Friday, 20 June 2025

 

महाभारत के युद्ध पर्व में "चिड़िया की रक्षा की कथा" एक अत्यंत मार्मिक और शिक्षाप्रद उपाख्यान के रूप में आती है, जो युद्ध की विभीषिका में करुणा, धर्म और सह-अस्तित्व का गूढ़ संदेश देती है। यह कथा विशेष रूप से भीष्म पर्व या कर्ण पर्व के दौरान उद्धृत होती है, जब युद्ध अपने चरम पर होता है और चारों ओर हिंसा व्याप्त है।

चिड़िया की रक्षा की कथा: सार और विस्तार

कथानक की पृष्ठभूमि:

कुरुक्षेत्र के युद्ध के बीच जब वीरगति प्राप्त योद्धाओं की संख्या बढ़ती जा रही थी, रक्त की नदियाँ बह रही थीं, तब एक अद्भुत और मार्मिक दृश्य सामने आता है – जिसमें एक पक्षी माँ (चिड़िया) अपने अंडों की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में संघर्ष करती है।

कथा का विस्तार:

एक दिन युद्ध के दौरान जब अगला युद्ध प्रारंभ नहीं हुआ था, तभी अर्जुन अपने रथ पर युद्ध भूमि में पहुंचे। उन्होंने देखा कि युद्ध क्षेत्र के बीचों-बीच एक छोटी सी चिड़िया (या तीतर या पंखी) ने घास और मिट्टी के छोटे-छोटे तिनकों से घोंसला बनाया है। उसमें उसके कुछ अंडे रखे हुए हैं।

अर्जुन ने सोचा:

"यह घोंसला युद्ध भूमि में बना है। यहाँ अगली लड़ाई के समय तो रथ, हाथी, घोड़े, सैनिक सब दौड़ते हुए यहाँ से गुजरेंगे। तब ये अंडे कुचले जाएंगे।"

तब अर्जुन ने अपने रथचालक श्रीकृष्ण से कहा:

“माधव! इस युद्धभूमि में भी यह निरीह पक्षी अपने मातृत्व धर्म को निभा रही है। क्या हम इसके अंडों की रक्षा नहीं कर सकते?”

श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले:

“धनंजय! यह तुम्हारी करुणा और धर्मबुद्धि का प्रमाण है। यही तो धर्म है — कि युद्ध के बीच भी जो जीवन की रक्षा करे, वही सच्चा वीर है।”

रक्षा की युक्ति:

अर्जुन ने तत्काल निर्णय लिया। वह अपने दिव्यास्त्रों द्वारा उस घोंसले के चारों ओर एक अदृश्य रक्षा कवच बना देते हैं — एक ऐसा चक्रव्यूह या शक्ति-कवच — जिसमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता।

फिर भी युद्ध आरंभ होता है। हाथी, रथ, घोड़े, गदा, चक्र, अग्नि — सब कुछ उस क्षेत्र से गुजरते हैं, किन्तु जब युद्ध समाप्त होता है और सभी लौटते हैं, तब देखा जाता है कि:

 चिड़िया का घोंसला ज्यों का त्यों सुरक्षित है,
 और उसके अंडे भी सुरक्षित हैं,
और वह चिड़िया उन अंडों को से रही है।

कथा का प्रतीकात्मक अर्थ:

यह उपाख्यान केवल एक छोटी चिड़िया की रक्षा नहीं है, बल्कि महाभारत के संहारकारी युद्ध में करुणा, धर्म, मातृत्व, और संवेदना के जीवन-मूल्यों की रक्षा का प्रतीक है।

तत्व अर्थ
चिड़िया निरीह जीवन, प्रकृति, मातृत्व
अर्जुन धर्मयुक्त योद्धा
कृष्ण योगेश्वर, नीति का सार
अंडों की रक्षा जीवन-संरक्षण, धर्म के प्रति उत्तरदायित्व
अदृश्य कवच करुणा और युक्ति का मिलन

महत्त्वपूर्ण शिक्षा:

  • धर्म केवल शत्रु को मारना नहीं, बल्कि निर्दोष की रक्षा करना भी है।
  • युद्ध में भी करुणा जीवित रह सकती है।
  • एक सच्चा योद्धा वही है जो साथी के प्राणों की ही नहीं, निरीह जीवों की रक्षा भी कर सके

यह कथा कर्ण पर्व अथवा भीष्म पर्व के अंतिम भागों में आई है।

Thursday, 19 June 2025

महाभारत एक अत्यंत व्यापक और गूढ़ ग्रंथ है, जिसमें केवल कुरुक्षेत्र युद्ध ही नहीं, बल्कि धर्म, नीति, जीवनमूल्य, दर्शन, लोककथाएँ, ऐतिहासिक प्रसंग, और विविध उपदेशात्मक उपाख्यानों (Sub-stories or Sub-narratives) का भी सुंदर समावेश है। इन उपाख्यानों को संस्कृत में "उपाख्यान" कहा गया है, और ये महाभारत के अठारह पर्वों में विविध स्थानों पर अंतर्भूत हैं।

महाभारत में उपाख्यानों की संख्या:

महाभारत में बहुत ही उपाख्यान है, जिसमें नीति, धर्म, एवं शिक्षोपदेश इत्यादि का उल्लेख किया गया है। ये सभी उपाख्यान राजा, ऋषि, पशु-पक्षी, देवता आदि के माध्यम से किसी नैतिक संदेश या व्यवहारिक जीवन का मार्गदर्शन देते हैं।

प्रमुख उपाख्यानों की सूची व वर्णन

यहाँ 50 प्रमुख उपाख्यानों को उनके सारांश के साथ प्रस्तुत किया गया है। 

1. नल-दमयंती उपाख्यान (वनपर्व)

  • राजा नल और दमयंती की प्रेमकथा, दुःख, त्याग और पुनर्मिलन की गाथा।
  • नीति, प्रेम, धर्म और धैर्य का शिक्षाप्रद उपाख्यान।

2. सावित्री-सत्यवान उपाख्यान (वनपर्व)

  • सावित्री द्वारा अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस लाना।
  • पत्नी का धर्म, नारी शक्ति व दृढ़ संकल्प का आदर्श।

3. ऋष्यशृंग उपाख्यान (विष्णुपर्व / अरण्यपर्व)

  • वानप्रस्थ में पले ऋष्यशृंग को राजा ने कृत्रिम स्त्री के माध्यम से मोहित कर राजमहल लाना।
  • विषयभोग, मोह, राजनीति की सूक्ष्म चर्चा।

4. भीष्म उपदेश (शांतिपर्व)

  • मृत्युशैय्या पर पड़े भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को धर्म, राजा-नीति, शांति और मोक्ष का उपदेश।
  • यह उपाख्यान नीति-दर्शन का भंडार है।

5. शुकनास उपदेश (उद्योग पर्व)

  • विदुर के माध्यम से प्रस्तुत राजधर्म और नीति का प्रसंग।
  • शासक को धर्मपूर्वक शासन कैसे करना चाहिए, उसका विवेचन।

6. पंचतान्तरक उपाख्यान

  • पांच अलग-अलग तंत्रों की रूपरेखा बताने वाला नीति उपदेशात्मक उपाख्यान।
  • जीवन को पांच तत्वों के आधार पर समझाने की दृष्टि।

7. गंगा-जन्म उपाख्यान (आदिपर्व)

  • गंगा का पृथ्वी पर अवतरण, भागीरथ प्रयास।
  • तपस्या, प्रयत्न, एवं धर्माचरण की प्रेरणा।

8. शिव-उमा विवाह उपाख्यान (अनुशासन पर्व)

  • शिव और पार्वती के विवाह का वर्णन।
  • भक्ति, तपस्या और वैराग्य का समन्वय।

9. मत्स्योपाख्यान (वनपर्व)

  • राजा सत्यव्रत को मत्स्यरूप में भगवान विष्णु द्वारा प्रलय की चेतावनी।
  • यह पुराणों के ‘मत्स्यपुराण’ का मूल स्रोत भी है।

10. हरिश्चंद्र उपाख्यान

  • सत्य, धर्म और तपस्या के प्रतीक राजा हरिश्चंद्र की कथा।
  • महान आदर्श और कठिन परीक्षा की गाथा।

11. शिबि उपाख्यान

  • राजा शिबि द्वारा कबूतर की रक्षा हेतु स्वयं को बाज के समक्ष अर्पित करना।
  • अतिथि सत्कार, परोपकार और आत्मत्याग की भावना।

12. एकलव्य उपाख्यान (आदिपर्व)

  • निषाद पुत्र एकलव्य की गुरु भक्ति और द्रोणाचार्य को गुरुदक्षिणा।
  • जातिगत भेदभाव, गुरु-शिष्य संबंधों की आलोचनात्मक झलक।

13. विदुर नीति उपाख्यान (उद्योगपर्व)

  • विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को दिए गए नीति उपदेश।
  • आज भी प्रशासनिक और व्यक्तिगत जीवन में उपयोगी।

14. उत्तंक उपाख्यान

  • उत्तंक ऋषि और नागलोक की यात्रा।
  • तप, धैर्य और अधर्मियों से संघर्ष का रूपक।

15. अष्टावक्र उपाख्यान (शांतिपर्व)

  • विकृत शरीर वाले ब्रह्मज्ञानी ऋषि अष्टावक्र की कथा।
  • आत्मज्ञान का संदेश – शरीर नहीं, ज्ञान की प्रधानता।

16. श्रीनारायण उपाख्यान

  • श्रीकृष्ण का विष्णुरूप और योगेश्वर स्वरूप का विवेचन।
  • भक्ति और दैवी चेतना की प्रेरणा।

17. संपाती उपाख्यान

  • जटायु के भाई संपाती की कथा।
  • युद्ध में त्याग और बंधुत्व का संकेत।

18. सुदामा-कृष्ण उपाख्यान

  • मित्रता, प्रेम, और कृष्ण की करुणा का प्रतीक।
  • भक्ति और निष्काम संबंधों की महिमा।

19. कच्छप उपाख्यान

  • कच्छप रूप में विष्णु का समुद्र मंथन हेतु सहयोग।
  • सहकार्य, तपस्या और कर्म का प्रतीक।

20. सांदीपनि उपाख्यान

  • श्रीकृष्ण-बलराम की शिक्षा, गुरु सेवा।
  • शिष्य धर्म और शिक्षा के आदर्श।

21. अम्बा-अम्बिका-अम्बालिका उपाख्यान

  • तीन कन्याओं की कथा जिनसे पांडव-कौरव वंश विकसित हुआ।
  • स्त्री की नियति और पुरुष वर्चस्व की आलोचना।

22. प्रह्लाद उपाख्यान

  • हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद की विष्णु-भक्ति।
  • धर्म, भक्ति, असुरत्व पर विजय।

23. कपोत उपाख्यान (शांति पर्व)

  • कपोत-पत्नी द्वारा आग में कूदकर शिकारियों को भोजन देना।
  • त्याग, दया और आत्मदान।

24. द्रौपदी-चीरहरण उपाख्यान

  • कौरव सभा में द्रौपदी का अपमान, श्रीकृष्ण द्वारा रक्षा।
  • नारी अस्मिता और धर्म के पतन की सीमा।

25. नर-नारायण उपाख्यान

  • नर-नारायण ऋषियों की तपस्या और शिव के युद्ध का प्रसंग।

 26. मंडपिक उपाख्यान

 27. भरद्वाज उपाख्यान

 28. पराशर मत्स्य्योपाख्यान

 29. दुर्वासा-द्रौपदी उपाख्यान

 30. नारद-प्रह्लाद संवाद

 31. लोमश ऋषि उपाख्यान

 32. माण्डव्य ऋषि उपाख्यान

 33. महात्मा गालव उपाख्यान

 34. श्रीकृष्ण-रुक्मिणी विवाह उपाख्यान

 35. कच्छ-देवयानी उपाख्यान

 36. ययाति-देवयानी-शर्मिष्ठा उपाख्यान

 37. भीम-हनुमान मिलन उपाख्यान

🔹 38. अर्जुन-उलूपी उपाख्यान

🔹 39. अर्जुन-चित्रांगदा उपाख्यान

🔹 40. अर्जुन-सुभद्रा विवाह उपाख्यान

🔹 41. घटोत्कच जन्म उपाख्यान

🔹 42. बलराम तीर्थयात्रा उपाख्यान

🔹 43. कृष्ण-जरा व्याध उपाख्यान

🔹 44. वृष्णिनाश उपाख्यान

🔹 45. युधिष्ठिर-नकुल-भीम-शिव संवाद

🔹 46. नहुष-ययाति उपाख्यान

🔹 47. ब्रह्मदत्त उपाख्यान

🔹 48. गौतम-आरुंधती उपाख्यान

🔹 49. दुर्वासा-शकुनि संवाद

🔹 50. श्रीकृष्ण-गर्भसंहार उपाख्यान

महाभारत में उपाख्यान केवल कथा नहीं हैं, बल्कि यह भारत की नीतिशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र, सामाजिक जीवन, मानव-व्यवहार, स्त्री-पुरुष के दायित्व, और आध्यात्मिक मूल्य इत्यादि का दर्पण हैं।


Tuesday, 17 June 2025

 

नाट्यशास्त्र के पूर्व और पश्चात् नृत्य की भारतीय परंपराएँ: एक तुलनात्मक अध्ययन 


डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU 

यह लेख भारतीय नृत्य परंपरा के विकास को भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को आधार बनाकर दो चरणों में विश्लेषित करता है नाट्यशास्त्र के पूर्व एवं पश्चात्। वैदिक, पौराणिक, आगमिक तथा लोक परंपराओं में व्याप्त नृत्य के प्रारंभिक स्वरूपों से लेकर नाट्यशास्त्र द्वारा शास्त्रीय अनुशासन प्राप्त नृत्य संरचनाओं तक का समग्र अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यह शोध नृत्य को भारतीय ज्ञान परंपरा में आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टियों से जोड़ता है।

प्रस्तावना:
भारतीय नृत्य परंपरा, एक कला मात्र नहीं, अपितु एक जीवनशैली, धर्मानुष्ठान और सांस्कृतिक संवाद का माध्यम है। नाट्यशास्त्र की रचना ने इस परंपरा को एक शास्त्र रूप प्रदान किया, जिससे पूर्व की बिखरी हुई नृत्य परंपराएं एक संगठित और व्याख्यायित रूप में परिवर्तित हो गईं।

नाट्यशास्त्र के पूर्व की नृत्य परंपराएँ

 वैदिक और उपनिषदकालीन परंपरा
ऋग्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में नृत्य का उल्लेख यज्ञों, उत्सवों और देवताओं की आराधना के रूप में होता है। ऋग्वेद के मंत्रों में "नृत्य" शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे “नृत्यद्वाजं रथेष्ठां वृषणं हुवे”। श्वेताश्वतर उपनिषद में ईश्वर को नृत्य करते हुए मुनियों में देखा गया है  "नृत्यते मुनिः आत्मन्येव"।

