"एकात्म मानव दर्शन: विकास और मूल्यों के समन्वय की सनातन भारतीय दृष्टि"
लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU
(संस्कृत भाषा, IKS , सनातन संस्कृति, दर्शन एवं राष्ट्रीय विचारधारा के विद्वान)
“हम पश्चिम के अनुकरण में नहीं, अपनी आत्मा की खोज में चलें।” – पं. दीनदयाल उपाध्याय जी
जब आधुनिक विश्व विकास के नाम पर केवल भौतिक संसाधनों की अंधाधुंध दौड़ में संलग्न होकर पर्यावरणीय संकट, सामाजिक विषमता और नैतिक पतन की त्रासदियों से जूझ रहा है, तब भारत के चिंतन-दिग्दर्शक पंडित दीनदयाल उपाध्याय का प्रतिपादित ‘एकात्म मानव दर्शन’ वैश्विक विमर्श में एक नवीन, प्रासंगिक और आवश्यक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
यह दर्शन न केवल एक राजनीतिक विचार है, न ही यह किसी पश्चिमी आर्थिक ढांचे की नकल है। यह भारतीय संस्कृति की आत्मिक अंतर्दृष्टि है जो मनुष्य को केवल एक उपभोक्ता या वर्गीय इकाई न मानकर, उसे शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के समन्वय के रूप में देखती है – पूर्ण व्यक्ति, जो समाज, राष्ट्र और प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करता है।
एकात्म मानववाद की मूल चेतना
पंडित उपाध्याय ने पश्चिमी पूंजीवाद को स्वार्थपरक व्यक्तिवाद और समाजवाद को संघर्षशील वर्गवाद के रूप में देखा। दोनों ही दृष्टिकोणों में 'मनुष्य' का आत्मिक पक्ष उपेक्षित है। उन्होंने कहा —
"मानव केवल पेट भरने की मशीन नहीं है, उसमें आत्मा भी है, धर्म भी है, संस्कार भी हैं।"
इसीलिए एकात्म मानव दर्शन में अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष – चारों पुरुषार्थों को जीवन के संतुलित एवं समरस लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है।
राष्ट्र : केवल भूखंड नहीं, एक जीवंत सांस्कृतिक सत्ता
एकात्म मानववाद राष्ट्र को केवल राजनैतिक सीमाओं वाला क्षेत्रफल नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक सत्ता मानता है, जिसकी आत्मा वहां के जनमानस की श्रद्धा, परंपरा और कर्तव्यबोध में निहित है।
पंडित जी के अनुसार, भारत की सांस्कृतिक एकात्मता ही उसकी असली पहचान है – जहाँ भाषिक, धार्मिक, और सामाजिक विविधताएँ एक नदी की सहायक धाराओं की भाँति एक ही महासागर में विलीन होती हैं।
सनातन संस्कृति का एकात्मवादी दृष्टिकोण:
भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह संपूर्ण जीवन का, संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी (Integrated) है। टुकड़े-टुकड़े में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं।
पश्चिम की समस्या का मुख्य कारण उनका जीवन के संबंध में खंडशः विचार करना तथा फिर उन सबको थेगली लगाकर जोड़ने का प्रयत्न है। हम यह तो स्वीकार करते हैं कि जीवन में अनेकता अर्थात् विविधता है, किंतु उसके मूल में निहित एकता को खोज निकालने का हमने सदैव प्रयत्न किया है। यह प्रयत्न पूर्णतः वैज्ञानिक है। विज्ञानवेत्ता का प्रयत्न रहता है कि वह जगत में दिखने वाली अव्यवस्था में से व्यवस्था ढूँढ निकाले, उनके नियमों का पता लगाए, तदनुसार व्यवहार के नियम बनाए। रसायनशास्त्रियों ने संपूर्ण भौतिक जगत में से कुछ आधारभूत तत्व (Elements) ढूँढ निकाले और बताया कि सभी वस्तुएँ उनसे भी आगे गईं। उसने इन तत्वों के मूल में निहित शक्ति अर्थात् चेतना को ढूँढ निकाला। संपूर्ण जगत में चेतना का अस्तित्व