पथ सरल।


पुराणों में कथा पुरानी,

१८ प्रमुख, उप-पुराण अनेक कहानी।

विश्व को जो दर्शन दे,

अगम-निगम का रस वो ले।


षड्दर्शन का दिव्य प्रकाश,

न्याय, सांख्य और योग विशेष।

वैशेषिक, मीमांसा ज्ञान की राह,

आत्मा को दें निर्मल आश।

(श्रुति-स्मृति का यह मिलन महान,

सनातन का है यह गूढ़ विधान...)


श्रुति की गूंज, स्मृति का ज्ञान,

संस्कृति की ये शाश्वत पहचान।

जय सनातन, जय ऋषिगण की वाणी,

भारत भूमि, ज्ञान की रानी।


@Dr. Raghavendra Mishra 


*गीत: "जागो सनातन की ज्योति बनो"*


डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 


झूठे इतिहास की छाया में, सत्य को ढँका गया, 

वेदों की वाणी को, ज्यों अंधेरे में रखा गया।

पाश्चात्य भ्रम की बिसातों पर, हमने स्वत्व खो दिया, अब उठो, पुनः चेतो, हमने भारत को फिर बो दिया।


जागो, सनातन की ज्योति बनो, विश्व शांति का संकल्प लो। भारत से फैले प्रकाश फिर से, विश्व सनातन संघ का स्वर हो।


कट्टरता की ज्वाला बुझाएं, करुणा से प्रेम बरसाएं, धर्म नहीं है व्यापार कभी, ये सत्य का दीप जलाएं। धन की अंधी दौड़ छोड़, संतोष में सुख पाएं, प्रकृति माँ की गोद में फिर, संतुलन का पथ अपनाएं।


जागो, सनातन की ज्योति बनो, ज्ञान, विज्ञान से तेज बनो। भारत हो फिर पथ-प्रदर्शक, विश्व बंधुत्व का संदेश बनो।


कपिल कपूर की सोच से, विचारकों की साधना से, हज़ारों ग्रंथों के प्रकाश में, और राष्ट्रों की यात्राओं से।

संघ बनाएं, संयुक्त राष्ट्र का विकल्प सजाएं, सनातन संस्कृति के दीप से, विश्व को फिर से जगाएं।


जागो, सनातन की ज्योति बनो, हर द्वार पर आशा बनो। भारत से हो पुनर्जागरण, विश्व में शुभ संदेश बनो।


 यही है समय, यही है घड़ी, धरा पुकारे, उठा लो छड़ी।

धर्म, करुणा, ज्ञान के साथ, चलो बनाएं नव सनातन पथ।

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र 


गीत / भजन: 