 पौराणिक व आगमिक नृत्य दृष्टि
शिव के ताण्डव और पार्वती के लास्य से नृत्य के द्वैत भाव की स्थापना होती है। विष्णु के रासलीला रूप में भक्ति रस प्रधान नृत्य की कल्पना दिखाई देती है। लिंगपुराण, शिवपुराण, नारद पुराण में नृत्य को ब्रह्मांडीय ऊर्जा और धर्म का अवयव माना गया है।

 लोक परंपराएँ

भील, संथाल, गोंड, यक्षगान, छाऊ जैसे नृत्य लोक जीवन से सीधे जुड़े रहे। इनकी भाषा, संगीत, ताल, वेशभूषा और भाव प्रदर्शन स्थानीयता में निहित थी। ये नृत्य उत्सव, युद्ध, विवाह तथा देवी-देवता की पूजा से संबद्ध होते थे।

 नाट्यशास्त्र का आगमन: नृत्य की शास्त्रीय संरचना

नाट्यशास्त्र में अंगिक, वाचिक, सात्त्विक, और आहार्य अभिनय के साथ नृत्य की व्यापक परिभाषा दी गई। रस-सिद्धांत, भाव, चारी, करण, अंगहार, तथा नृत्त-नृत्य-नाट्य की स्पष्ट व्याख्या की गई। शिव के 108 करणों का उल्लेख – जो शास्त्रीय नृत्य की मूल इकाई बने।

भरतमुनि ने नृत्य को तीन भागों में विभाजित किया:

  1. नृत्त – शुद्ध गति और चालनाएँ
  2. नृत्य – भावप्रदर्शन सहित गति
  3. नाट्य – संवाद और अभिनयप्रधान नाट्य

इसके साथ ही रस सिद्धांत के आधार पर नृत्य को दर्शक के हृदय में अनुभवजगत की अनुभूति कराने वाला माध्यम माना गया।

नाट्यशास्त्र के पश्चात् विकसित नृत्य परंपराएँ

नृत्य की क्षेत्रीय शाखाएँ
नाट्यशास्त्र के पश्चात् भारत में नृत्य विभिन्न शैलियों में विभाजित होकर समृद्ध होता गया:

भरतनाट्यम् (तमिलनाडु) – मंदिर-नृत्य, देवदासी परंपरा, अभिनय और करणा प्रधान
कथक (उत्तर भारत) – कथा वाचन से उत्पन्न, दरबारी और लोक दोनों प्रभाव
ओडिसी (ओडिशा) – त्रिभंगी, चौक, जगन्नाथ मंदिर परंपरा
मणिपुरी (मणिपुर) – रासलीला आधारित, माधुर्य रस
कथकली (केरल) – वीर रस, रंगमंचीय, मुखाभिनय पर केंद्रित
कुचिपुड़ी (आंध्रप्रदेश) – नाट्य रूप में नृत्य
सत्रिया (असम) – वैष्णव भक्ति पर आधारित, शंकरदेव द्वारा प्रस्थापित

 ग्रंथ परंपरा

  • नंदिकेश्वर – अभिनयदर्पण
  • शारंगदेव – संगीतरत्नाकर
  • अभिनवगुप्त – अभिनवभारती (नाट्यशास्त्र पर टीका, रस की अनुभूति को केंद्रीय स्थान)

तुलनात्मक विश्लेषण

पक्ष नाट्यशास्त्र से पूर्व नाट्यशास्त्र के पश्चात
दृष्टिकोण धार्मिक, अनगढ़ कलात्मक, शास्त्रबद्ध
विधि लोक प्रेरित, परंपरागत अनुशासित, ग्रंथाधारित
सौंदर्यशास्त्र प्राकृतिक सांख्यिक, दार्शनिक
भाव सामूहिक आस्था व्यक्तिगत अनुभूति
प्रयोजन आराधना, अनुष्ठान सौंदर्य, संवाद, साधना

 निष्कर्ष

भारतीय नृत्य परंपरा का इतिहास केवल एक कलात्मक अनुशासन का इतिहास नहीं, बल्कि भारत के धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक चिंतन की गूढ़तम अभिव्यक्ति है। नाट्यशास्त्र ने इस परंपरा को एक शास्त्रीय आधार, तात्त्विक गहराई और सार्वकालिकता प्रदान की। यह स्पष्ट है कि नृत्य भारत में केवल देह की गति नहीं, बल्कि आत्मा की गति है "नृत्यते आत्मा प्रबुद्धः।"

ग्रंथ और संदर्भ सूची

  1. Natyashastra of Bharata, Translated by Manomohan Ghosh, Asiatic Society
  2. Abhinavabharati by Abhinavagupta
  3. Abhinaya Darpanam – Nandikeshwara
  4. Sangeet Ratnakar – Sharngadeva
  5. Kapila Vatsyayan – Traditions of Indian Classical Dance
  6. Raghavan, V. – Bharata’s Natyashastra and Its Tradition
  7. Reports and Papers from Sangeet Natak Akademi and IGNCA.                                                                                                   @Dr. Raghavendra Mishra JNU 

युगानुकूल अर्थ रचना: दीनदयाल का समरस गीत

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

ना धन ही जीवन का अंतिम लक्ष्य, ना भूख ही अंतिम सत्य,
दीनदयाल ने कहा युग को अर्थ हो धर्ममय पथ।
न पूंजीवाद की दौड़ हो, न हो साम्यवाद की पीड़ा,
भारत को चाहिए अर्थनीति, जो संस्कृति का हो हीरा।।

युगानुकूल अर्थ-रचना हो, जो समय के संग चले,
परंतु मूल जड़ों से जुड़कर, संतुलन की भाषा कहे।
न हो विदेशी ढांचे पर आधारित, न हो अंध अनुकरण,
बल्कि स्वदेशी भावनाओं से, हो नव भारत का सर्जन।।

ग्राम हो विकास की धुरी, न हो केवल शहरों का भार,
कृषक, शिल्पी, कारीगर सबको मिले स्वाभिमान और प्यार।
स्थानीयता में हो सामर्थ्य, लघु उद्योग हों बलवान,
तब जाकर अर्थ-व्यवस्था बनेगी भारत की पहचान।।

श्रम को मिले प्रतिष्ठा, न हो हाथों का अपमान,
हर परिश्रमी जन बने वहां, स्वावलंबन का महान गान।
न सिर्फ़ लाभ हो उद्देश्य, न हो केवल उत्पादन,
धर्म हो अर्थ का नियंत्रक, यही हो नीतिपथ का निर्धारण।।

धर्म हो अर्थ का दीपक, नीति हो नैतिक छाँव,
प्रकृति के संग मैत्रीपूर्ण हो, हर विकास की नाव।
ना दोहन हो जल-जंगल का, ना विनाश हो जीवन का,
हर संसाधन में दिखे दर्शन एकात्मता के मन का।।

न मनुष्य बने बाज़ार की वस्तु, न समाज बने दास,
मानवता की हो विजय जहाँ, वहीं अर्थ का हो प्रकाश।
न हो उपभोक्तावाद का जाल, न ही संग्रह की भूख,
संयम, संतुलन और सेवा यही है जीवन का सुख।।

समाज हो सहभागी, सत्ता हो सेवक धर्मशील,
और अर्थ हो साधन, न कि साध्य यही हो लक्ष्य प्रवीण।
दीनदयाल ने यही बताया, विकास हो होश में,
न हो विस्मरण संस्कृति का, न हो पतन जोश में।।

धन हो दया का साधन, व्यापार बने समर्पण,
उद्योग हों धर्म से बँधे, श्रमिक हों आत्मार्पण।
युगानुकूल हो अर्थविचार, जो समय को साधे,
लेकिन मूल न खो दे कभी, संस्कृति को बाँधे।।

चलो उसी पथ पर अब फिर से, रचें नव संकल्प-विधान,
दीनदयाल के स्वप्नों का हो, उन्नत भारत एक महान।
जहाँ अर्थ न हो केवल अंक, बल्कि मूल्य और मान,
जहाँ हो मानव पूर्णतः समरस, और राष्ट्र सदा सृजन प्राण।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

त्रयी सत्य की गूंज: व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठि

(पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानवदर्शन पर आधारित काव्य प्रस्तुति)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

ना व्यक्ति अकेला, ना समाज अधूरा,
ना परम सत्य बिना पथ पूरा।
तीनों बिंदु, तीन किरणें, एक ही दीप जलाएं,
दीनदयाल के दर्शन में, मानव धर्म जगाएं।

व्यष्टि: व्यक्ति की व्याप्ति


व्यष्टि वह बीज, जहां से जीवन का वृक्ष उगे,
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा चार धुरी जहाँ सधे।
न केवल पेट की भूख बुझे, न केवल बुद्धि में ज्वार,
मानव तभी पूर्ण कहलाए, जब आत्मा हो साकार।।

शरीर माँगे रोटी, मन माँगे नेह,
बुद्धि खोजे सत्य, आत्मा चाहे गेह।
इन सबका समन्वय ही मानव का मर्म,
दीनदयाल ने कहा यही है राष्ट्रधर्म।।

समष्टि: समाज का स्वरूप

व्यष्टियाँ मिलें, बने समष्टि यह है सहजीवन राग,
जहाँ जाति, पंथ, वर्ग न बाँटे, हर कोई में अनुराग।
परिवार से समाज तक, फिर राष्ट्र बने महान,
जहाँ सबका हो उत्थान, ना हो कोई अपमान।।

समष्टि ना भीड़ का नाम है, ना केवल शक्ति का जोर,
यह संस्कृति की बँधी हुई डोर, जिसमें बहे करुणा की भोर।
दीनदयाल कहते समष्टि वह तन है, व्यष्टि उसका प्राण,
दिशा वही दे सकती है, जो हो धर्मपरायण जान।।

परमेष्ठि: परम की प्रेरणा

परमेष्ठि वह शाश्वत सत्ता, जो सबका मूल आधार,
जिससे जीवन में बँधे नीति, धर्म, विवेक और प्यार।
ना वह केवल देवालयों में, ना ग्रंथों के वचन मात्र,
वह हर आत्मा में जाग्रत हो, यही है सनातन पात्र।।

धर्म न संप्रदाय बने, ना बाँटे वह नर-नारी,
धर्म दे जीवन की दशा, जो दे सबको जिम्मेदारी।
परमेष्ठि का पथ जब दिखे, समष्टि में बहे समरसता,
और व्यष्टि हो नतमस्तक यही हो पूर्ण एकात्मता।।


तीनों धारा जब बहती संग, तब जीवन सधता है,
व्यक्ति, समाज और परमेश्वर जब मिलें तो पथ बनता है।
दीनदयाल का एकात्म गीत, न भूले भारतवासी,
यह दर्शन है पथप्रदर्शक, यह संस्कृति की संजीवनी रासी।।

चलो चलें उस राह पर, जहाँ व्यष्टि की हो गरिमा,
समष्टि में बहे सेवा, परमेष्ठि से मिले अणिमा।
भारत फिर बने विश्वगुरु, दीनदयाल की राह,
जहाँ मानव न केवल जीव, बल्कि चेतना की चाह।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

 दीन दयाल उपाध्याय जी का राष्ट्रधर्म

(पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के राष्ट्रवाद की सम्यक अवधारणा पर आधारित)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

भारत भूमि ना केवल धरती, है यह संस्कृति की पुकार,
यहां हर कंकर शंकर है, हर गंगा सच्चा संसार।
हमने माना धरती माता, यह है आत्मा की अभिव्यक्ति,
दीनदयाल ने बताया राष्ट्र की है यही एकता सच्ची।।

न भूगोल से, न भाषा से, न जाति, धर्म, न संप्रदाय,
राष्ट्र वही जो एकात्म भाव से, आत्मविभोर होकर दे व्यापक छाय।
संस्कृति हो जिसकी आत्मा, धर्म हो जीवन का सार,
ऐसे राष्ट्र का निर्माण करें, जिसमें हो सबका आदर अपार।

"एकात्म मानवदर्शन" कहकर, जोड़ा सबको सूत्र एक,
व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सृष्टि सबका हो समन्वय नेक।
धन न हो ध्येय अकेला, न भोग बने उद्देश्य,
कर्म-धर्म का हो आलोक, नीति से हो राष्ट्र विशेष।।

धर्म ना संप्रदाय मात्र, है कर्तव्य बोध महान,
राष्ट्रधर्म का मंत्र दिया हो सेवा, त्याग, बलिदान।
राजनीति हो पुण्य पथ, ना केवल सत्ता का व्यापार,
सिद्धांतों पर टिके कदम, न टूटे कोई सदाचार।।

समरसता का संदेश दिया, ना भेद हो न कोई विषमता,
हर मानव को मिले समानता, हर हृदय में हो आत्मीयता।
आर्थिक दृष्टि हो स्वदेशी, नीति हो शुभ भारतमातामयी,
दीनदयाल की यह विचारधारा, बन जाए राष्ट्र की अमर कथा जयी।।

जब पश्चिम जग हो चुका भ्रमित, खोज रहा विकास का सार,
भारत की सनातन दृष्टि दे रही समाधान अपार।
दीनदयाल के राष्ट्रवाद में, है केवल न भू-रचना,
यह है आत्मा, धर्म और संस्कृति की अविरल धारा-संरचना।।

चलो उसी पथ पर बढ़ें हम, जो दर्शन है दिव्य और सरल,
न हो विभाजन, न हो दंभ, हो आत्मगौरव का संबल।
राष्ट्र एक शरीर है पावन, जिसमें आत्मा संस्कृति महान,
दीनदयाल का यह राष्ट्रवाद, भारत का हो गौरवगान।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

एकात्म मानवदर्शन: भारत का आत्मस्वर 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

अमृतकाल की देहरी पर, भारत खड़ा विराट,
दुविधा में डूबा है जग, पर दीपक बनें प्रभात।
प्रकृति सम्मत चिंतन से, सज्जित हो नवध्यान,
एकात्म दर्शन बन गया, भारत का परिमार्जन गान।।

शोषण में रत पश्चिम है, खोता चला विवेक,
भारत बोले सत्व से, मानव है सब एक।
न साम्यवाद, न पूँजीवाद, न रूखा कोई वाद,
मन, तन, आत्मा का संतुलन यही हमारा नाद।।

माटुंगा में गुंजी थी, स्वर-सरिता की लहर,
चार दिवसों में पंडित ने, खोल दिया सत्व-सागर।
22 से 25 अप्रैल, उन्नीस सौ पैंसठ की बात,
उदित हुआ चिंतन नक्षत्र, दीनदयाल का प्रकाश।।

“मैं नहीं सर्जक इसका”, बोले पावन स्वर,
“यह तो ऋषियों की विरासत, यह जाने भारत भर।”
गांव, गाय, गगन, गंगा सबमें ही आत्मा बसती,
जहाँ नदियाँ गाती जीवन, वहीं राष्ट्र की चिति हँसती।।

नर को न देखो टुकड़ों में, देखो समग्र रूप,
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सब मिलकर बने स्वरूप।
धरा, गगन, जल, वायु, अग्नि पंचतत्त्व के मेल,
इनसे ही जीवन बने, इनसे ही जीवन खेल।।

ग्राम्य चेतना भारत की, उसका मूलाधार,
गांव उठेगा तभी जगेगा, भारत का सच्चा विचार।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ पवित्र,
यही बने जीवन सूत्र, यही हो नित्य चरित्र।।

