धरती–आबा भगवान बिरसा मुंडा: एक सनातन क्रांतिकारी, समन्वयपरक और समरस संत, संस्कृति-संरक्षक और भारतमाता के वीर सपूत:
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)
जब भारत की स्वतंत्रता संग्राम की गाथा कही जाती है, तो उसमें केवल नगरों की क्रांतियाँ नहीं, अपितु गाँवों, जंगलों और पर्वतों की भीषण गर्जनाएँ भी गूँजती हैं। उन गूँजों में एक अद्वितीय और ओजस्वी स्वर है सनातन धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का। वे मात्र 25 वर्ष की आयु में वीरगति को प्राप्त हुए, किंतु इतने अल्प समय में उन्होंने आदिवासी समाज को सांस्कृतिक चेतना, धार्मिक आत्मबल और राजनीतिक स्वाभिमान से भर दिया। उनका जीवन केवल विद्रोह नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन, सनातन धर्म, अध्यात्म, सेवा और समरसता का जीवंत प्रतीक है।
इतिहास और युगपुरुष का उदय:
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को वर्तमान झारखण्ड राज्य के उलिहातु गाँव में एक मुंडा जनजातीय परिवार में हुआ। उनका जीवन अत्यंत साधारण परिस्थितियों में प्रारंभ हुआ, किंतु बाल्यकाल से ही उनमें सनातन संस्कृति और प्रकृति के प्रति प्रेम, असाधारण चेतना, जिज्ञासा और नेतृत्व की क्षमता थी। वे मिशनरी स्कूलों में भी पढ़े, किंतु जब उन्हें यह आभास हुआ कि ईसाई मिशनरी शिक्षा आदिवासियों की संस्कृति को मिटाने का प्रयास कर रही है, तो उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा को त्याग दिया और सनातन स्वदेशी चेतना को अपनाया।
धर्म और दर्शन: बिरसाइत संप्रदाय की स्थापना
बिरसा मुंडा ने ‘बिरसाइत धर्म’ की स्थापना की, जो सनातन प्राकृतिक धर्म, एकेश्वरवाद, सादा जीवन, सनातन नैतिकता, स्वच्छता, और सामाजिक समरसता पर आधारित था। उन्होंने अपने अनुयायियों को समझाया कि सनातन ईश्वर एक है, धरती माता है, पर्वत, नदी, वन ये सभी हमारे पूज्य, आराध्य और श्रद्धा के मुख्य केन्द्र हैं।
उनकी धार्मिक क्रांति ईसाई धर्मांतरण और सेमेटिक रिलिजन के विरुद्ध सनातनी आत्मगौरव का आंदोलन थी, जो धर्म को सनातन सांस्कृतिक अस्तित्व से जोड़ती थी।
संस्कृति और सभ्यता का रक्षक योद्धा:
बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को यह बताया कि उनकी अपनी सनातन संस्कृति पूर्ण और समृद्ध है, जिसे किसी बाहरी सत्ता के सामने झुकाने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने लोक-गीत, वाद्य, नृत्य, रीति-रिवाज़, वेशभूषा को गौरव का प्रतीक बताया और सनातन संस्कृति आधारित आत्मनिर्भरता की घोषणा की। उनके आंदोलन में धार्मिक भजन, लोकनृत्य और संगीतमय प्रवचन और सनातन प्राकृतिक पूजा शामिल होते थे, जिससे जनता भावनात्मक, प्राकृतिक और आत्मिक रूप से जुड़ी रहती थी।
सनातन अध्यात्म, योग और सनातन सामाजिक चेतना:
बिरसा एक संत की भाँति योगाभ्यास, उपवास, ध्यान और तप करते थे। उन्हें जनसाधारण ‘धरती आबा’ (पृथ्वी पिता) कहने लगा था। उनका आश्रम, जिसे वे ‘धार्मिक सभा’ कहते थे, एक प्रकार से सनातन सांस्कृतिक गुरुकुल और क्रांतिकारी तीर्थ बन गया था।
उनका आध्यात्मिक चिंतन, वैदिक तत्वज्ञान और लोकमानस का अद्भुत समन्वय था। वे कहते थे कि धर्म वह है, जो जनसेवा करे और अन्याय से लड़े।
क्रांति और ‘उलगुलान’ (महाविप्लव):