*"सनातन की वाणी, अमर कल्याणी"*



सनातन की वाणी, अमर कल्याणी,

संस्कृति की जड़ें, वेदों में समानी।

श्रुति-स्मृति की गूँज में, सजीव यह धारा,

प्रेम-करुणा-सत्य का, यही सच्चा सहारा।



हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी सबके मूल,

एक सूत्र में पिरोए, सत्य-धर्म के फूल।

अथर्ववेद से उपजे, सिंधु की मिट्टी में,

रचा गया जीवन, एकता की सृष्टि में।



वसुधैव कुटुम्बकम् की है वाणी,

सर्वे भवन्तु सुखिनः की कहानी।

एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति,

सत्य-चेतन-आनंद सदा बहती।


ऋग, यजु, साम, अथर्व में स्वर बसा,

उपनिषदों से ज्ञान का दीप जला।

पुराण, महाभारत, रामायण गाथाएं,

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को राह दिखलाएं।




वेदों की छाया, शांति की माया,

सनातन की ध्वनि, अमर मंत्र की छाया।

ना शस्त्र से, ना रण के सहारे,

शास्त्रों ने जीता जग सारा हमारे।




त्रिपिटक की वाणी, तत्त्वार्थ का दर्शन,

संगम साहित्य से निकला संयम-रस-सम्मिलन।

गुरुग्रंथ साहब, दशम ग्रंथ बांचे,

गोंड महाकाव्य से जीवन नाचे।




विश्व की सभ्यताओं में जो नहीं मिट पाई,

वो भारत की संस्कृति है – शाश्वत, परिपाई।

ऋग्वेद प्रथम ग्रंथ, छंदों का सृजन,

ज्ञान का प्रकाश, सत्य का संगम।




भारत ना भेजे सेना कभी बाहर,

विचारों से जीते, बना ज्ञान का सागर।

सनातन की चेतना है अभी भी जीवित,

विश्व के कल्याण का दीपक है दीप्त।


जपो 'सनातन', गाओ 'संस्कृति',

यह न भूले, न रुके, न झुके सृति।

भारत बने विश्वगुरु फिर से,

जग में फैले प्रेम और सत्य के किस्से।

@Dr. Raghavendra Mishra 

 डॉ. राघवेन्द्र मिश्र , BSVN, नोएडा 


*भजन*


 *"विश्व में गूँजे सनातन की बानी"*


गूँजे वेदों की वाणी, दिशा-दिशा में प्राचीनी,

सनातन की छाया, बसी विश्व भूमि में निर्मनी।


अजरबैजान में अग्नि जले, बाकू की ज्वाला कहे,

अरमेनिया के गार्नी में, सूर्य देव की सदा सवे।

इजिप्ट के कोम्बू मंदिर में, चरक, सुश्रुत का नाम,

साक्षी बने हैं शिलालेख, संस्कृति का हो अविराम।


विश्व में गूँजे सनातन की बानी,

भारत की वाणी, विश्व की कहानी।

धन्वन्तरी की औषधि पुरानी,

सब ओर फैली आयुर्वेद ज्योति रवानी।


अमेरिका की घाटियों में, ब्रह्मा-विष्णु के स्वर,

नवाडा की पर्वत-श्रृंखलाएँ, कहें सृष्टि के रहस्य अपर।

चीन की दीवारों पर, संस्कृत के अक्षर अमर,

जिनसे बोलती भारत माटी, युगों की गाथा भर।


पग-पग पर चिन्हित है यशगाथा,

सनातन की है यह अद्वितीय परिभाषा।

सेल्टिक, इंका, पैगन धारा,

सबमें झलके एक ही आशा।


ताशकंद, समरकंद की गलियों में गूंजे मन्त्र,

विलीनैस की पगान कथा में, शाश्वत धर्म का तंत्र।

कम्बोडिया, थाईलैंड, वियतनाम की मिट्टी कहे,

इंडोनेशिया के द्वीपों में, श्रीराम का भाव बहे।

श्रीलंका से स्वीडन तक जो,

गूँज रहा भारत का सजंगा।

ज्ञान, योग, शास्त्र की गंगा,

पवित्र करे युग-युग की तरंगा।

गुप्ता की पुस्तक में उभरे, हिंदु अमेरिका के स्वर,

१२वीं सदी तक बसे थे, भारतवंशी जन समर।

रोम, यूनान, हंगरी तक, संस्कृत की थी बानी,

सनातन की जड़ें फैली, जैसे गगन में रवि रश्मि वाणी।

विश्व बने सनातन धारा,

शांति, सत्य और प्रेम हमारा।

भारत बोले, विश्व बोले,

"धर्मो रक्षति रक्षितः" बोले।

@Dr. Raghavendra Mishra 

 *भजन: "विश्व में गूँजे सनातन की बानी"*

लेखक का नाम 

डॉ राघवेन्द्र मिश्र 


विश्व में गूँजे सनातन की बानी,

भारत की वाणी, विश्व की कहानी।

शांति, सत्य, प्रेम की रवानी,

धर्मो रक्षति रक्षितः की निशानी।


गूँजे वेदों की वाणी, दिशा-दिशा में प्राचीनी,

सनातन की छाया, बसी विश्व भूमि में निर्मानी।

अजरबैजान की अग्नि पुकारे, बाकू की ज्वाला कहे,

अरमेनिया का गार्नी मंदिर, सूर्य की ज्योति बहे।


इजिप्ट के कोम्बू में उभरे, चरक-सुश्रुत के नाम,

शिलालेख बने गवाही, संस्कृति का हो अविराम।

धन्वन्तरी की आयुर्वेद ज्वाला,

जग में फैली दीपक की माला l


अमेरिका की घाटियों में, गूंजे ब्रह्मा-विष्णु स्वर,

नवाडा पर्वत कहें कहानी, सृष्टि के रहस्य अपर।

चीन की दीवारों पर संस्कृत,

भारत माता की हो वो वंदित।



सेल्टिक, इंका, पैगन धारा,

सनातन की एक ही धारा।

ताशकंद, समरकंद की गली,

मंत्रों से भर दे सजीव झली।


कम्बोडिया, थाईलैंड बोले,

वियतनाम की माटी डोले।

इंडोनेशिया में राम बहे,

भक्ति की गंगा नित बहे।


श्रीलंका से स्वीडन छू जाए,

भारत का नाम गगन गाए।

ज्ञान-योग की पावन गंगा,

पवित्र करे युगों की तरंगा।



हिंदु अमेरिका के स्वर उभरे,

गुप्तों की पुस्तकें सब कहे।

रोम, यूनान, हंगरी बोले,

संस्कृति की जड़ें अमर होले।



विश्व बने सनातन धारा,

शांति, सत्य और प्रेम हमारा।

भारत बोले, विश्व बोले,

"धर्मो रक्षति रक्षितः" बोले।

@Dr. Raghavendra Mishra