विकास का मापदंड अपना, हम स्वयं गढ़ेंगे,
दीनदयाल की वाणी में, आत्मबल संप्रेषित देंगे।
नापेगा ना हमें कोई, पश्चिमी दर्पन से,
हम ही बनें उदाहरण, अपने ही दर्शन से।।

उनके सखा नानाजी ने,  दिया साधना की धार,
दीनदयाल शोध संस्थान से, किया विचार को साकार।
नीति से नीति तक पहुंचा, दर्शन का यह नाद,
भूमि पर उतरी चेतना, बनी जन-जन की बात।।

हे भारत! याद रखो यह, तुम्हारा स्वत्व महान,
एकात्म मानवदर्शन से, होय विश्वकल्याण।
राष्ट्रधर्म हो चेतना, संस्कृति हो आहार,
दीनदयाल के स्वप्न से, रचो नवसंस्कार।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

Wednesday, 11 June 2025

एकादशी मोदी युग: विकास, विश्वास और भारत के नवोदय की  गाथा (2014–2025)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

यह काल केवल शासन नहीं, भारत के आत्मगौरव और आत्मनिर्भरता का नवजागरण है।

साल 2014 में जब देश ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को स्वीकार किया, तब यह महज एक सरकार का गठन नहीं था यह जन अपेक्षाओं, आकांक्षाओं और आत्मनिर्भरता के युग का सूत्रपात था। आज जब हम 2025 की दहलीज़ पर खड़े हैं, तो यह कहने में कोई संकोच नहीं कि बीते ग्यारह वर्ष भारत के सांस्कृतिक उत्थान, संरचनात्मक परिवर्तन और वैश्विक सशक्तिकरण के गवाह रहे हैं।

जनकल्याण की योजनाएँ: शासन को सेवा में बदलने की साधना

जन-धन योजना से लेकर उज्ज्वला, आयुष्मान भारत से लेकर PM-KISAN तक : मोदी सरकार की हर योजना में वंचितों को वरीयता, अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को प्राथमिकता का दर्शन रहा। 2014 में आरंभ हुई प्रधानमंत्री जन-धन योजना ने भारत को वित्तीय समावेशन में विश्वगुरु बनाया। करोड़ों गरीबों को बैंकिंग से जोड़कर ‘जमीन से जुड़े शासन’ की मिसाल कायम की गई।

स्वच्छ भारत अभियान ने देश में एक नई नागरिक चेतना का संचार किया। यह पहली बार था जब स्वच्छता को केवल सरकार नहीं, बल्कि जनांदोलन बनाया गया।

महिला सशक्तिकरण और ग्रामीण उत्थान: आत्मबल का निर्माण: 

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, मुद्रा योजना, स्टैंड अप इंडिया — ये योजनाएँ नारी को केवल उपभोगकर्ता नहीं, बल्कि निर्माता, नेतृत्वकर्ता और नवाचारकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित करती हैं। उज्ज्वला से जहां करोड़ों माताओं को धुएँ से मुक्ति मिली, वहीं मुद्रा योजना से महिला उद्यमिता को नई उड़ान मिली।

किसान और श्रमिकों के लिए समर्पित दशक

किसानों के हित में PM-KISAN, फसल बीमा योजना, किसान रेल, कृषि उड़ान जैसे अभिनव प्रयोग हुए। वहीं श्रमयोगी मानधन योजना, अटल पेंशन योजना, और सामाजिक सुरक्षा बीमा योजनाओं ने असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को सम्मान और सुरक्षा दी।

कोविड काल में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना ने 81 करोड़ से अधिक नागरिकों को भोजन की गारंटी दी — यह सरकार की संवेदनशीलता की जीवंत मिसाल थी।

शिक्षा, स्वास्थ्य और तकनीकी बुनियाद का पुनर्निर्माण

2014 से 2025 तक शिक्षा क्षेत्र में भी अभूतपूर्व क्रांति हुई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 केवल पाठ्यक्रम परिवर्तन नहीं, बल्कि संस्कृति-आधारित, मातृभाषा आधारित, कौशल उन्मुख शिक्षा क्रांति है।

आयुष्मान भारत योजना दुनिया की सबसे बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजना बनकर उभरी। 5 लाख तक की स्वास्थ्य सुविधा ने गरीबों को उपचार का अधिकार दिलाया।

डिजिटल इंडिया मिशन, CSC नेटवर्क, डिजीलॉकर, UPI जैसे नवाचारों ने शासन को डिजिटल, पारदर्शी और त्वरित बना दिया।

आत्मनिर्भर भारत: रक्षा से लेकर रेलवे तक

2014–2025 का कालखंड भारत के रक्षा आत्मनिर्भरता का भी युग है। INS विक्रांत, तेजस, ब्रह्मोस, प्रचंड हेलीकॉप्टर अब भारत रक्षा सामग्री आयातक नहीं, निर्यातक बनने की ओर बढ़ा है।

रेलवे में वंदे भारत एक्सप्रेस, गति शक्ति योजना, भारतमाला परियोजना सबने भारत की गति को, भौगोलिक और आर्थिक, दोनों रूपों में तीव्र किया।

संस्कृति और संप्रभुता का नवोदय

2019 में धारा 370 की समाप्ति और राम मंदिर निर्माण ये केवल राजनीतिक निर्णय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मा की पुकार थे। ये निर्णय भारत के संविधान, संस्कृति और एकता की बुनियाद को और प्रबल करने वाले साबित हुए।

एक भारत श्रेष्ठ भारत, हर घर तिरंगा अभियान, नया संसद भवन इन सबने भारत को उसकी संस्कारिक अस्मिता से जोड़ने का कार्य किया।

एक युगदृष्टा की सशक्त दृष्टि

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यकाल केवल प्रशासनिक उपलब्धियों का क्रम नहीं, बल्कि भारत के आत्मस्वरूप की पुनः खोज और उसे सशक्त करने की साधना है।
उन्होंने विकास को केवल GDP और Graphs तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे गांव, गरीब, गली और गगन तक पहुँचाया।

आज जब भारत अमृत काल में प्रवेश कर रहा है, तब यह विश्वास और भी दृढ़ हो चला है कि
"यह मोदी नहीं, भारत का आत्मविश्वास बोल रहा है।"

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

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ग्यारह वर्ष की योजनाएँ : मोदी युग की भारतगाथा

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

जन-जन को बैंकों से जोड़ा, शुरू हुई जन-धन की बात,
हर हाथ में खाता पहुँचा, यही है समरसता का साथ।
ये अभूतपूर्व योजना, गरीबों की मुस्कान बनी
मोदी युग की पहली सुबह में, जन-धन से बात बनी।।

स्वच्छता की शंखध्वनि जब, उठी गाँधी के नाम,
हाथों में झाड़ू थाम चले सब, हो गया देश अभिराम।

"स्वच्छ भारत" का नारा था, वो था संकल्प महान,
हर गली, हर गाँव बसा, स्वच्छता का अभिमान।।

"मेक इन इंडिया" की लहर चली, बना निर्माण का पर्व,
विदेशी पूँजी आयी बढ़कर, स्वदेशी को दिया गर्व।
उद्योगों का संजाल रचा, रोजगारों की आयी बौछार,
नवभारत ने पाया फिर से, स्वावलंबन का उपहार।।

"बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ", जब गूँजा नारा यह पावन,
लिंगानुपात में आयी सुधार, जागे जन मन भावन।
कन्यादान और उत्तम शिक्षा, सबसे बड़ा उपहार,
नवयुग की नारी बनी अब, राष्ट्र की दिशा-प्रकाशित धार।।

मुद्रा, उज्ज्वला, अटल पेंशन जनजीवन में आये रंग,
छोटे व्यापारी, माँ और वृद्ध सबके लिए बने हैं संग।
गैस चूल्हे से निकली मुस्कान, बिना गारंटी मिला व्यापार,
अवसरों की आंधी चली है, सशक्त हुआ हर परिवार।।

डिजिटल इंडिया बना इरादा, हाथों में मोबाइल शक्ति,
हर सेवा पहुँची ऑनलाइन, जुड़ गई गाँवों में 
भक्ती।

राशन, पेंशन, बैंक, इलाज सब अब मोबाइल के पास,
एक क्लिक में बसा है अब, सारा भारत ख़ास।

फसल बीमा बनी किसान की ढाल,
प्राकृतिक विपदा में भी ना हो बेहाल।
किसान सम्मान निधि से आता छह हजार का प्यार,
मोदी ने किसानों को दी, आर्थिक आत्मनिर्भरता अपार।।

आयुष्मान भारत का दीप जला, स्वास्थ्य का लाया उजियारा,
5 लाख तक की मुफ्त चिकित्सा, बना जनहित का सहारा।
गाँव-गाँव में स्वास्थ्य केंद्र, सेवा में डटे युवा,
भारत की स्वास्थ्य क्रांति में, मोदीमय भारत हुआ।।

एक देश, एक राशन कार्ड, चला जब मजदूरों के नाम,
भूखा ना रह जाए कोई, हर कोना बने सुगम धाम।
गरीब कल्याण अन्न योजना से भर गया हर थाल,
कोरोना में भी भूख से, न लड़ा कोई बाल।।

वंदे भारत, तेज गति से भागी, बनी नवभारत की रेल,
गति शक्ति से बढ़े बुनियादी ढाँचा, पुल, सड़क, सुरंग, रेल।
सेतु भारतम, स्मार्ट सिटी, भारतमाला, सागरमाला की चाल,
देश में विकास की रेल चली, और आत्मबल बना विशाल।।

धारा 370 जब हटी, जम्मू-कश्मीर ने पाया मान,
एक संविधान, एक विधान, भारत ने पाया एक गान।
रामलला का मंदिर बना, अयोध्या हुई धन्य महान,
नव निर्माण, नव संस्कृति का, प्रारंभ हुआ नव अभियान।।

हर घर नल, हर घर जल, जल जीवन का मिला समाधान,
गाँव की बहनों ने पाई, अब पानी की निज स्वतंत्रता व पहचान।
हर घर तिरंगा लहराया, एक भारत श्रेष्ठ भारत बन गया,
संस्कृति और राष्ट्रप्रेम से, देश का रोम-रोम सज गया।।

AIIMS, IIT, नव विश्वविद्यालय, बनी शिक्षा की नई बहार,
नई शिक्षा नीति से जागी, ज्ञान की नव विचारधार।
नवोदय से लेकर डिजिटल शिक्षा, हर कोना शिक्षित हुआ,
मोदी युग में ज्ञान का दीपक, देश-देशांतर तक फैला।

अमृतकाल की ओर बढ़े हैं, भारत के नव चरण,
दशकों की दूरी तय कर दी, एक युग में गिने गगन।
हर नीति, हर योजना में, दिखा भारत का स्वाभिमान,
मोदी युग ने रचा है अब, आत्मनिर्भर राष्ट्र महान।।

योजनाएँ सभी भारत विकाश की, वह हैं युगनिर्माण के शिलालेख,
हर श्रेणी, हर समाज को छूते, बने यह राष्ट्रभक्ति के रेख।
मोदी युग का गान अमर है, विकास पथ पर भारत है,

जहाँ नीति, संकल्प और सेवा तीनों मे ही महारत।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

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 धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा: सनातन क्रांति के दीपस्तंभ

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

जब जन्म हुआ अंग्रेज कांपे, वन में गूँजी वाणी,
उलिहातु की मिट्टी बोली आया सत्य प्रवाणी।
धरती–आबा, धर्म–ध्वजाधारी, तेजस्वी वरदानी,
बिरसा नाम पुकारा जग ने, बना क्रांति वाणी।।

स्वदेशी सांसों से पल–पल, बालक बना मुनि-जैसा,
मिशनरियों की छाया छोड़ी, अपनाया गीता वैसा।
धरती, जल, वन, पर्वत बोले "यह सब हमारा,
जो सिखलाए भक्ति–संघर्ष, धर्म शौर्य प्यारा।।

 बिरसाइत का धर्म दिया जो, एकेश्वर में आस्था,
न स्वर्ग की लालच में बहके, न नरक की भय व्यथा।
धरती माता, वृक्ष देवता, नदियाँ पूजन मूल,
सनातन संस्कृति का प्रहरी, बना समय का फूल।।

लोकनृत्य, झांझर, गीतों में, गूँजे समता गान,
न्याय सूर्य बन प्रकट हुए वे, मिटा अधर्म तिमिर प्राण।
साधु, योगी, नेता, क्रांतिकारी, संत भी वह,
जिसकी पदचिन्हों पर चल पथ पाए शिवत्व सह।।

उलगुलान का शंख बजाया, गरजा बनकर मेघ,
अंग्रेज़ों के तख़्त हिला दिए, बोले नवधर्म लेख।
पांच सौ के इनाम लगे थे, पकड़ो उस रणधीर को,
किंतु कहाँ बाँध पाते वे, देवत्व धारक हीर को।।

न छेड़ी जाति, न धर्म किसी का, केवल न्याय पुकारा,
भेद भाव के द्रोह जला के, समरसता है सदा हमारा।
आदिवासी, दलित, किसान हो, चाहे कोई नारी,
सबके अधिकारों का स्वर बना, क्रांति की सवारी।।

योग, उपवास, तप से साधे, शौर्य ध्यान के दीप,
गुरुकुल, आश्रम, क्रांति संस्थान, ज्ञान के जल सीप।
रांची की कारा में बुझा तन, लेकिन बुझ न सका विचार,
‘बिरसा भगवान’ बनकर गूंजे, भारत के हर द्वार।।

उनके नाम से विश्वविद्यालय, स्टेशन, पार्क, हवाई मण्डल,
उनकी स्मृति में गूँजे हर वर्ष ‘जनजातीय गौरव कमंडल’।
परिसंवाद हो या राष्ट्र धर्म हो, प्रकृति की रक्षा गाथा,
हर चिंतन में बिरसा छाएं, समरस सनातन शुभ माथा।।

हे क्रांति साधक सनातनी योद्धा, तुमको शत–शत नमन,
धरती के देव, धर्म के दीप, संस्कृति के तपस्वी जन।
आपके पदचिह्नों पर चलकर पाए दिशा भारत 
राष्ट्रधर्म, प्रकृतिपूजन, भक्ति सेवा में हो महारत।।

हे बिरसा! तू दीपस्तंभ, भारत का तेज संचार,
तेरे चरणों में वंदन कर, जागे भारत अपार।
जय धरती–आबा! जय क्रांति के भाग्य–विधाता!
जय सनातन धर्म–ध्वजाधारी, भारतमाता के दाता!!

धरती की गोद में उगा था जो वृक्ष, वो आज भी छाया देता है।
भगवान बिरसा मुंडा का नाम, युगों तक प्रेरणा देता है!