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1895 से 1900 तक जो क्रांति चली, उसे ‘उलगुलान’ कहा गया अर्थात् महाविप्लव। यह केवल अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध नहीं था, बल्कि सामंतवाद, ज़मींदारी, पुलिस अत्याचार और ईसाइयों के सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध भी था।
उन्होंने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्रों और आत्मबल से लड़ाई की। उनके नाम से अंग्रेज़ी सत्ता काँप उठी। “बिरसा पकड़ में आए या मरे ₹500 का इनाम” जैसे घोषणापत्र प्रकाशित हुए।
न्याय, संवैधानिक चेतना और राष्ट्रसेवा:
यद्यपि बिरसा स्वयं संविधान निर्माता नहीं थे, परंतु उनके आंदोलन से प्रेरित होकर 1908 में छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट बनाया गया, जो आदिवासियों को उनकी भूमि और अधिकार की रक्षा देता था। यह भारत के भूमि-संरक्षण कानूनों की नींव बना।
उनकी संघर्षशील चेतना आगे चलकर भारतीय संविधान में जनजातीय अधिकारों, स्वायत्त शासन और विशेष सुरक्षा प्रावधानों का कारण बनी।
सनातन प्रकृति संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन:
बिरसा मुंडा ने सिखाया कि “धरती को देवता मानो, वृक्षों को जीवन समझो, नदियों को माँ की तरह पूजो।”
उनका संपूर्ण जीवन सनातन केन्द्रित ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ का लोकदर्शन था, जो आज के युग में पर्यावरणीय संकट के समाधान के रूप में पुनः प्रासंगिक है।
राजनीति, समरसता और समाजसेवा:
बिरसा मुंडा की राजनीति वंचितों की आवाज़ थी। उन्होंने सभी प्राणियों, सभी मनुष्यों, आदिवासी, दलित, महिला, किसान, सभी के हक के लिए आवाज़ बुलंद की।
वे न किसी जाति के विरुद्ध थे, न किसी धर्म के, परंतु किसी भी प्रकार के अन्याय, अत्याचार, रिलिजन, मजहब, दीन और असमानता के कट्टर विरोधी थे।
अमरता की ओर प्रस्थान:
9 जून 1900 को रांची जेल में जहरीली साजिश के तहत उनका निधन हुआ। ब्रिटिश दस्तावेज़ों ने इसे ‘कालरा’ कहा, परंतु यह एक राजनीतिक हत्या थी।
मृत्यु के बाद भी उनका सनातन विचार, सनातन चेतना और सनातन संघर्ष जीवित रहा। आदिवासी समाज में वे ‘भगवान बिरसा’ के रूप में पूजे जाने लगे।
समकालीन महत्व और सम्मान:
भारत सरकार ने 15 नवम्बर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ घोषित किया है। रांची में बिरसा मुंडा केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिरसा जूलॉजिकल पार्क, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट तक उनके नाम से हैं।
उनके नाम पर डाक टिकट, फिल्में, शोध संस्थान स्थापित किए जा रहे हैं।
भगवान बिरसा मुंडा भारतीय इतिहास के उन विलक्षण नायकों में हैं, जिनकी स्मृति मात्र से सनातन आत्मगौरव, राष्ट्रभक्ति और सनातन संस्कृति संरक्षण की चेतना जाग्रत हो जाती है। वे भारत के सनातनी संत-योद्धा हैं जिन्होंने धर्म, संस्कृति, समाज और प्रकृति की रक्षा के लिए तप, त्याग और क्रांति का मार्ग चुना।
आज जब हम सनातन संस्कृति की रक्षा, पर्यावरण संतुलन, समाजिक समरसता और सांस्कृतिक आत्मगौरव इत्यादि की बात करते हैं, तो बिरसा मुंडा की शाश्वत जीवनगाथा हमारे लिए दीपस्तंभ बन जाती है।
@Dr. Raghavendra Mishra JNU
8920597559
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