है। दार्शनिक भी मूलतः वैज्ञानिक ही होते हैं। पश्चिम के दार्शनिक द्वैत तक पहुँचे। हीगेल ने थीसिस, एंटीथीसिस तथा सिनथीसिस का सिद्धांत रखा, जिसका आधार लेकर कार्ल मार्क्स ने अपना इतिहास और अर्थशास्त्र विश्लेषण प्रस्तुत किया। डार्विन ने 'मात्स्यन्याय' को ही जीवन का आधार माना। किंतु हमने संपूर्ण जीवन और उसकी मूलभूत एकता का दर्शन किया है। जो द्वैतवादी रहे, उन्होंने भी प्रकृति और पुरुष को एक-दूसरे का विरोधी अथवा परस्पर संघर्षशील न मानकर पूरक ही माना है। जीवन की विविधता अंतर्भूत एकता का आविष्कार है और इसलिए उनमें परस्परानुकूलता तथा परस्पर पूरकता है। बीच की एकता ही पेड़ के मूल, तना, शाखा, पत्ते, फूल और फल की विविध रूपों में प्रकट होती है। इन सबके रंग, रूप तथा कुछ-न-कुछ मात्रा में गुण में भी अंतर होता है। फिर भी उनके पास बीज के साथ के एकत्व के संबंध को हम सहज ही पहचान सकते हैं।
विकास की भारतीय अवधारणा
जब आधुनिक अर्थनीतियाँ विकास को केवल उपभोग और लाभ से आंकती हैं, तब यह दर्शन एक मौलिक प्रश्न उठाता है
“विकास किसका और किसके लिए?”
यहां विकास का मापदंड केवल GDP या निवेश प्रवाह नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा, सामाजिक समरसता, पर्यावरणीय संतुलन और आत्मनिर्भरता है। एकात्म मानववाद स्वदेशी अर्थनीति की संकल्पना करता है जो स्थानीय संसाधनों, परंपरागत ज्ञान और सामाजिक उत्तरदायित्व पर आधारित हो।
धर्म : केवल आस्था नहीं, आचरण का आधार
धर्म को लेकर पंडित उपाध्याय ने एक अत्यंत स्पष्ट और सुसंस्कृत परिभाषा दी —
धर्म का अर्थ पंथ नहीं, बल्कि कर्तव्य, उत्तरदायित्व और संतुलन की वह नैतिक संहिता है, जो व्यक्ति, समाज और सृष्टि के बीच सामंजस्य स्थापित करती है।
इस दर्शन में धर्म, विज्ञान या राजनीति से विरोध नहीं करता; वह उन्हें दिशाबोध प्रदान करता है।
वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता
आज भारत “विकास और विरासत” दोनों को साथ लेकर चलने की राह पर है — आत्मनिर्भर भारत, नई शिक्षा नीति, स्थानीय उत्पादों का संवर्धन, ग्राम स्वराज — ये सभी पहलें पंडित उपाध्याय के विचारों की छाया में खड़ी होती प्रतीत होती हैं।
आज की राजनीति में भी, सेवा, सांस्कृतिक जागरूकता और जनसामान्य के आत्मसम्मान की पुनः प्रतिष्ठा में यह दर्शन मौन प्रेरक बन रहा है।
वैश्विक मार्गदर्शन की भारतीय दृष्टि
आज जब मानवता अपने अस्तित्व की मूलभूत शर्तों पर पुनर्विचार कर रही है, तब भारत को चाहिए कि वह अपने मूल चिंतन-स्रोतों से जुड़े और उन्हें नवस्वरूप में विश्व के सामने प्रस्तुत करे।
‘एकात्म मानव दर्शन’ न केवल भारत की आत्मा का प्रतिबिंब है, बल्कि वह एक वैश्विक वैचारिक योगदान भी है जो संतुलित विकास, सामाजिक सौहार्द और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की प्रेरणा देता है।
आज आवश्यकता है कि शिक्षा, नीति निर्माण, प्रशासन और समाज के सभी क्षेत्रों में इस दर्शन को जीवन्त किया जाए। तभी भारत ‘विकसित राष्ट्र’ नहीं, बल्कि ‘विकासशील विश्व का नैतिक पथ-प्रदर्शक’ बन पाएगा।
लेखक परिचय:
डॉ. राघवेंद्र मिश्र
(लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU
(संस्कृत भाषा, IKS , सनातन संस्कृति, दर्शन एवं राष्ट्रीय विचारधारा के विद्वान) अकादमिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर सक्रिय टिप्पणीकार)
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