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

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धरती–आबा भगवान बिरसा मुंडा: एक सनातन क्रांतिकारी, समन्वयपरक और समरस संत, संस्कृति-संरक्षक और भारतमाता के वीर सपूत:

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र JNU (लेखक/रचनाकार)

जब भारत की स्वतंत्रता संग्राम की गाथा कही जाती है, तो उसमें केवल नगरों की क्रांतियाँ नहीं, अपितु गाँवों, जंगलों और पर्वतों की भीषण गर्जनाएँ भी गूँजती हैं। उन गूँजों में एक अद्वितीय और ओजस्वी स्वर है सनातन धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का। वे मात्र 25 वर्ष की आयु में वीरगति को प्राप्त हुए, किंतु इतने अल्प समय में उन्होंने आदिवासी समाज को सांस्कृतिक चेतना, धार्मिक आत्मबल और राजनीतिक स्वाभिमान से भर दिया। उनका जीवन केवल विद्रोह नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन, सनातन धर्म, अध्यात्म, सेवा और समरसता का जीवंत प्रतीक है।

इतिहास और युगपुरुष का उदय:

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को वर्तमान झारखण्ड राज्य के उलिहातु गाँव में एक मुंडा जनजातीय परिवार में हुआ। उनका जीवन अत्यंत साधारण परिस्थितियों में प्रारंभ हुआ, किंतु बाल्यकाल से ही उनमें सनातन संस्कृति और प्रकृति के प्रति प्रेम, असाधारण चेतना, जिज्ञासा और नेतृत्व की क्षमता थी। वे मिशनरी स्कूलों में भी पढ़े, किंतु जब उन्हें यह आभास हुआ कि ईसाई मिशनरी शिक्षा आदिवासियों की संस्कृति को मिटाने का प्रयास कर रही है, तो उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा को त्याग दिया और सनातन स्वदेशी चेतना को अपनाया।

धर्म और दर्शन: बिरसाइत संप्रदाय की स्थापना

बिरसा मुंडा ने ‘बिरसाइत धर्म’ की स्थापना की, जो सनातन प्राकृतिक धर्म, एकेश्वरवाद, सादा जीवन, सनातन नैतिकता, स्वच्छता, और सामाजिक समरसता पर आधारित था। उन्होंने अपने अनुयायियों को समझाया कि सनातन ईश्वर एक है, धरती माता है, पर्वत, नदी, वन ये सभी हमारे पूज्य, आराध्य और श्रद्धा के मुख्य केन्द्र हैं

उनकी धार्मिक क्रांति ईसाई धर्मांतरण और सेमेटिक रिलिजन के विरुद्ध सनातनी आत्मगौरव का आंदोलन थी, जो धर्म को सनातन सांस्कृतिक अस्तित्व से जोड़ती थी।

संस्कृति और सभ्यता का रक्षक योद्धा:

बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को यह बताया कि उनकी अपनी सनातन संस्कृति पूर्ण और समृद्ध है, जिसे किसी बाहरी सत्ता के सामने झुकाने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने लोक-गीत, वाद्य, नृत्य, रीति-रिवाज़, वेशभूषा को गौरव का प्रतीक बताया और सनातन संस्कृति आधारित आत्मनिर्भरता की घोषणा की। उनके आंदोलन में धार्मिक भजन, लोकनृत्य और संगीतमय प्रवचन और सनातन प्राकृतिक पूजा शामिल होते थे, जिससे जनता भावनात्मक, प्राकृतिक और आत्मिक रूप से जुड़ी रहती थी।

सनातन अध्यात्म, योग और सनातन सामाजिक चेतना:

बिरसा एक संत की भाँति योगाभ्यास, उपवास, ध्यान और तप करते थे। उन्हें जनसाधारण ‘धरती आबा’ (पृथ्वी पिता) कहने लगा था। उनका आश्रम, जिसे वे ‘धार्मिक सभा’ कहते थे, एक प्रकार से सनातन सांस्कृतिक गुरुकुल और क्रांतिकारी तीर्थ बन गया था।

उनका आध्यात्मिक चिंतन, वैदिक तत्वज्ञान और लोकमानस का अद्भुत समन्वय था। वे कहते थे कि धर्म वह है, जो जनसेवा करे और अन्याय से लड़े।

क्रांति और ‘उलगुलान’ (महाविप्लव):

बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1895 से 1900 तक जो क्रांति चली, उसे ‘उलगुलान’ कहा गया अर्थात् महाविप्लव। यह केवल अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध नहीं था, बल्कि सामंतवाद, ज़मींदारी, पुलिस अत्याचार और ईसाइयों के सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध भी था।

उन्होंने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्रों और आत्मबल से लड़ाई की। उनके नाम से अंग्रेज़ी सत्ता काँप उठी। “बिरसा पकड़ में आए या मरे ₹500 का इनाम” जैसे घोषणापत्र प्रकाशित हुए।

न्याय, संवैधानिक चेतना और राष्ट्रसेवा:

यद्यपि बिरसा स्वयं संविधान निर्माता नहीं थे, परंतु उनके आंदोलन से प्रेरित होकर 1908 में छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट बनाया गया, जो आदिवासियों को उनकी भूमि और अधिकार की रक्षा देता था। यह भारत के भूमि-संरक्षण कानूनों की नींव बना।

उनकी संघर्षशील चेतना आगे चलकर भारतीय संविधान में जनजातीय अधिकारों, स्वायत्त शासन और विशेष सुरक्षा प्रावधानों का कारण बनी।

सनातन प्रकृति संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन:

बिरसा मुंडा ने सिखाया कि “धरती को देवता मानो, वृक्षों को जीवन समझो, नदियों को माँ की तरह पूजो।”
उनका संपूर्ण जीवन सनातन केन्द्रित ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ का लोकदर्शन था, जो आज के युग में पर्यावरणीय संकट के समाधान के रूप में पुनः प्रासंगिक है।

राजनीति, समरसता और समाजसेवा:

बिरसा मुंडा की राजनीति वंचितों की आवाज़ थी। उन्होंने सभी प्राणियों, सभी मनुष्यों, आदिवासी, दलित, महिला, किसान, सभी के हक के लिए आवाज़ बुलंद की।
वे न किसी जाति के विरुद्ध थे, न किसी धर्म के, परंतु किसी भी प्रकार के अन्याय, अत्याचार, रिलिजन, मजहब, दीन और असमानता के कट्टर विरोधी थे।

अमरता की ओर प्रस्थान:

9 जून 1900 को रांची जेल में जहरीली साजिश के तहत उनका निधन हुआ। ब्रिटिश दस्तावेज़ों ने इसे ‘कालरा’ कहा, परंतु यह एक राजनीतिक हत्या थी।

मृत्यु के बाद भी उनका सनातन विचार, सनातन चेतना और सनातन संघर्ष जीवित रहा। आदिवासी समाज में वे ‘भगवान बिरसा’ के रूप में पूजे जाने लगे।

समकालीन महत्व और सम्मान:

भारत सरकार ने 15 नवम्बर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ घोषित किया है। रांची में बिरसा मुंडा केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिरसा जूलॉजिकल पार्क, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट तक उनके नाम से हैं।
उनके नाम पर डाक टिकट, फिल्में, शोध संस्थान स्थापित किए जा रहे हैं।

भगवान बिरसा मुंडा भारतीय इतिहास के उन विलक्षण नायकों में हैं, जिनकी स्मृति मात्र से सनातन आत्मगौरव, राष्ट्रभक्ति और सनातन संस्कृति संरक्षण की चेतना जाग्रत हो जाती है। वे भारत के सनातनी संत-योद्धा हैं जिन्होंने धर्म, संस्कृति, समाज और प्रकृति की रक्षा के लिए तप, त्याग और क्रांति का मार्ग चुना।

आज जब हम सनातन संस्कृति की रक्षा, पर्यावरण संतुलन, समाजिक समरसता और सांस्कृतिक आत्मगौरव इत्यादि की बात करते हैं, तो बिरसा मुंडा की शाश्वत जीवनगाथा हमारे लिए दीपस्तंभ बन जाती है।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

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Saturday, 7 June 2025

संविधान के सनातनी शिल्पीकार: बी. एन. राव को समर्पित राष्ट्रकाव्य

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

मंगल भूमि, मद्रास की माटी, मैंगलोर की छाया,
जनमे वहाँ नरसिंह राव, न्यायवृक्ष की काया।
रामनाथ के पुत्र तेजस्वी, संस्कृति में लीन,
कैम्ब्रिज में विधि पढ़े, ऋषियों जैसे हो तल्लीन।।

संस्कृत, हिंदी, फ्रेंच, जर्मन, तेलुगु, कन्नड़ भाषा,
शब्दों में वे गूँथते थे न्याय की परिभाषा।
विद्या का वह संगम जिसमें संस्कृति झलकती थी,
विधि के शुष्क वनों में भी सरिता बहती थी।।

जब नवभारत खोज रहा था, स्वराज्य का आधार,
राव बने तब मौन ऋषि, शब्दों में विस्तार।
संविधान सभा के भीतर, उन्होंने दीप जलाया,
प्रत्येक अनुच्छेद में भारत की आत्मा समाया।।

"न्याय नहीं शुष्क सूत्र, वह धर्म की छाया है,
‘ऋत’ और ‘नीति’ का संगम, यही विधि की माया है।
संविधान केवल ग्रंथ नहीं, वह राष्ट्र की गीता है,
कर्तव्य, धर्म और सौंदर्य से जिससे प्रजा संजीविता है।।

बहुजातीय, बहुभाषी भारत की वह संहिता,
धर्मों का समन्वय जहाँ, न कोई सीमा रीता।
ना ‘सेक्युलर’ की परिभाषा, ना पश्चिमी बोली,
भारतीय समरसता में थी, जिसकी हर पंक्ति डोली।।

ध्यान, योग, उपनिषद, गीता की शुद्ध वाणी,
उनके विचारों में गूँजती, भारतीय दृष्टि पुरानी।
संविधान वही जो जीवन को संतुलन दे,
सत्ता नहीं, सेवा बने; पद नहीं, परमार्थ सहे।।

विश्वमंच पर जब पहुँचे, भारत का प्रतिनिधित्व किया,
इंटरनेशनल कोर्ट में न्याय का दीपक प्रज्वलित किया।
न्याय की वह भाषा जिसमें, वेदों की ध्वनि समायी,
भारतीय संस्कृति की गरिमा, फिर विश्वजनों ने पायी।।

हिन्दू लॉ, कंस्टीट्यूशन मेकिंगकॉर्नर स्टोननेशन महान,
राव के लेखन में दिखे, भारत के संविधान के प्रान।
नियम सही, वह रचना जिसमें राष्ट्र की धड़कन हो,
विधि वही, जो वेदी जिसमें सनातन का दर्पण हो।।

हे नरसिंह राव! सनातन के दीपक, विधि के योगी,
भारत की आत्मा के भाव, शब्दों में बाँधनेवाले जोगी।
तेरे ऋषितुल्य श्रम से बना जो संविधान महान,
वह न हो केवल पुस्तक, बने भारत का जीवंत गान।।

नमन तुम्हें, हे मौन ऋषि!
न्याय और धर्म के पथदर्शी!
भारत की चेतना के व्याख्याता,
संविधान से सनातनी नाता!!

जहाँ विधि में सौंदर्य हो, और संविधान में संस्कृति की ध्वनि, 
वहां बी. एन. राव जैसे महापुरुषों की स्मृति शाश्वत शुभ घनी ।


@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

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सनातनी बी. एन. राव: भारतीय संविधान के सांस्कृतिक शिल्पी और समरसतामूलक सनातनी विधिवेत्ता के रूप में:

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

संविधान केवल कानून का ग्रंथ नहीं, वह राष्ट्र की आत्मा का शास्त्र है। बी. एन. राव

भारतीय संविधान की नींव में केवल विधिक प्रावधानों की ईंटें नहीं हैं, बल्कि वह सनातन की सांस्कृतिक चेतना, नैतिक समरसता, ऐतिहासिक विवेक और दार्शनिक धारा से सिंचित एक महान सनातन भवन है। इस भवन के निर्माण में इनके जैसे विभिन्न विद्वानों का प्रमुख स्थान है, वहीं मुख्य रूप से बेनगल नरसिंह राव (B. N. Rau) वह मौन शिल्पी हैं जिन्होंने इसकी संरचना को वैचारिक गहराई, वैश्विक अनुशीलन और भारतीय आत्मा से जोड़ा।

विधि, संस्कृति और दर्शन का सनातन त्रिवेणी संगम

बी एन राव न केवल एक विधिवेत्ता थे, बल्कि वे संस्कृति के अनुरागी, दर्शन के साधक और धर्म के समन्वयकारी दृष्टा भी थे। वे उन विरले व्यक्तित्वों में से एक थे जो संविधान में शास्त्र की भाषा और शास्त्र में संविधान का सार देख सकते थे।

उनका जन्म 26 फरवरी 1887 को तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के मैंगलोर में हुआ था। संस्कार, शिक्षा और न्यायबोध का संस्कार उन्हें अपने चिकित्सक पिता बेनगल रामनाथ राव से मिला। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से विधि शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने न्याय, प्रशासन, कूटनीति और संस्कृति के क्षेत्रों में अनूठा योगदान दिया।

संविधान निर्माण में मौन ऋषि का योगदान:

संविधान का प्रारूप भारतीय आत्मा का दस्तावेज़

भारतीय संविधान सभा ने जब स्वतंत्र भारत के लिए संविधान की रचना प्रारंभ की, तब बी. एन. राव को संविधान सभा का संवैधानिक सलाहकार (Constitutional Adviser) नियुक्त किया गया। उन्होंने विश्व के विभिन्न लोकतांत्रिक देशों जैसे अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आयरलैंड, और ऑस्ट्रेलिया के संविधानों का सूक्ष्म विश्लेषण कर भारत के लिए एक उपयुक्त ढाँचे की अनुशंसा की।

उनकी एक विशिष्ट विशेषता यह रही कि वे भारतीय सनातन समाज की विविधता, बहुलता और सांस्कृतिक गहराई को समझते थे, इसीलिए उन्होंने ऐसे संविधान की वकालत की जो ना केवल विधिक रूप से सक्षम हो, बल्कि सांस्कृतिक रूप से समरस और आध्यात्मिक रूप से जीवंत हो।

सनातन ज्ञान परंपरा से अनुप्राणित विधि दृष्टिकोण

बी. एन. राव भारतीय न्याय शास्त्र, स्मृति साहित्य, गीता और उपनिषदों में गहरी रुचि रखते थे। उनके लिए विधि केवल व्यवहारिक प्रणाली नहीं थी, वह ‘ऋत’ और ‘धर्म’ के सनातन सिद्धांतों पर आधारित एक जीवन शैली थी। उनका मानना था कि न्याय तभी जीवंत होता है जब वह नीति, करुणा और लोकमंगल से अनुप्राणित हो।

उनके दार्शनिक दृष्टिकोण की गूंज संविधान के अनुच्छेदों में स्पष्ट होती है मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्त्व, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संघीय संरचना इन सभी में उनकी बौद्धिक छाया दृष्टिगोचर होती है।

सनातन धर्म और समरसता के संवैधानिक स्तंभ

बी. एन. राव ने यह स्पष्ट किया कि धर्म का उद्देश्य पूजा पद्धति के साथ ही साथ, लोकहित और समरस जीवन के लिए नैतिक संरचना देना है। उन्होंने संविधान में इस चेतना को समाविष्ट किया कि भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं, बल्कि सनातन धर्म सम्मत समरस राष्ट्र बने। जहाँ विविध आस्थाएँ, भाषाएँ और परंपराएँ एक-दूसरे के पूरक हों।

