दीन दयाल उपाध्याय जी का राष्ट्रधर्म
(पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के राष्ट्रवाद की सम्यक अवधारणा पर आधारित)
डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)
भारत भूमि ना केवल धरती, है यह संस्कृति की पुकार,
यहां हर कंकर शंकर है, हर गंगा सच्चा संसार।
हमने माना धरती माता, यह है आत्मा की अभिव्यक्ति,
दीनदयाल ने बताया राष्ट्र की है यही एकता सच्ची।।
न भूगोल से, न भाषा से, न जाति, धर्म, न संप्रदाय,
राष्ट्र वही जो एकात्म भाव से, आत्मविभोर होकर दे व्यापक छाय।
संस्कृति हो जिसकी आत्मा, धर्म हो जीवन का सार,
ऐसे राष्ट्र का निर्माण करें, जिसमें हो सबका आदर अपार।
"एकात्म मानवदर्शन" कहकर, जोड़ा सबको सूत्र एक,
व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सृष्टि सबका हो समन्वय नेक।
धन न हो ध्येय अकेला, न भोग बने उद्देश्य,
कर्म-धर्म का हो आलोक, नीति से हो राष्ट्र विशेष।।
धर्म ना संप्रदाय मात्र, है कर्तव्य बोध महान,
राष्ट्रधर्म का मंत्र दिया हो सेवा, त्याग, बलिदान।
राजनीति हो पुण्य पथ, ना केवल सत्ता का व्यापार,
सिद्धांतों पर टिके कदम, न टूटे कोई सदाचार।।
समरसता का संदेश दिया, ना भेद हो न कोई विषमता,
हर मानव को मिले समानता, हर हृदय में हो आत्मीयता।
आर्थिक दृष्टि हो स्वदेशी, नीति हो शुभ भारतमातामयी,
दीनदयाल की यह विचारधारा, बन जाए राष्ट्र की अमर कथा जयी।।
जब पश्चिम जग हो चुका भ्रमित, खोज रहा विकास का सार,
भारत की सनातन दृष्टि दे रही समाधान अपार।
दीनदयाल के राष्ट्रवाद में, है केवल न भू-रचना,
यह है आत्मा, धर्म और संस्कृति की अविरल धारा-संरचना।।
चलो उसी पथ पर बढ़ें हम, जो दर्शन है दिव्य और सरल,
न हो विभाजन, न हो दंभ, हो आत्मगौरव का संबल।
राष्ट्र एक शरीर है पावन, जिसमें आत्मा संस्कृति महान,
दीनदयाल का यह राष्ट्रवाद, भारत का हो गौरवगान।।
@Dr. Raghavendra Mishra JNU
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