Tuesday, 3 June 2025

सनातन संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन की वैदिक, समन्वयपरक और सार्वकालिक जागृत चेतना 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

मातर्भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्याः अथर्ववेद का यह उद्घोष केवल एक मंत्र नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक चेतना का दर्पण है जिसने प्रकृति को न केवल पूज्य माना, बल्कि उसे जीवन का अविभाज्य अंग स्वीकार किया। आज जब संपूर्ण विश्व जलवायु संकट, जैव विविधता ह्रास और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से जूझ रहा है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी सनातन संस्कृति की उन मूल अवधारणाओं की ओर लौटें, जिनमें पर्यावरण संरक्षण को न केवल धर्म, बल्कि जीवन का अभिन्न कर्तव्य माना गया।

पंचमहाभूतों में परमात्मा रूपी प्रकृति का दर्शन:

सनातन परंपरा में सृष्टि के मूल तत्त्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को दैवत्व प्रदान किया गया। यह दर्शन भौतिकता के पार जाकर पर्यावरण को चेतन सत्ता के रूप में देखता है। ऋग्वेद में अग्नि को यज्ञ का देवता कहा गया है – "अग्निमीळे पुरोहितं", वहीं यजुर्वेद में जल को जीवनदायक और सुखप्रद घोषित किया गया"आपो हि ष्ठा मयोभुवाः"

भूमि, जिसे ‘माता’ कहा गया, उसके साथ पुत्रवत् संबंध की भावना आज के भौतिकतावादी भूमि उपयोग की प्रवृत्ति के विपरीत एक संतुलित उपयोग की शिक्षा देती है।

वृक्ष और वनस्पति: जीवन के शाश्वत स्तंभ:

सनातन धर्म में वृक्षों को केवल जीवनदायी नहीं, बल्कि देवस्वरूप माना गया। पद्मपुराण में वृक्षों की महिमा इस प्रकार वर्णित है –
"दशकूपसमावापी... दशपुत्रो समो द्रुमः स्मृतः"
अर्थात् एक वृक्ष लगाना दस पुत्रों के समान पुण्यदायक है। आज जबकि वनों की कटाई और जैव विविधता की हानि गंभीर चिंता का विषय है, उस परिस्थिति में सनातन परंपरा का यह वृक्ष-पूजन विश्व को एक स्थायी समाधान दे सकता है। यदि विश्व के सभी व्यक्ति अपने जन्मदिवस, विवाह, विभिन्न उत्सवों के उपलक्ष्य में केवल प्रतिवर्ष एक–एक वृक्ष लगाए तो पर्यावरण से संबंधित अधिकांश समस्याओं का समाधान हो जाएं।

पशु-पक्षियों से सह-अस्तित्व की समरस भावना:

सनातन संस्कृति किसी भी जीवधारी के प्रति हिंसा को अधर्म मानती है। मनुस्मृति में कहा गया –
"अहिंसा सर्वभूतानां धर्मं श्रेठ्ठतमं विदुः"
अर्थात् समस्त प्राणियों के प्रति अहिंसा ही श्रेष्ठ धर्म है।

गाय, नाग, गरुड़, वानर जैसे जीवों को देवी-देवताओं से जोड़कर उनकी रक्षा सुनिश्चित की गई। आज के संदर्भ में यह दृष्टिकोण जैव विविधता संरक्षण की नींव है।

नदियों, पर्वतों और जलस्रोतों की शाश्वत पवित्रता:

गंगा, यमुना, सरस्वती जैसी नदियाँ केवल जलधाराएँ नहीं, बल्कि जीवित देवियाँ मानी जाती हैं। ऋग्वेद कहता है –
"गङ्गे यमुने सरस्वति... शुद्धयन्तु नः",
अर्थात ये नदियाँ हमें शुद्ध करें।

प्रकृति की इस पवित्र दृष्टि ने गंगा को गटर बनने से रोका, किन्तु आधुनिकता के नाम पर हमने इन जीवनदायिनी जलधाराओं को प्रदूषण का पात्र बना डाला।

सनातन संस्कारों में पर्यावरण चेतना:

सनातन धर्म के विविध संस्कार, जैसे भूमिपूजन, हवन-यज्ञ, तर्पण, आदि के पीछे स्पष्ट पर्यावरणीय उद्देश्य निहित हैं। यज्ञों द्वारा वायुमंडल की शुद्धि, भूमि पूजन द्वारा भूमि के प्रति कृतज्ञता, और तर्पण से जल स्रोतों का आदर यह सब आधुनिक "सस्टेनेबिलिटी" का प्राचीन रूप है।

सनातन पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता:

आज जब वैश्विक समुदाय संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्यों (SDGs) की ओर देख रहा है, तब हमें यह स्मरण करना चाहिए कि सनातन संस्कृति में पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन की सोच सहस्त्रों वर्षों से जीवन का अंग रही है। यह दृष्टिकोण केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक बन सकता है।

संक्षेप में कहें तो सनातन संस्कृति प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की संस्कृति है। यहाँ पर्यावरण संरक्षण कोई अधुनातन विचार नहीं, बल्कि ‘धर्म’ का स्वरूप है। हमें केवल अपने ग्रंथों की ओर लौटने की आवश्यकता है, जहां ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों, स्मृतियों और पुराणों तक हर स्थान पर प्रकृति के प्रति श्रद्धा और संरक्षण का संकल्प रचा-बसा है।

आज आवश्यकता है इस चेतना को पुनः जागृत कर उसे नीति, शिक्षा और व्यवहार का अंग बनाया जाए। सम्पूर्ण विश्व में सनातन विकास की अर्थव्यवस्था को लागू किया जाए, जिससे विश्व का पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन हो सके। तथा संपूर्ण विश्व में सनातन प्राणिदर्शन, सनातन जीवदर्शन और सनातन मानवदर्शन समरस भाव से स्थापित हो सके। तभी हम आने वाली पीढ़ियों को एक समृद्ध, संतुलित और सुरक्षित पर्यावरण और स्वास्थ्यपरक जीवन दे सकेंगे।

@Dr. Raghavendra Mishra, JNU 


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