संविधान का सनातन सौंदर्यशास्त्र और शिक्षा दृष्टि

बी. एन. राव ने संविधान को सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से भी देखा। उनके अनुसार न्याय की भाषा केवल विधिक नहीं, बल्कि कलात्मक, संवेदनशील और नैतिक होनी चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि संविधान केवल अधिकारों का दस्तावेज़ न होकर कर्तव्यों, मूल्यों और कर्तव्यबोध का शास्त्र बने।

वे शिक्षा में संविधानबोध को अनिवार्य मानते थे, जिससे प्रत्येक नागरिक संविधान के साथ जुड़ाव महसूस करे, और राष्ट्र के प्रति उसकी संकल्पबद्धता जागृत हो।

अंतरराष्ट्रीय विधि मंच पर भारत की प्रतिष्ठा

बी. एन. राव ने न केवल भारत में बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी भारत की गरिमा को स्थापित किया। वे पहले भारतीय थे जिन्हें अंतरराष्ट्रीय न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया। इस भूमिका में उन्होंने भारत की संस्कृति और न्यायबोध को वैश्विक विमर्शों में प्रतिष्ठित किया।

कृतित्व और उनका बौद्धिक विरासत

उनके प्रमुख ग्रंथों में:

  • The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation
  • India’s Constitution in the Making
  • Hindu Law: Past and Present

इन ग्रंथों में विधिशास्त्र का गूढ़ विवेचन, भारतीय परंपरा की सांस्कृतिक व्याख्या और समकालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था का विवेकपूर्ण विश्लेषण मिलता है।

बी. एन. राव: भारत की विधि चेतना के सनातन दीपक 

बी. एन. राव भारतीय संविधान के उस तपस्वी शिल्पकार के रूप में याद किए जाएंगे, जिनकी लेखनी में ऋषियों की दृष्टि थी और उनके विचारों में सनातन भारत की आत्मा धड़कती थी। वे भारत की प्राचीन सनातन परंपरा और आधुनिक संवैधानिक दृष्टि के बीच वह मौन सेतु थे, जिन पर खड़े होकर आज का आधुनिक भारत अपने लोकतंत्र का जयघोष वैश्विक पटल पर कर रहा है।

आज जब हम भारतीय संविधान की आलोचना, मूल्यांकन और पुनर्पाठ की बात करते हैं, तो बी. एन. राव की स्मृति और विचारों को समझना अत्यावश्यक हो जाता है। वे केवल एक विधिवेत्ता नहीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रचेतना के सांस्कृतिक व्याख्याकार थे।

भारतीय संविधान का कोई भी अनुच्छेद तभी पूर्ण है, जब उसमें भारतीय आत्मा का स्पंदन हो। बी. एन. राव जी 

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

भारतीय संविधान के निर्माण में जिन महान व्यक्तित्वों का योगदान रहा है, उनमें बेनगल नरसिंह राव (B. N. Rau) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे एक विधिवेत्ता, न्यायविद्, दार्शनिक चिन्तक और भारतीय संविधान के प्रारूप लेखक (Constitutional Adviser) के रूप में जाने जाते हैं। उनके जीवन और कार्य के विभिन्न आयाम इतिहास, दर्शन, संस्कृति, शिक्षा, राष्ट्रसेवा और संविधान निर्माण का विस्तृत विवरण :

पूरा नाम: बेनगल नरसिंह राव
जन्म: 26 फरवरी 1887, मैंगलोर, मद्रास प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत
निधन: 30 नवंबर 1953
पिता: बेनगल रामनाथ राव (प्रसिद्ध चिकित्सक)
भाषा ज्ञान: अंग्रेज़ी, संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़, हिंदी, फ्रेंच, जर्मन

उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से स्नातक किया, और बाद में इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (Trinity College) से विधि की शिक्षा प्राप्त की।

 विधि विशेषज्ञ और संविधान निर्माता

भारतीय संविधान में योगदान:

  • बी एन राव को संविधान सभा की मसौदा समिति के लिए संवैधानिक सलाहकार (Constitutional Adviser) नियुक्त किया गया था।
  • उन्होंने विश्व के विभिन्न लोकतांत्रिक देशों—जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, आयरलैंड, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया—के संविधान का गहन अध्ययन कर भारत के लिए उपयुक्त ढाँचे का सुझाव दिया।
  • उन्होंने ही संविधान सभा के सदस्यों को समझाया कि भारत की बहुजातीय, बहुभाषी और बहुधार्मिक समाज में किस प्रकार एक समावेशी संविधान तैयार किया जा सकता है।

 बी एन राव की सलाह:

  • उन्होंने मौलिक अधिकारों, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, विधायी और कार्यपालिका शक्तियों के पृथक्करण, संघीय ढाँचे आदि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • संविधान के अनुच्छेदों की कानूनी भाषा और गहराई में वे गजब के पारंगत थे।

दर्शन, संस्कृति और परंपरा से संबंध

बी. एन. राव केवल एक विधिवेत्ता ही नहीं थे, अपितु वे एक संस्कृत भाषा, संस्कृति प्रेमी और दार्शनिक चिन्तक भी थे।

उन्हें संस्कृत शास्त्रों, न्यायशास्त्र और धर्मशास्त्र में गहरी रुचि थी। उन्होंने धर्म, कर्म, न्याय और मानव मूल्यों पर आधारित विधानों का समर्थन किया। उनका दृष्टिकोण पश्चिमी न्यायशास्त्र से अधिक भारतीय मूल्यों पर आधारित समरसता युक्त दर्शन था।

 सौंदर्य शास्त्र एवं शिक्षा

  • बी एन राव का विचार था कि न्याय केवल नियमों पर आधारित नहीं, बल्कि नैतिकता, समरसता और सौंदर्यबोध पर भी आधारित होना चाहिए।
  • उन्होंने संविधान को केवल कानून का दस्तावेज़ न मानते हुए, उसे राष्ट्र की आत्मा और लोकमंगल का मार्गदर्शक माना।
  • शिक्षा के क्षेत्र में वे मानते थे कि संविधान को नैतिक मूल्यों के साथ जोड़ा जाना चाहिए, ताकि नागरिक कर्तव्य-बोध से युक्त हों।

 अध्यात्म, योग और जीवन मूल्य

  • बी. एन. राव ने भारतीय योग और अध्यात्म को केवल धार्मिक साधना नहीं, बल्कि मानव जीवन का संतुलनकारी तत्त्व माना।
  • उन्होंने गीता, उपनिषद और स्मृतियों के सन्दर्भों में यह देखा कि नैतिक शासन और समाज का आधार आध्यात्मिक संतुलन में निहित है

धर्म, समरसता और राष्ट्रभक्ति

  • उन्होंने कभी भी धर्म को विभाजन का साधन नहीं माना, बल्कि धर्म को एक समन्वयकारी और लोककल्याणकारी संस्था माना।
  • बी एन राव की राष्ट्रभक्ति स्पष्ट रूप से उनके कार्यों में परिलक्षित होती है वे ब्रिटिश सत्ता के अधीन उच्च पद पर थे, फिर भी भारत की स्वतंत्रता और आत्मनिर्भर संविधान के पक्षधर बने।

 संविधान सेवा और समिति का समन्वय

  • संविधान निर्माण के दौरान उनकी भूमिका समिति और विचार-विमर्शों को संतुलित रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण रही
  • डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी कई बार सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारा कि बी एन राव द्वारा तैयार प्रारूप संविधान समिति के लिए एक मजबूत आधार बना।

 अंतरराष्ट्रीय कार्यक्षेत्र

  • वे संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice) के पहले भारतीय न्यायाधीश बने।
  • उन्होंने अंतरराष्ट्रीय विधि और भारत की सांस्कृतिक गरिमा को विश्वमंच पर प्रतिष्ठित किया।

 कृतित्व

  • उन्होंने कई विधिक और दार्शनिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें प्रमुख हैं:
    • The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation
    • India’s Constitution in the Making
    • Hindu Law: Past and Present

बी एन राव एक ऐसे व्यक्तित्व थे, जिनमें शास्त्र और शासन, संविधान और संस्कृति, धर्म और समरसता, तथा न्याय और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय था। वे एक सेतु बने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक सनातन चेतना और आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच।

उनकी स्मृति और योगदान को भारत, सभी भारतीय और वैश्विक बौद्धिक समाज सदैव नमन करता है।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

Friday, 6 June 2025

रस, ध्वनि और दर्शन की त्रिवेणी: आचार्य अभिनवगुप्त का पुनरावलोकन

(आचार्य अभिनव गुप्त जी के जन्म जयंती दिवस के विशेष अवसर पर)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार), 8920597559

संविद्धामनि शांभवे विशथ चेत्कालीयमेकं      लवं सत्यं स्वयं ज्ञास्यथ...(आ. अभिनवगुप्त, तंत्रालोक, उपसंहार)

जिस सांस्कृतिक और दार्शनिक परंपरा ने "रसः ब्रह्मानन्दसहोदरः" कहकर कला को परमसत्ता के समीपस्थ अनुभव के रूप में प्रतिष्ठित किया, उस परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त का योगदान एक शिखर की भांति है — जहाँ काव्यशास्त्र, तंत्र और दर्शन का त्रिवेणी-संगम होता है।

भारतीय बौद्धिक परंपरा में लगभग 10वीं-11वीं शताब्दी के कालखंड में प्रकट हुए अभिनवगुप्त, न केवल एक शैवाचार्य थे, बल्कि एक दुर्लभ समन्वयवादी दार्शनिक, सौंदर्यशास्त्री, तांत्रिक, कवि और मनीषी भी थे। उन्होंने भरत मुनि के रस सिद्धांत और आनंदवर्धन के ध्वनि सिद्धांत को केवल व्याख्यायित नहीं किया, बल्कि उन्हें गहन आध्यात्मिक और अनुभववादी धरातल पर पुनर्परिभाषित किया।

शास्त्रीय विमर्श में अभिनवगुप्त: रस, ध्वनि और शिव

अभिनवगुप्त के अभिनवभारती में प्रतिपादित रस-चिंतन यह उद्घोष करता है कि कला मात्र मनोरंजन नहीं, अपितु 'चिति' — चेतना का विमर्श है। रस का अनुभव सहृदय को अपने लघु अहंकार से मुक्त कर ब्रह्मानंद का स्पर्श कराता है। यह एक 'चमत्कार' है — दृश्य और अनुभूति के संगम का अलौकिक क्षण।
उनकी दृष्टि में रस केवल भावात्मक प्रत्यावर्तन नहीं, बल्कि अहं-विलय और तत्त्व-दर्शन है।

इसी प्रकार, आनंदवर्धन की ध्वनि की अवधारणा को अभिनवगुप्त ने एक अत्यन्त परिष्कृत दार्शनिक रूप दिया। उन्होंने व्यंग्यार्थ को ही काव्य की आत्मा बताया और कहा कि ध्वनि के माध्यम से ही रस का प्राकट्य संभव है। उनके अनुसार काव्य एक आनुभविक साधना है, जिसमें शब्द का ध्वनि-रूप ही 'तत्त्व' तक पहुंचाता है।

शैवागम परंपरा में, विशेषतः त्रिक शैव दर्शन में, उनकी मूल भूमिका एक व्याख्याता और साधक दोनों की रही। उनके लिए शिव कोई दूरस्थ देवता नहीं, अपितु चिति स्वरूप परम चेतना हैं, जो रस और ध्वनि के अनुभव में स्वतः अभिव्यक्त होती हैं। उनका सौंदर्यशास्त्र, साधना और सृजन का ऐसा संगम है, जिसमें सहृदय और कलाकार दोनों एक तत्त्व में विलीन हो जाते हैं।

समकालीन परिप्रेक्ष्य: अभिनवगुप्त की पुनरपरीक्षा क्यों?

आज जब कला, चेतना, मीडिया, और मनोविज्ञान के क्षेत्र एक-दूसरे से संवाद कर रहे हैं, तब अभिनवगुप्त के विचारों का पुनर्पाठ अनेक नए द्वार खोलता है।

  1. तंत्रिका-विज्ञान और सौंदर्य अनुभव:
    रस-सिद्धांत में वर्णित 'चमत्कार' और 'भाव-आस्वाद' की अवस्थाएं आधुनिक neuroscience और affective psychology से जोड़ी जा सकती हैं। क्या यह 'अहं-विलय' मस्तिष्क में डोपामिन, एंडोर्फिन जैसी अंतःस्राव प्रक्रियाओं से संबंधित हो सकता है?

  2. कला-चिकित्सा और भावनात्मक बुद्धिमत्ता:
    क्या रस के माध्यम से 'catharsis' और 'empathy' को उपचारात्मक प्रक्रिया में बदला जा सकता है? क्या विद्यालयों और परामर्श में रस-सिद्धांत की शास्त्रीय संरचना उपयोगी हो सकती है?

  3. डिजिटल कला और ध्वनि-सिद्धांत:
    क्या 'ध्वनि' को आज के मल्टीमीडिया, फिल्म, AI generated art, और algorithms से जोड़ा जा सकता है? क्या डिजिटल 'प्रतीक' और 'सुझाव' भी व्यंजना के आधुनिक रूप हैं?

  4. विश्व सौंदर्यशास्त्र में संवाद:
    क्या 'रस' को एक सार्वभौमिक संवेदनात्मक भाषा माना जा सकता है, जो पश्चिमी aesthetics (जैसे Kant, Heidegger, Susan Sontag) के साथ भी संवाद कर सके?

  5. शिक्षा और सौंदर्य-संवेदना:
    जब आधुनिक शिक्षा विशुद्ध 'योग्यता' आधारित हो गई है, तब अभिनवगुप्त का सौंदर्यशास्त्र भावनात्मक चेतना और संवेदनशीलता को पुनर्स्थापित करने का साधन बन सकता है।

चिंतन के कुछ आलोचनात्मक बिंदु:

  • क्या ‘रस को ब्रह्मानंद का सहोदर’ कहकर उन्होंने कला की स्वतंत्रता को धार्मिक-आध्यात्मिक घेरे में सीमित कर दिया?
  • क्या ‘साधारणीकरण’ की अवधारणा आज की ‘व्यक्तित्व-केन्द्रित’, ‘वोक-संस्कृति’ वाली दुनिया में प्रासंगिक है?
  • क्या ध्वनि-सिद्धांत केवल 'दीक्षित सहृदयों' के लिए है? इसे लोकतांत्रिक और जन-सुलभ कैसे बनाया जाए?
  • आघात, युद्ध, सामाजिक अन्याय पर आधारित कला जो विषाद और आलोचना को जन्म देती है — क्या वह अभिनवगुप्त के 'रस' के सौंदर्य-बोध में समाहित हो सकती है?

