Tuesday, 17 June 2025

त्रयी सत्य की गूंज: व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठि

(पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानवदर्शन पर आधारित काव्य प्रस्तुति)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

ना व्यक्ति अकेला, ना समाज अधूरा,
ना परम सत्य बिना पथ पूरा।
तीनों बिंदु, तीन किरणें, एक ही दीप जलाएं,
दीनदयाल के दर्शन में, मानव धर्म जगाएं।

व्यष्टि: व्यक्ति की व्याप्ति


व्यष्टि वह बीज, जहां से जीवन का वृक्ष उगे,
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा चार धुरी जहाँ सधे।
न केवल पेट की भूख बुझे, न केवल बुद्धि में ज्वार,
मानव तभी पूर्ण कहलाए, जब आत्मा हो साकार।।

शरीर माँगे रोटी, मन माँगे नेह,
बुद्धि खोजे सत्य, आत्मा चाहे गेह।
इन सबका समन्वय ही मानव का मर्म,
दीनदयाल ने कहा यही है राष्ट्रधर्म।।

समष्टि: समाज का स्वरूप

व्यष्टियाँ मिलें, बने समष्टि यह है सहजीवन राग,
जहाँ जाति, पंथ, वर्ग न बाँटे, हर कोई में अनुराग।
परिवार से समाज तक, फिर राष्ट्र बने महान,
जहाँ सबका हो उत्थान, ना हो कोई अपमान।।

समष्टि ना भीड़ का नाम है, ना केवल शक्ति का जोर,
यह संस्कृति की बँधी हुई डोर, जिसमें बहे करुणा की भोर।
दीनदयाल कहते समष्टि वह तन है, व्यष्टि उसका प्राण,
दिशा वही दे सकती है, जो हो धर्मपरायण जान।।

परमेष्ठि: परम की प्रेरणा

परमेष्ठि वह शाश्वत सत्ता, जो सबका मूल आधार,
जिससे जीवन में बँधे नीति, धर्म, विवेक और प्यार।
ना वह केवल देवालयों में, ना ग्रंथों के वचन मात्र,
वह हर आत्मा में जाग्रत हो, यही है सनातन पात्र।।

धर्म न संप्रदाय बने, ना बाँटे वह नर-नारी,
धर्म दे जीवन की दशा, जो दे सबको जिम्मेदारी।
परमेष्ठि का पथ जब दिखे, समष्टि में बहे समरसता,
और व्यष्टि हो नतमस्तक यही हो पूर्ण एकात्मता।।


तीनों धारा जब बहती संग, तब जीवन सधता है,
व्यक्ति, समाज और परमेश्वर जब मिलें तो पथ बनता है।
दीनदयाल का एकात्म गीत, न भूले भारतवासी,
यह दर्शन है पथप्रदर्शक, यह संस्कृति की संजीवनी रासी।।

चलो चलें उस राह पर, जहाँ व्यष्टि की हो गरिमा,
समष्टि में बहे सेवा, परमेष्ठि से मिले अणिमा।
भारत फिर बने विश्वगुरु, दीनदयाल की राह,
जहाँ मानव न केवल जीव, बल्कि चेतना की चाह।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

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