Friday, 6 June 2025

रस, ध्वनि और दर्शन की त्रिवेणी: आचार्य अभिनवगुप्त का पुनरावलोकन

(आचार्य अभिनव गुप्त जी के जन्म जयंती दिवस के विशेष अवसर पर)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार), 8920597559

संविद्धामनि शांभवे विशथ चेत्कालीयमेकं      लवं सत्यं स्वयं ज्ञास्यथ...(आ. अभिनवगुप्त, तंत्रालोक, उपसंहार)

जिस सांस्कृतिक और दार्शनिक परंपरा ने "रसः ब्रह्मानन्दसहोदरः" कहकर कला को परमसत्ता के समीपस्थ अनुभव के रूप में प्रतिष्ठित किया, उस परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त का योगदान एक शिखर की भांति है — जहाँ काव्यशास्त्र, तंत्र और दर्शन का त्रिवेणी-संगम होता है।

भारतीय बौद्धिक परंपरा में लगभग 10वीं-11वीं शताब्दी के कालखंड में प्रकट हुए अभिनवगुप्त, न केवल एक शैवाचार्य थे, बल्कि एक दुर्लभ समन्वयवादी दार्शनिक, सौंदर्यशास्त्री, तांत्रिक, कवि और मनीषी भी थे। उन्होंने भरत मुनि के रस सिद्धांत और आनंदवर्धन के ध्वनि सिद्धांत को केवल व्याख्यायित नहीं किया, बल्कि उन्हें गहन आध्यात्मिक और अनुभववादी धरातल पर पुनर्परिभाषित किया।

शास्त्रीय विमर्श में अभिनवगुप्त: रस, ध्वनि और शिव

अभिनवगुप्त के अभिनवभारती में प्रतिपादित रस-चिंतन यह उद्घोष करता है कि कला मात्र मनोरंजन नहीं, अपितु 'चिति' — चेतना का विमर्श है। रस का अनुभव सहृदय को अपने लघु अहंकार से मुक्त कर ब्रह्मानंद का स्पर्श कराता है। यह एक 'चमत्कार' है — दृश्य और अनुभूति के संगम का अलौकिक क्षण।
उनकी दृष्टि में रस केवल भावात्मक प्रत्यावर्तन नहीं, बल्कि अहं-विलय और तत्त्व-दर्शन है।

इसी प्रकार, आनंदवर्धन की ध्वनि की अवधारणा को अभिनवगुप्त ने एक अत्यन्त परिष्कृत दार्शनिक रूप दिया। उन्होंने व्यंग्यार्थ को ही काव्य की आत्मा बताया और कहा कि ध्वनि के माध्यम से ही रस का प्राकट्य संभव है। उनके अनुसार काव्य एक आनुभविक साधना है, जिसमें शब्द का ध्वनि-रूप ही 'तत्त्व' तक पहुंचाता है।

शैवागम परंपरा में, विशेषतः त्रिक शैव दर्शन में, उनकी मूल भूमिका एक व्याख्याता और साधक दोनों की रही। उनके लिए शिव कोई दूरस्थ देवता नहीं, अपितु चिति स्वरूप परम चेतना हैं, जो रस और ध्वनि के अनुभव में स्वतः अभिव्यक्त होती हैं। उनका सौंदर्यशास्त्र, साधना और सृजन का ऐसा संगम है, जिसमें सहृदय और कलाकार दोनों एक तत्त्व में विलीन हो जाते हैं।

समकालीन परिप्रेक्ष्य: अभिनवगुप्त की पुनरपरीक्षा क्यों?

आज जब कला, चेतना, मीडिया, और मनोविज्ञान के क्षेत्र एक-दूसरे से संवाद कर रहे हैं, तब अभिनवगुप्त के विचारों का पुनर्पाठ अनेक नए द्वार खोलता है।

  1. तंत्रिका-विज्ञान और सौंदर्य अनुभव:
    रस-सिद्धांत में वर्णित 'चमत्कार' और 'भाव-आस्वाद' की अवस्थाएं आधुनिक neuroscience और affective psychology से जोड़ी जा सकती हैं। क्या यह 'अहं-विलय' मस्तिष्क में डोपामिन, एंडोर्फिन जैसी अंतःस्राव प्रक्रियाओं से संबंधित हो सकता है?

  2. कला-चिकित्सा और भावनात्मक बुद्धिमत्ता:
    क्या रस के माध्यम से 'catharsis' और 'empathy' को उपचारात्मक प्रक्रिया में बदला जा सकता है? क्या विद्यालयों और परामर्श में रस-सिद्धांत की शास्त्रीय संरचना उपयोगी हो सकती है?

  3. डिजिटल कला और ध्वनि-सिद्धांत:
    क्या 'ध्वनि' को आज के मल्टीमीडिया, फिल्म, AI generated art, और algorithms से जोड़ा जा सकता है? क्या डिजिटल 'प्रतीक' और 'सुझाव' भी व्यंजना के आधुनिक रूप हैं?

  4. विश्व सौंदर्यशास्त्र में संवाद:
    क्या 'रस' को एक सार्वभौमिक संवेदनात्मक भाषा माना जा सकता है, जो पश्चिमी aesthetics (जैसे Kant, Heidegger, Susan Sontag) के साथ भी संवाद कर सके?

  5. शिक्षा और सौंदर्य-संवेदना:
    जब आधुनिक शिक्षा विशुद्ध 'योग्यता' आधारित हो गई है, तब अभिनवगुप्त का सौंदर्यशास्त्र भावनात्मक चेतना और संवेदनशीलता को पुनर्स्थापित करने का साधन बन सकता है।

चिंतन के कुछ आलोचनात्मक बिंदु:

  • क्या ‘रस को ब्रह्मानंद का सहोदर’ कहकर उन्होंने कला की स्वतंत्रता को धार्मिक-आध्यात्मिक घेरे में सीमित कर दिया?
  • क्या ‘साधारणीकरण’ की अवधारणा आज की ‘व्यक्तित्व-केन्द्रित’, ‘वोक-संस्कृति’ वाली दुनिया में प्रासंगिक है?
  • क्या ध्वनि-सिद्धांत केवल 'दीक्षित सहृदयों' के लिए है? इसे लोकतांत्रिक और जन-सुलभ कैसे बनाया जाए?
  • आघात, युद्ध, सामाजिक अन्याय पर आधारित कला जो विषाद और आलोचना को जन्म देती है — क्या वह अभिनवगुप्त के 'रस' के सौंदर्य-बोध में समाहित हो सकती है?

नवदृष्टि: भविष्य की ओर

अभिनवगुप्त का पुनरावलोकन केवल अतीत की प्रतिष्ठा का स्मरण नहीं है, यह दार्शनिक नवाचार, कला की पुनर्परिभाषा, और चेतना के गहन अनुभव की पुनर्रचना है।
यह श्रद्धा नहीं, आलोचनात्मक सौंदर्य-साधना है। यह हमें बताता है कि शास्त्रीयता और समकालीनता के बीच कोई विरोध नहीं, बल्कि संवेदनशील संतुलन संभव है — जहाँ भारतीय ज्ञान परंपरा वर्तमान मानवता को भी मार्गदर्शन प्रदान कर सकती है।

अतः जिस युग में कला, चेतना और चिंतन को मात्र डेटा और ट्रेंड की दृष्टि से परखा जा रहा है, वहाँ अभिनवगुप्त हमें याद दिलाते हैं: रस ही तत्त्व है, शब्द में शिव बोलता है, कला मोक्ष का प्रवेशद्वार है।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

8920597559

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