नवदृष्टि: भविष्य की ओर

अभिनवगुप्त का पुनरावलोकन केवल अतीत की प्रतिष्ठा का स्मरण नहीं है, यह दार्शनिक नवाचार, कला की पुनर्परिभाषा, और चेतना के गहन अनुभव की पुनर्रचना है।
यह श्रद्धा नहीं, आलोचनात्मक सौंदर्य-साधना है। यह हमें बताता है कि शास्त्रीयता और समकालीनता के बीच कोई विरोध नहीं, बल्कि संवेदनशील संतुलन संभव है — जहाँ भारतीय ज्ञान परंपरा वर्तमान मानवता को भी मार्गदर्शन प्रदान कर सकती है।

अतः जिस युग में कला, चेतना और चिंतन को मात्र डेटा और ट्रेंड की दृष्टि से परखा जा रहा है, वहाँ अभिनवगुप्त हमें याद दिलाते हैं: रस ही तत्त्व है, शब्द में शिव बोलता है, कला मोक्ष का प्रवेशद्वार है।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

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कश्मीर शैव दर्शन: आचार्य अभिनवगुप्त की परंपरा में सनातन भारत का चैतन्य दर्शन

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)


न चित्तं न च मेयं वा न चिन्ता न च चिन्तकः।

चिदेवाद्वयविस्तीर्णं तत्काश्मीरशिवं भजे॥”
(तन्त्रालोक – अभिनवगुप्त)

कश्मीर की बर्फीली चोटियों में जितनी स्थिरता है, उतनी ही गहराई वहाँ की दर्शन परंपरा में है। हिमालय की गोद में बसा कश्मीर केवल भौगोलिक सौंदर्य का प्रतीक नहीं, अपितु भारतीय चैतन्य परंपरा का तीर्थ है। इस परंपरा के श्रेष्ठतम प्रतिनिधि हैं – आचार्य अभिनवगुप्त (9 वीं से10वीं सदी), जिनके द्वारा प्रतिपादित कश्मीर शैव दर्शन आज भी भारत की आत्मा का सनातन दार्शनिक स्वरूप है।

आचार्य अभिनव गुप्त के द्वारा प्रतिपादित कश्मीर शैव दर्शन की आत्मा: शिव और शक्ति का अद्वैत रूप

कश्मीर शैव दर्शन, विशेषतः त्रिक शैववाद में, शिव केवल एक देवता नहीं, बल्कि पूर्ण चैतन्य हैं सर्वत्र व्याप्त, अनित्य रहित, और साक्षात अनुभवयोग्य। यह दर्शन कहता है: “चैतन्यमात्मा शिवोऽहं”(तन्त्रसार) अर्थात, मैं ही चैतन्य स्वरूप शिव हूँ।

यह विचार वेदांत की निर्गुणता और तंत्र की सगुणता का समन्वय करता है। इसमें न तो संसार से पलायन है, न ही भोग में डूबने की छूट; बल्कि यह जीवन को योग, कला और साधना का उत्सव मानता है।

दर्शन, तंत्र और सौंदर्यशास्त्र के त्रिवेणी आचार्य: अभिनवगुप्त

आचार्य अभिनवगुप्त केवल एक दार्शनिक नहीं, बल्कि योगी, तांत्रिक, कवि, संगीतज्ञ, नाट्यशास्त्राचार्य और राष्ट्रचिंतक थे। उन्होंने 40 से अधिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें प्रमुख हैं:

  • तन्त्रालोक – कश्मीर शैव दर्शन का बड़ा ग्रंथ (5867 श्लोक)
  • अभिनवभारती – भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर विश्वप्रसिद्ध टीका
  • परात्रिंशिका-विवरण, ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, आदि

उनके विचारों में रस, शिव और शक्ति  ये तीनों अनुभव के स्तर पर एकमेक हो जाते हैं।

“रसस्वादनमेव ब्रह्मस्वादनं (अभिनवभारती) कला में रस का अनुभव ईश्वर की अनुभूति है।

संस्कृति, धर्म और राष्ट्र: एकात्म दृष्टि

आचार्य अभिनवगुप्त ने दर्शन को केवल शास्त्रों में सीमित नहीं रखा, अपितु उसे जीवन और राष्ट्रचिंतन में भी रूपांतरित किया। वे मानते थे कि: “आत्मस्वरूपविज्ञानं राष्ट्रस्य मूलं भवति।” आत्मबोध ही राष्ट्र की नींव है।

उन्होंने कश्मीर को भारतीय संस्कृति का उत्तरध्रुव माना, जहाँ मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि चैतन्य जागरण केंद्र थे। उनका मत था कि ज्ञान, कला और योग से राष्ट्र पुनः जागृत हो सकता है।

योग, भक्ति और साधना: तंत्र के आलोक में

कश्मीर शैव परंपरा का योग केवल आसन नहीं, बल्कि ‘चित्त की शिवत्व में स्थिति’ है। इसमें शक्तिपात, ज्ञानयोग, भावना योग, और स्वातंत्र्य अनुभव को साधना के अंग माना गया। “स्वातन्त्र्यादेव सर्वं सृष्टम्”(तन्त्रालोक) शिव की स्वतंत्र चेतना से ही सृष्टि की रचना हुई है। यह दर्शन भक्ति को केवल भावुकता नहीं, बल्कि बोधयुक्त समर्पण मानता है, जिसमें शिव और जीव का भेद मिट जाता है।

कश्मीर से अखंड भारत का: एक शाश्वत सांस्कृतिक गंगा प्रवाह:

आचार्य अभिनवगुप्त का चिंतन केवल कश्मीर तक सीमित नहीं। उन्होंने भारत के प्रत्येक भाग में फैले शैव, वैदिक, शाक्त, और तांत्रिक परंपराओं को समेटकर एक सनातन सांस्कृतिक शाश्वत एकता का दर्शन प्रस्तुत किया।

उनकी दृष्टि में भारत केवल भूभाग नहीं, बल्कि चैतन्य सनातन भारत है, जो धर्म, ज्ञान, योग और सौंदर्य में स्थित है।

वर्तमान युग की आवश्यकता: आचार्य अभिनवगुप्त की प्राणी कल्याण, जीव कल्याण और मानव कल्याण के लिए पुनःप्रस्तुति:

आज जब कश्मीर को उसके वैदिक और शैव मूल से काटने के प्रयास हो रहे हैं, तब आचार्य अभिनवगुप्त की स्मृति राष्ट्र के सांस्कृतिक पुनरुत्थान की कुञ्जी बन सकती है। हमें विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में कश्मीर शैव दर्शन, तन्त्रालोक, नाट्यशास्त्र और रस सिद्धान्त को पुनः प्रतिष्ठित करना चाहिए।

आचार्य अभिनवगुप्त का कश्मीर शैव दर्शन अखंड सनातन भारत की जीवंत चेतना, आध्यात्मिक स्वतन्त्रता और कला के आध्यात्मिक मूल्यों का अद्वितीय संगम है। यह केवल दर्शन नहीं, एक जीवन-दर्शन है जो आज भी भारत के लिए उतना ही प्रासंगिक है, जितना सहस्त्र वर्ष पूर्व था।

नाहं मनुष्यो न च देव यक्षः। 

किन्तु स्वयं ज्ञानमयोऽहमात्मा॥ (ईश्वरप्रत्यभिज्ञा)

मैं न मानव हूँ, न देवता; मैं स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्मा हूँ।


डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU.

मोबाइल नंबर: 8920597559

(काशी विद्वत परिषद के सदस्य एवं भारतीय दर्शन, संस्कृत, नाट्यशास्त्र और कश्मीर शैव दर्शन के विद्वान। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD), दिल्ली में विजिटिंग फैकल्टी एवं भारतीय ज्ञान परंपरा के लेखक)।

Thursday, 5 June 2025

योगी आदित्यनाथ सनातन धारा के वाहक(कविता)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

गोरक्षपीठ का दीप जले, योगी बनें जो यशगान,
नाथ परंपरा जाग उठी, उठा पुनः हिंदुस्थान।
राष्ट्रधर्म के ध्वज को लेकर, चले तपस्वी वीर,
भक्ति, योग, सेवा समन्वय, बने जीवन का तीर।।

शिव-सूत्र का भाव लिया, गह लिया योग का मूल,
गोरखनाथ के पदचिन्हों पर, बढ़ा शौर्य का शूल।
वेद पुराणों की छाया में, वह राजपथ पर चला,
सिंहस्वरूप मुनि-ध्यानयुक्त, धर्म राष्ट्र का भला।।

हिंदू होना सरल नहीं है, संस्कृति की भाषा है,
मंदिर, व्रत, संस्कारों में, भारत की परिभाष है।
रामराज्य का स्वप्न लिए, सेवा में दिन रैन,
कान्हा की नगरी संवारी, पुनः चमका काशी चैन।।

न सत्ता का लोभ उन्हें, ना इच्छाओं का जाल,
जन-जन के कल्याण हेतु, कर्म बने सुरताल।
गायत्री, गीता, गोरक्षा तीनों उनके मर्म,
नारी, किसान, बालक सबका, करें सेवा धर्म।।

योग साधना, संयम साधन, नाथों की परिपाटी,
गोरखनाथ की वाणी बनकर, जागे सुधर्म हाथी।
ना कोई जात पात रहा, ना ही संकीर्ण दृष्टि,
एकात्म मानववाद बना, शासन की प्रवृत्ति।।

संस्कृति की थाती को ले, पाठशालाएँ खोल,
वेद विज्ञान समन्वय कर, बढ़े भारत का मोल।
अंत्योदय से आरंभ करे, नित्य धर्म का ज्ञान,
जनसेवा ही मंत्र रहा, योगी का अभियान।।

धर्म न पूजा भर रहे, धर्म बने कर्तव्य,
राम, कृष्ण, शिव सबमें छिपा, राष्ट्रप्रेम का सर्वस्व।
प्रेम, साहस, त्याग लिए, जो करता हित देश,
योगी उसका नाम है, जो करता जनप्रवेश।।

काशी दीपों से दमकी, अयोध्या में शुभ घड़ी,
माथे पर गंगाजल चढ़ा, गौरवशाली कड़ी।
जहाँ जहाँ छाया अंधियारा, पहुँची वहाँ मशाल,
योगी जैसे साधक से, जागा राष्ट्र विशाल।

योग, यज्ञ और राष्ट्रधर्म,
बने जिनका सहज स्वभाव।
योगी वही जो स्वयं तपा,
औरों को दे प्रकाश नाव।।

नाथों की परंपरा जीवित,
रामकाज में लगे हुए।
ऐसे योगी आदित्यनाथ,
भारत भाग्य जगे हुए।।

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

गुरुजी गोलवरकर के सनातन विचार(कविता)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

वह ज्योति पुञ्ज थे भारत के,
संघध्वनि में जिसका आह्वान होवे।
धरा चिंतक, संस्कृति के पूजक 
गुरुजी का जीवन ही आदर्श होवे।।

न सियासत, न तख़्त की चाह,
था एकात्म का सत्य संदेश।
धर्म, राष्ट्र, समाज, अध्यात्म,
संग-संग चला एक परम प्रवेश।।

हिंदू न कोई मज़हब मात्र,
यह तो जीवन की धारा है।
भू, पूर्वज, भाषा, विश्वास,
सबमें सनातन प्यारा है।।

संस्कृति जिसकी श्वास बनी,
संघ जहाँ से दिशा पाए।
विद्या जहाँ चरित्र बने,
वह शिक्षा गुरुजी सिखलाए।।

राम बने कर्म के प्रतीक,
कृष्ण बने नीति के सार।
योग, तप, सेवा, समर्पण,
गुरुजी का जीवन था अपार।।

“राष्ट्र सेवा ही ईश्वर सेवा”,
हर शाखा में प्रतिध्वनित हो।
गाँव-गाँव, नर-नारी जागें,
यह यज्ञ कभी न कक्षणितु हो।।

मंदिर केवल ईंट न पत्थर,
वह संस्कृति की साँस बने।
व्रत, पर्व, परंपरा-सेतु,
जन से जन का सदा साथ घने।।

न भूले हम नेशनहुड,
न छूटे बंच आफ थाट।
हिंदुस्थान की आत्मा बोले,
गुरुजी के वे अनुपम बात।।

आज जब भारत चेतन बना,
और विश्व में जयघोष उठा।
तो गुरुजी की वाणी बोले,
शाश्वत सनातन सदा टिका।।

गुरुजी थे संस्कृति के प्रहरी,
राष्ट्रबोध के दीप हमारे।
आज भी पथ उन्हीं का सुंदर,
कल के दीपक, आज के तारे।

गुरुजी के सनातन विचार केवल अतीत नहीं,
बल्कि सनातन भारत के भविष्य का निर्माण हैं।

डॉ. राघवेंद्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

8920597559

@Dr. Raghavendra Mishra, JNU 

गुरु माधवराव गोलवलकर जी सनातन एकात्म मानव जीवन-दर्शन के विचारक के रूप में:

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

वर्तमान भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण में यदि किसी एक व्यक्तित्व का सर्वाधिक योगदान रहा है, तो वह हैं गुरु जी माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, जिन्हें स्नेहपूर्वक ‘श्री गुरुजी’ कहा जाता है। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के द्वितीय सरसंघचालक होने के साथ-साथ एक राष्ट्र द्रष्टा, दार्शनिक, और राष्ट्रऋषि भी थे, जिनके विचारों ने सम्पूर्ण भारत के युवाओं, चिंतकों और समाजसेवकों को दिशा प्रदान किया। गुरुजी का जीवन-दर्शन भारतीय संस्कृति की आत्मा से अनुप्राणित था। वे भारत को केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक सत्ता मानते थे। उनके विचारों में धर्म, राष्ट्र, समाज, और अध्यात्म ये सब पृथक-पृथक नहीं, बल्कि एकात्म रूप में समाहित थे।

सनातन हिंदुत्व: एक समग्र सांस्कृतिक दृष्टि

श्री गुरुजी ने 'हिंदुत्व' को संकीर्ण धार्मिक पहचान से कहीं ऊपर उठाकर एक जीवनशैली, परंपरा और मूल्य-व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार, "हिंदू कोई पंथ नहीं, बल्कि इस देश की भूमि, पूर्वजों, संस्कृति और जीवन-मूल्यों से निष्ठा रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति है।"

सनातन शिक्षा और संस्कृति: चरित्र निर्माण का आधार–

गुरुजी आधुनिक शिक्षा प्रणाली के ‘पश्चिमीकरण’ पर चिंता व्यक्त करते थे। उनका मानना था कि शिक्षा का लक्ष्य केवल नौकरी या तकनीकी दक्षता नहीं, बल्कि चरित्र, आत्मबल और राष्ट्रनिष्ठा का निर्माण होना चाहिए। उन्हीं की प्रेरणा से संघ से जुड़ी विद्याभारती, भारतीय शिक्षा मंडल जैसी संस्थाएं पनपीं।

अध्यात्म और राष्ट्रधर्म:

गुरुजी ने अध्यात्म को केवल मोक्ष या आत्मकल्याण का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माण का नैतिक आधार माना। वे श्रीराम और श्रीकृष्ण को केवल पूज्य देवता नहीं, बल्कि आदर्श कर्मयोगी और राष्ट्रपुरुष मानते थे। उनके जीवन से उन्होंने कर्म, भक्ति और सेवा का प्रेरणा-स्रोत लिया।

सनातन जनसेवा ही ईश्वर सेवा:

श्री गुरुजी का मूल मंत्र था “राष्ट्र सेवा ही ईश्वर सेवा है।” उनके जीवनकाल में संघ की शाखाएँ गाँव-गाँव तक पहुँचीं, और उन्होंने लाखों स्वयंसेवकों को निःस्वार्थ सेवा, सामाजिक समरसता, और जाति-विभेद से मुक्त भारत के निर्माण हेतु प्रेरित किया।

सनातन वैचारिक धरोहर:

उनकी पुस्तकें जैसे “We or Our Nationhood Defined” और “Bunch of Thoughts” आज भी लाखों राष्ट्रप्रेमियों के लिए चिंतन के स्तंभ हैं। इनमें उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत की एकता केवल संविधानिक व्यवस्था से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक समरसता और धार्मिक सहिष्णुता से टिकाऊ बन सकती है।

 मंदिर, परंपरा और समाज:

गुरुजी के अनुसार मंदिर केवल पूजा का स्थल नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन की धुरी है जहाँ व्यक्ति अपने अस्तित्व से ऊपर उठकर समाज के साथ जुड़ता है। उनकी दृष्टि में मंदिर, पर्व, व्रत, सभी भारतीय समाज की सांस्कृतिक कड़ियाँ हैं।

श्री गुरुजी माधवराव गोलवलकर केवल संघ के नेतृत्वकर्ता नहीं थे, वे भारत के सांस्कृतिक आत्मबोध के जाग्रतक थे। उनका समर्पित जीवन हमें यह सिखाता है कि राष्ट्रनिर्माण का मार्ग केवल राजनीति से नहीं, बल्कि संस्कृति, सेवा, और अध्यात्म से होकर जाता है। आज जब भारत वैश्विक मंच पर आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ओर उन्नत हो रहा है, तब गुरुजी की एकात्म दृष्टि और मूल्याधारित नेतृत्व हमारे लिए प्रेरणा का शाश्वत स्रोत है।

“गुरुजी के विचार केवल अतीत नहीं, वर्तमान और भविष्य की भी राह दिखाते हैं।”

@Dr. Raghavendra Mishra JNU 

8920597559

Tuesday, 3 June 2025

सनातन संस्कृति का प्रकृति पथ...

