एकात्म मानवदर्शन: भारत का आत्मस्वर
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)
अमृतकाल की देहरी पर, भारत खड़ा विराट,
दुविधा में डूबा है जग, पर दीपक बनें प्रभात।
प्रकृति सम्मत चिंतन से, सज्जित हो नवध्यान,
एकात्म दर्शन बन गया, भारत का परिमार्जन गान।।
शोषण में रत पश्चिम है, खोता चला विवेक,
भारत बोले सत्व से, मानव है सब एक।
न साम्यवाद, न पूँजीवाद, न रूखा कोई वाद,
मन, तन, आत्मा का संतुलन यही हमारा नाद।।
माटुंगा में गुंजी थी, स्वर-सरिता की लहर,
चार दिवसों में पंडित ने, खोल दिया सत्व-सागर।
22 से 25 अप्रैल, उन्नीस सौ पैंसठ की बात,
उदित हुआ चिंतन नक्षत्र, दीनदयाल का प्रकाश।।
“मैं नहीं सर्जक इसका”, बोले पावन स्वर,
“यह तो ऋषियों की विरासत, यह जाने भारत भर।”
गांव, गाय, गगन, गंगा सबमें ही आत्मा बसती,
जहाँ नदियाँ गाती जीवन, वहीं राष्ट्र की चिति हँसती।।
नर को न देखो टुकड़ों में, देखो समग्र रूप,
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सब मिलकर बने स्वरूप।
धरा, गगन, जल, वायु, अग्नि पंचतत्त्व के मेल,
इनसे ही जीवन बने, इनसे ही जीवन खेल।।
ग्राम्य चेतना भारत की, उसका मूलाधार,
गांव उठेगा तभी जगेगा, भारत का सच्चा विचार।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ पवित्र,
यही बने जीवन सूत्र, यही हो नित्य चरित्र।।
विकास का मापदंड अपना, हम स्वयं गढ़ेंगे,
दीनदयाल की वाणी में, आत्मबल संप्रेषित देंगे।
नापेगा ना हमें कोई, पश्चिमी दर्पन से,
हम ही बनें उदाहरण, अपने ही दर्शन से।।
उनके सखा नानाजी ने, दिया साधना की धार,
दीनदयाल शोध संस्थान से, किया विचार को साकार।
नीति से नीति तक पहुंचा, दर्शन का यह नाद,
भूमि पर उतरी चेतना, बनी जन-जन की बात।।
हे भारत! याद रखो यह, तुम्हारा स्वत्व महान,
एकात्म मानवदर्शन से, होय विश्वकल्याण।
राष्ट्रधर्म हो चेतना, संस्कृति हो आहार,
दीनदयाल के स्वप्न से, रचो नवसंस्कार।।
@Dr. Raghavendra Mishra JNU
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