युगानुकूल अर्थ रचना: दीनदयाल का समरस गीत
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)
ना धन ही जीवन का अंतिम लक्ष्य, ना भूख ही अंतिम सत्य,
दीनदयाल ने कहा युग को अर्थ हो धर्ममय पथ।
न पूंजीवाद की दौड़ हो, न हो साम्यवाद की पीड़ा,
भारत को चाहिए अर्थनीति, जो संस्कृति का हो हीरा।।
युगानुकूल अर्थ-रचना हो, जो समय के संग चले,
परंतु मूल जड़ों से जुड़कर, संतुलन की भाषा कहे।
न हो विदेशी ढांचे पर आधारित, न हो अंध अनुकरण,
बल्कि स्वदेशी भावनाओं से, हो नव भारत का सर्जन।।
ग्राम हो विकास की धुरी, न हो केवल शहरों का भार,
कृषक, शिल्पी, कारीगर सबको मिले स्वाभिमान और प्यार।
स्थानीयता में हो सामर्थ्य, लघु उद्योग हों बलवान,
तब जाकर अर्थ-व्यवस्था बनेगी भारत की पहचान।।
श्रम को मिले प्रतिष्ठा, न हो हाथों का अपमान,
हर परिश्रमी जन बने वहां, स्वावलंबन का महान गान।
न सिर्फ़ लाभ हो उद्देश्य, न हो केवल उत्पादन,
धर्म हो अर्थ का नियंत्रक, यही हो नीतिपथ का निर्धारण।।
धर्म हो अर्थ का दीपक, नीति हो नैतिक छाँव,
प्रकृति के संग मैत्रीपूर्ण हो, हर विकास की नाव।
ना दोहन हो जल-जंगल का, ना विनाश हो जीवन का,
हर संसाधन में दिखे दर्शन एकात्मता के मन का।।
न मनुष्य बने बाज़ार की वस्तु, न समाज बने दास,
मानवता की हो विजय जहाँ, वहीं अर्थ का हो प्रकाश।
न हो उपभोक्तावाद का जाल, न ही संग्रह की भूख,
संयम, संतुलन और सेवा यही है जीवन का सुख।।
समाज हो सहभागी, सत्ता हो सेवक धर्मशील,
और अर्थ हो साधन, न कि साध्य यही हो लक्ष्य प्रवीण।
दीनदयाल ने यही बताया, विकास हो होश में,
न हो विस्मरण संस्कृति का, न हो पतन जोश में।।
धन हो दया का साधन, व्यापार बने समर्पण,
उद्योग हों धर्म से बँधे, श्रमिक हों आत्मार्पण।
युगानुकूल हो अर्थविचार, जो समय को साधे,
लेकिन मूल न खो दे कभी, संस्कृति को बाँधे।।
चलो उसी पथ पर अब फिर से, रचें नव संकल्प-विधान,
दीनदयाल के स्वप्नों का हो, उन्नत भारत एक महान।
जहाँ अर्थ न हो केवल अंक, बल्कि मूल्य और मान,
जहाँ हो मानव पूर्णतः समरस, और राष्ट्र सदा सृजन प्राण।।
@Dr. Raghavendra Mishra JNU
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