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

मातर्भूमिः पुत्रोऽहम् का, अनहद नाद है चेतन का।
पृथ्वी को माँ माना जिसने, वह पंथ सनातन जीवन का।।
न माटी केवल संसाधन है, न वन खनिज का भंडार है,
यह चेतनता का विस्तार है, यह ऋषियों का उपकार है।।

धरती, जल, अग्नि, पवन, गगन पाँच तत्व ही ब्रह्म रूप,
इनमें ही देखा ब्रह्मांड, इनसे ही चलता जग स्वरूप।
अग्निमीळे पुरोहितं की ऋचा, आपो हिष्ठा मयोभुवाः,
सनातन की संकल्पना में, हर अणु है एक हुआ।।

वृक्ष न केवल छाया देते, ये पुण्य के भी आधार हैं,
"दशपुत्रो समो द्रुमः" यह तो स्वयं पुराणों का सार है।
जन्मोत्सव पर वट वृक्ष लगाएँ, विवाह दिवस हो पीपल दान,
एक वृक्ष से लाखों जीवन यही है सनातन की पहचान।।

गौ, नाग, वानर, गरुड़, सब पूजे गए देव समान,
मनु कहते "अहिंसा धर्मः" यही सनातन का प्रधान।
ना हिंसा, ना शोषण, ना छल, जीव मात्र में आत्मा की झलक,
सह अस्तित्व का यह आधार बना प्रकृति के प्रति शुभ ललक।।

गंगा, यमुना, सरस्वती नदियाँ हैं केवल नहीं धाराएँ,
यह तो हैं माँ के स्वरूप जीवन देती अमृत धारा लाएँ।
"गङ्गे यमुने शुद्धयन्तु नः" यह तो प्रार्थना है जल के प्रति,
लेकिन आज इन्हें बनाया केवल नाला और उद्योग की गति।।

भूमिपूजन में माटी की पूजा, यज्ञों में वायु की आरती,
तर्पण में जल की वंदना, हवन में वृष्टि की होती शुभ गति।
हर संस्कार में पर्यावरण जैसे प्राण में प्राण भर जाए,
सनातन धर्म की यह परंपरा जीवन को स्थायी स्वर दे पाए।।

जब दुनिया खोज रही समाधान संकटों में जकड़ा जीवन,
तब सनातन देता शिक्षा प्रकृति से प्रेम है मूल प्रयोजन।
SDGs हों या जलवायु संकट, उत्तर हर काल में एक ही है,
“धर्म: संरक्षणाय प्रकृते:” यही सनातन की गाथा सटीक है।।

आओ लौट चलें उन ग्रंथों की ओर, जहाँ वनों में ऋषियों का वास था,
जहाँ नदी भी देवी मानी गई, और वायु भी प्राण का विश्वास था।
यदि जागेगा फिर से यह भाव, तो पृथ्वी बनेगी स्वर्ग समान,
और विश्व बनेगा सनातनधर्मी प्रकृति के प्रति कृतज्ञ महान।।

@Dr. Raghavendra Mishra

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(संस्कृत, दर्शन, और भारतीय ज्ञान परंपरा के विद्वान)
JNU, नई दिल्ली


सनातन संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन की वैदिक, समन्वयपरक और सार्वकालिक जागृत चेतना 

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

मातर्भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्याः अथर्ववेद का यह उद्घोष केवल एक मंत्र नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक चेतना का दर्पण है जिसने प्रकृति को न केवल पूज्य माना, बल्कि उसे जीवन का अविभाज्य अंग स्वीकार किया। आज जब संपूर्ण विश्व जलवायु संकट, जैव विविधता ह्रास और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से जूझ रहा है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी सनातन संस्कृति की उन मूल अवधारणाओं की ओर लौटें, जिनमें पर्यावरण संरक्षण को न केवल धर्म, बल्कि जीवन का अभिन्न कर्तव्य माना गया।

पंचमहाभूतों में परमात्मा रूपी प्रकृति का दर्शन:

सनातन परंपरा में सृष्टि के मूल तत्त्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश को दैवत्व प्रदान किया गया। यह दर्शन भौतिकता के पार जाकर पर्यावरण को चेतन सत्ता के रूप में देखता है। ऋग्वेद में अग्नि को यज्ञ का देवता कहा गया है – "अग्निमीळे पुरोहितं", वहीं यजुर्वेद में जल को जीवनदायक और सुखप्रद घोषित किया गया"आपो हि ष्ठा मयोभुवाः"

भूमि, जिसे ‘माता’ कहा गया, उसके साथ पुत्रवत् संबंध की भावना आज के भौतिकतावादी भूमि उपयोग की प्रवृत्ति के विपरीत एक संतुलित उपयोग की शिक्षा देती है।

वृक्ष और वनस्पति: जीवन के शाश्वत स्तंभ:

सनातन धर्म में वृक्षों को केवल जीवनदायी नहीं, बल्कि देवस्वरूप माना गया। पद्मपुराण में वृक्षों की महिमा इस प्रकार वर्णित है –
"दशकूपसमावापी... दशपुत्रो समो द्रुमः स्मृतः"
अर्थात् एक वृक्ष लगाना दस पुत्रों के समान पुण्यदायक है। आज जबकि वनों की कटाई और जैव विविधता की हानि गंभीर चिंता का विषय है, उस परिस्थिति में सनातन परंपरा का यह वृक्ष-पूजन विश्व को एक स्थायी समाधान दे सकता है। यदि विश्व के सभी व्यक्ति अपने जन्मदिवस, विवाह, विभिन्न उत्सवों के उपलक्ष्य में केवल प्रतिवर्ष एक–एक वृक्ष लगाए तो पर्यावरण से संबंधित अधिकांश समस्याओं का समाधान हो जाएं।

पशु-पक्षियों से सह-अस्तित्व की समरस भावना:

सनातन संस्कृति किसी भी जीवधारी के प्रति हिंसा को अधर्म मानती है। मनुस्मृति में कहा गया –
"अहिंसा सर्वभूतानां धर्मं श्रेठ्ठतमं विदुः"
अर्थात् समस्त प्राणियों के प्रति अहिंसा ही श्रेष्ठ धर्म है।

गाय, नाग, गरुड़, वानर जैसे जीवों को देवी-देवताओं से जोड़कर उनकी रक्षा सुनिश्चित की गई। आज के संदर्भ में यह दृष्टिकोण जैव विविधता संरक्षण की नींव है।

नदियों, पर्वतों और जलस्रोतों की शाश्वत पवित्रता:

गंगा, यमुना, सरस्वती जैसी नदियाँ केवल जलधाराएँ नहीं, बल्कि जीवित देवियाँ मानी जाती हैं। ऋग्वेद कहता है –
"गङ्गे यमुने सरस्वति... शुद्धयन्तु नः",
अर्थात ये नदियाँ हमें शुद्ध करें।

प्रकृति की इस पवित्र दृष्टि ने गंगा को गटर बनने से रोका, किन्तु आधुनिकता के नाम पर हमने इन जीवनदायिनी जलधाराओं को प्रदूषण का पात्र बना डाला।

सनातन संस्कारों में पर्यावरण चेतना:

सनातन धर्म के विविध संस्कार, जैसे भूमिपूजन, हवन-यज्ञ, तर्पण, आदि के पीछे स्पष्ट पर्यावरणीय उद्देश्य निहित हैं। यज्ञों द्वारा वायुमंडल की शुद्धि, भूमि पूजन द्वारा भूमि के प्रति कृतज्ञता, और तर्पण से जल स्रोतों का आदर यह सब आधुनिक "सस्टेनेबिलिटी" का प्राचीन रूप है।

सनातन पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता:

आज जब वैश्विक समुदाय संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्यों (SDGs) की ओर देख रहा है, तब हमें यह स्मरण करना चाहिए कि सनातन संस्कृति में पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन की सोच सहस्त्रों वर्षों से जीवन का अंग रही है। यह दृष्टिकोण केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक बन सकता है।

संक्षेप में कहें तो सनातन संस्कृति प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की संस्कृति है। यहाँ पर्यावरण संरक्षण कोई अधुनातन विचार नहीं, बल्कि ‘धर्म’ का स्वरूप है। हमें केवल अपने ग्रंथों की ओर लौटने की आवश्यकता है, जहां ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों, स्मृतियों और पुराणों तक हर स्थान पर प्रकृति के प्रति श्रद्धा और संरक्षण का संकल्प रचा-बसा है।

आज आवश्यकता है इस चेतना को पुनः जागृत कर उसे नीति, शिक्षा और व्यवहार का अंग बनाया जाए। सम्पूर्ण विश्व में सनातन विकास की अर्थव्यवस्था को लागू किया जाए, जिससे विश्व का पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन हो सके। तथा संपूर्ण विश्व में सनातन प्राणिदर्शन, सनातन जीवदर्शन और सनातन मानवदर्शन समरस भाव से स्थापित हो सके। तभी हम आने वाली पीढ़ियों को एक समृद्ध, संतुलित और सुरक्षित पर्यावरण और स्वास्थ्यपरक जीवन दे सकेंगे।

@Dr. Raghavendra Mishra, JNU 


Monday, 2 June 2025

गरीब और वंचितों के दीपक: रामविलास जी...

(एक समग्र काव्य-पुंज: कविता)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

खगड़िया की मिट्टी में, उगा एक तेजस्वी फूल,
दलितों की आँखों में, बनकर आया संकल्प मूल।
नाम मिला 'रामविलास', पर जीवन था लोकविलास,
हर हृदय की वेदना को, समझे जैसे भाव-प्रकाश।।

ना कोई सिंहासन, ना कोई कुलीन गाथा,
पर उनकी नज़र में था, भारत से असली नाता।
जिनको न इतिहास ने गिना, वह उनके गीत बने,
भीमराव के स्वप्नों को, साकार सजीव बने।।

जाति नहीं जन्म से, कर्म से मानव होता है,
जहाँ समता हो जीवन में, वहीं धर्म सजता है।
न्याय जहाँ भोजन जैसा, सम्मान हो हर घर में,
ऐसा दर्शन रामविलास ने देखा सभी अक्षर में।।

ना केवल पर्व, ना केवल रीत,
संस्कृति है जहाँ मिले सबको प्रीत।
नाट्य नहीं यदि दलित नाचे नहीं,
गीत नहीं यदि पीड़ित गाए नहीं।
संस्कृति वही जो सबका हो भाग,
जिसमें हो समरसता का अनुराग।।

संस्कृति वही जो बंदिशें तोड़े,
नवचेतना की नयी राह मोड़े।
सौंदर्य वही जहाँ अश्रु भी चमके,
जहाँ श्रमशील कर्मठ हाथ दमके।
वे कहते "रूप नहीं रंग का मोल,
सत्य का तेज है सुंदरता का गोल।।"

काग़ज़-कलम से ही तो बदले विचार,
वह शिक्षा सही, जो सबको दे प्यार।
हर बालक को दो ज्ञान की मशाल,
ताकि अंधकार में भी दिखे उसे चाल।
गाँव-गाँव में स्कूल उत्तम चले,
नारी हो या दलित सबका भविष्य फले।।

योग नहीं केवल देह का मोल,
यह तो है आत्मा का मूल अनमोल।
रामविलास ने योग को कहा,
"यह संयम है, भीतर को तोल।"
ध्यान था उनका कर्म,
और भक्ति जनसेवा धर्म।।

मंदिर के द्वार जब बंद मिले,
उन्होंने आह्वान किया “ताले खुलें!”
ईश्वर न जात पूछे, न वंश,
हर प्राणी में बसता है उसका अंश।
भक्ति वही जो बंधन तोड़े,
हर मानव को भगवन से जोड़े।।

राजनीति नहीं था उनके लिए सिंहासन,
यह है एक यज्ञ, जनसेवा का आसन।
रेलमंत्री हों या मंत्री उपभोक्ता,
हर पद पे किया समाज का सुनियोक्ता।
दलितों के हक़ की बनी आवाज़,
लोक जनशक्ति में था संघर्ष का राज।।

"ना केवल आरक्षण, चाहिए सम्मान भी,"
हर ग़रीब को मिले समान स्थान भी।
कुरीतियों से लड़े, व्यथा से भिड़े,
सत्ता में रहते हुए भी सत्य से जिए।
उनके जीवन में छिपा वह गीत,
जो गूंजेगा युगों तक संप्रीत।।

अब भले वो न हों इस धरा पर,
पर विचार हैं हर पथ, हर घर।
रामविलास वो दीप हैं, जो बुझे नहीं,
हर अंधेरे को वो आलोक से छुए सही।
पीढ़ियाँ उठें नयी उनके नाम से
समानता का झंडा ऊंचा हो शान से।।

@Dr. Raghavendra Mishra, JNU 

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रामविलास जी: भारतीय नव जागरण के दीपक...

(काव्य-श्रद्धांजलि)

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

गांव की मिट्टी से उठे, भारत की शान बने,
दलितों की पीड़ा में, जग का ज्ञान बने।
नहीं थे मात्र नेता, एक विचारधारा थे,
संविधान के पृष्ठों में, साक्षात सहारा थे।।

वह राम के साथ, विलास के भी पार थे,
संघर्ष की ज्वालाओं में, दीपक की धार थे।
जयप्रकाश की क्रांति में जो रक्त से बोले,
वह संसद में भी जनसंघर्ष के रथ पर डोले।।

धर्म का स्वरूप उनके लिए ‘सेवा’ था,
मंदिर हो या मस्जिद सबमें ‘देवता’ था।
योग और आसन उनके लिए शासन था, 
जीवन की साधना थी, सत्य के लिए राशन था।

संस्कृति को केवल पर्व नहीं, परिवर्तन कहा,
हर पीड़ित में उन्होंने भारत का दर्शन कहा।
सभ्यता में समता खोजी, सौंदर्य में समाज,
जहाँ न हो कोई ऊँच-नीच, वही हो सच्चा राज।।

शिक्षा को उन्होंने दीपक कहा अंधकार में,
ज्ञान को बाँटा समान भाव के व्यवहार में।
हर हाथ में कलम हो, हर माथे पर तेज आशा, 
ऐसा भारत रचने का था उनका उत्तम अभिलाषा।।

जब दलित मंदिर के द्वार से रोका गया,
रामविलास ने वहाँ दीप जलाया।
जब समाज ने पीठ फेर लिया,
तब उन्होंने संविधान का सहारा दिखाया।।

न थे सिर्फ़ एक राज्यमंत्री, न केवल सांसद,
जनता के हृदय में थे कर्मशील, सच्चे साथ संग।
सत्ता उनके पास थी, पर अहंकार नहीं,
हर वर्ग को उन्होंने समझा ‘परिवार’ कहीं।।

हे! रामविलास मर गए पर दीप नहीं बुझा,
उनकी विरासत में न्याय के बीज सदा सुझा।
हर उस बालक की आँख में वह स्वप्न सजाए,
जो कहे ‘मैं भी बनूँगा राम’ अलख जगाए।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

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भारत के चिराग जो दीपक बन चमके...

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU(लेखक/रचनाकार)

जन्म लिया उस आँगन में, जहाँ न्याय की बात उठी,
रामविलास के तेज तले, नई मशाल फिर से जगी।
बिहार की मिट्टी में पले, सपनों की लौ में रंग भरे,
अभिनय को बीच में छोड़े, जन सेवा के पथ पर चले।।

पर अभिनय में न मिली शांति, न था वहाँ वह स्वप्न-स्वर,
जन की सेवा, धर्म बना राजनीति बन गई जीवन-वर।
2014 का जब चुनाव आया, जमुई की माटी ने पुकारा,
जनता ने नेता पहचाना, और जनसभा ने दीप उजारा।।

युवा था, पर जोश में दृढ़, सोच में था परिवर्तन,
'मोदी का हनुमान' बना, लिए विकास का नव-वंदन।
दलितों का मान बढ़ाया, युवाओं में दी एक आवाज़,
राजनीति में ओज भरा, किया समाज को भी आगाज़।।

पिता गए, पर लौ न बुझे, विरासत को थामा विश्वास से,
पारस से अलग राह चली, पर हिम्मत रही साहस से।
LJP को बाँट दिया गया, पर ध्वज वही रामविलास का,
‘रामविलास’ नाम से फिर खड़ा, चिराग बना दीप विकास का।।

2024 की फिर से रणभेरी, NDA ने जो संग बुलाया,
जमुई की माटी फिर मुस्काई, विजयी चिराग को लौटाया।
दलित, युवा, किसान का नेता, भाषण में गूंजे तेज स्वर,
जो कहे "मैं नेतृत्व लूँगा, बनकर नव भारत का क्षितिज भवर।"

वह केवल एक नेता नहीं, एक विचार की नई मशाल है,
जो दुश्मनों से ना झुका, जो युग के प्रश्नों का उत्तरकाल है।
नाम है उसका चिराग, पर कार्यों में सूरज का देश है,
आज के भारत में वह, राजनीति का नया संदेश है।।

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गुरु गोरखनाथ: योग सम्राट की महागाथा

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

त्रिकालदर्शी, योगरथी, शिव-स्वरूप महान।
गोरखनाथ कहाए जो, जागे जन के प्रान॥

हिमगिरि के तपवन से, फूटी एक पुकार,
धरती के तम को हर ले, भेजूँ योगाचार!"
शिव ने फूँका मंत्र फिरा, मच्छिंद्र में प्रान,
जन्मे शिष्य गोरख तब, बन भारत का गान॥

ना जाति बंधन, ना कुल नाम,
गोरख का हैं केवल ‘योग’ काम।
शैशव में साधक, मौनी ध्यान,
माँ की गोद, पर ब्रह्म का ज्ञान॥

गुरु मच्छिंद्र ने देखा ध्यान,
ज्योतिर्मय वह साधक जान।
बोल उठे "यह तो है ज्ञान चंदन,
शिव के ही अंश का है स्पंदन!"

दीक्षा दी "अलख निरंजन" का,
सिखलाए मार्ग हठयोग का।
श्वास, चक्र, काया का राज,
गोरख बने महायोगी आज।

"काया ही काशी है" कहकर,
उन्होंने तन को साधन माना।
ना कर्मकांड, ना यज्ञ हवन,
योगमार्ग ही परम सम्माना॥

नासिका में प्राण की लहर,
मूलाधार से सहस्रार की डगर।
कुंडलिनी जागरण का मूल,
गोरख बताएं शिव का फूल॥

"आपे गुरू, आपे चेला" –
अंधश्रद्धा से मुक्त करेला।
विद्या, मन्दिर, शास्त्र द्वार,
मन का ध्यान, यही संसार॥

जात-पांत का खंडन किया,
नारी, शूद्र सबको दिया,
समता, करुणा, ज्ञान का सिंचन,
मानव धर्म को दिया नव चिंतन॥

"गगन मंडल में झूला झूले,
तहाँ बिराजे ज्ञानी।"
ऐसे गूढ़ प्रतीक कहें,
भाषा में गोरख बानी।।

उनके शब्द न केवल पद्य,
बल्कि ब्रह्म का अनुभव अद्य।
शब्द बने जीवंत प्रकाश,
हर मन में खोलें आत्मा का आशा॥

गोरख चले गाँव-गाँव,
उजले पथ और करें ठाँव।
भाषा में बोले देश की बात,
हर दिल को जोड़े साथ-साथ॥

कहीं वे बाबा, कहीं औलिया,
कहीं सिद्ध, कहीं संत कहाए।
सनातन हिन्दू, सभी समुदाय,
गोरख को अपने गुरु बनाए।।

बारह पंथ बने प्रचारक,
नाथों के जग में दीपक।
जोगी, कंफर, अवधूता धारा,
गोरख की अमर ललकारा॥

नेपाल से लेकर कर्नाटक तक,
हिमालय से लेकर सिन्धु तट।
गोरख की बानी, उठे गूँज,
"जाग रे मानव, खुद को पूज!"

शृंगार नहीं बस लौकिक भाव,
परमात्मा से मिलन की चाह।
नारी, नयन, गगन, चाँदनी,
सब योगिक चित्त की रागिनी॥

प्रेम, विरह और आत्म मिलन,
काव्य में रचे ज्ञान के धन।
प्रतीकों में उन्होंने बाँधा,
रहस्य जहाँ शिव-शक्ति साधा॥

गोरखपुर में मठ खड़ा,
आज भी है चेतन बड़ा।
योग, साधना, देश शक्ति,
गोरख परंपरा सदा भक्ति॥

जो बोले वह कर्म बने,
जो जिए वह धर्म बने।
नाथ परंपरा उनका नाम,
जग में गूंजे "गोरख" गान॥

जय हो योगी, ब्रह्म स्वरूप,
गोरखनाथ लोक के भूप।
जिसने घन अज्ञान हटा दिया,
हर आत्मा को शिव का किया।।

भारत भूमि धन्य हुई,
जब योगी ने आँखें खोलीं।
उसके बाद से अब तक,
गूँज रही है गोरख बोली।।

@Dr. Raghavendra Mishra 

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श्रीमद्भगवद्गीता: एक युद्ध शास्त्र के रूप में–

ऑपरेशन सिन्दूर के विशेष संदर्भ में

लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU

“गीता केवल मोक्ष का मार्ग नहीं, वह वीरता, धर्म और युद्ध-कौशल का अमृत-ग्रंथ है।”

श्रीमद्भगवद्गीता को प्रायः केवल एक धार्मिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है, किन्तु इसके भीतर निहित ‘युद्ध शास्त्र’ का स्वरूप उतना ही बलशाली और प्रेरणादायक है। यह केवल आत्मा और परमात्मा की चर्चा नहीं करती, अपितु स्पष्ट रूप से धर्म की स्थापना हेतु युद्ध करने की प्रेरणा देती है। इसका संदेश केवल उपदेश नहीं है, यह एक आह्वान है, धर्म के पक्ष में, अधर्म के विनाश के लिए संग्राम में उतरने का।

महाभारत का युद्ध और गीता का उद्घोष

महाभारत के भीषण युद्ध के आरम्भ में जब अर्जुन मोहवश अपने धनुष को त्याग देते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं। यही क्षण गीता का जन्म है। यह वही गीता है, जिसमें श्रीकृष्ण कहते हैं:

“धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।” (गीता 2.31)

“धर्म के लिए लड़ा गया युद्ध, क्षत्रिय (योद्धा) का सर्वोच्च कर्म है।”

यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि आज के भारतीय सैनिकों, सुरक्षाबलों, और राष्ट्रभक्त नागरिकों के लिए भी एक शाश्वत उद्घोष है।

ऑपरेशन सिन्दूर: गीता के युद्ध शास्त्र का साक्षात् रूप:

हाल ही में संपन्न ऑपरेशन ‘सिन्दूर’ में भारतीय सेना ने जिस प्रकार से सटीक रणनीति, अदम्य साहस और राष्ट्रनिष्ठा का प्रदर्शन किया, वह श्रीमद्भगवद्गीता की युद्ध-प्रेरणा का जीवंत उदाहरण है। यह केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं थी, बल्कि यह धर्म-अधर्म के बीच के संघर्ष में गीता के सिद्धांतों की पुनः पुष्टि थी।

“हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।  तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥” (गीता 2.37)

“मरने पर स्वर्ग मिलेगा और जीतने पर पृथ्वी पर राज्य। इसलिए युद्ध के लिए दृढ़ संकल्प लेकर खड़े हो जाओ।”

भारतीय सैनिकों ने आतंकवाद के विरुद्ध इस युद्ध में यही संकल्प दिखाया। उनका उद्देश्य केवल शत्रु का दमन नहीं था, बल्कि राष्ट्र, धर्म, और मानवता की रक्षा भी था।

गीता के युद्ध शास्त्र के प्रमुख आयाम:

1. धर्म के लिए युद्ध का आह्वान

जब अधर्म, अन्याय और आतंक सिर उठाते हैं, तब गीता युद्ध को पाप नहीं, अपितु धर्म का अनिवार्य माध्यम मानती है।

2. रणनीति और मनोबल का संतुलन

अर्जुन जैसे महान धनुर्धर भी जब मानसिक रूप से विचलित हुए, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक और रणनीतिक दृष्टिकोण से युद्ध के लिए तैयार किया। यह नेतृत्व और प्रेरणा का आदर्श है।

3. निष्काम कर्म और निर्भीकता

गीता बार-बार कहती है कि योद्धा को फल की चिंता किए बिना केवल कर्तव्यनिष्ठ होकर युद्ध करना चाहिए।

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”(गीता 2.47)

“कर्म में तेरा अधिकार है, फल में नहीं।”

ऑपरेशन सिन्दूर: गीता की शिक्षाओं की पुनर्पुष्टि

भारत की धरती पर जब-जब आतंकवाद और विध्वंसकारी शक्तियाँ सिर उठाती हैं, तब भारतीय सेना गीता के सन्देश को आत्मसात करके रणभूमि में धर्म की स्थापना हेतु अग्रसर होती है। ऑपरेशन सिन्दूर के माध्यम से यह सिद्ध हो गया कि श्रीमद्भगवद्गीता आज भी भारत के सैनिकों की आत्मा और संकल्प का आधार है।

इस अभियान ने यह स्पष्ट कर दिया कि :

“यत्र योगेश्वर: कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धर:।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥”(गीता 18.78)

“जहाँ श्रीकृष्ण जैसे नायक और अर्जुन जैसे योद्धा हैं, वहाँ विजय, समृद्धि और नीति सदैव रहती है।” आज भारतीय सैनिकों ने इस गीता वाणी को जीवंत कर दिया है।

वर्तमान संदर्भ में गीता की आवश्यकता:

आज भारत बाह्य शत्रुओं के साथ-साथ आंतरिक आतंक, वैचारिक प्रदूषण, और सांस्कृतिक आक्रमण से भी जूझ रहा है। ऐसे समय में गीता केवल मंदिरों और पुस्तकों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। यह हर सैनिक की जेब में, हर युवा की चेतना में, और हर नीति-निर्माता के निर्णय में विद्यमान होनी चाहिए।

युद्ध शास्त्र और विश्व बंधुत्व का समन्वय है गीता: 

श्रीमद्भगवद्गीता केवल ध्यान और मोक्ष का मार्ग नहीं, यह धर्मयुद्ध, राष्ट्ररक्षा और आत्मसम्मान के लिए किया गया उद्घोष है। यह ग्रन्थ हमें समानुभूति और करुणा के साथ-साथ धर्म के लिए रणभूमि में उतरने का साहस भी देता है।

ऑपरेशन सिन्दूर इसका प्रमाण है कि जब एक सैनिक गीता से प्रेरणा लेकर युद्ध करता है, तो वह केवल शत्रु का संहार नहीं करता, बल्कि राष्ट्र की आत्मा की रक्षा भी करता है।

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श्रीमद्भगवद्गीता: केवल मोक्ष नहीं, एक विराट युद्ध शास्त्र भी है...

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU (लेखक/रचनाकार)

धर्म की रक्षा हेतु युद्ध का उद्घोष करती अमर वाणी:

भारतवर्ष की आत्मा में यदि कोई ग्रंथ समाया है, तो वह है — श्रीमद्भगवद्गीता। यद्यपि गीता को सामान्यतः एक आध्यात्मिक, दार्शनिक और मोक्षदायक ग्रंथ के रूप में देखा जाता है, परंतु यह केवल उपदेशात्मक वाणी नहीं, बल्कि यह एक युद्धशास्त्र भी है ऐसा शास्त्र जो धर्म, राष्ट्र और सत्य की रक्षा के लिए युद्ध करने की नैतिकता, योग्यता और रणनीति का मार्ग दिखाता है।

युद्धभूमि में जन्मा, युद्ध के लिए प्रेरणादायक ग्रंथ/शास्त्र

महाभारत के धर्मयुद्ध की रणभूमि कुरुक्षेत्र में जब अर्जुन मोहग्रस्त होकर अपने कर्तव्यों से विमुख हो उठे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें जिस दिव्य बोध का उपदेश दिया, वही श्रीमद्भगवद्गीता है। वह युद्ध मात्र एक युद्ध नहीं था; वह था धर्म और अधर्म के बीच का महासंग्राम। और गीता का संदेश है जब धर्म संकट में हो, तब युद्ध संकोच नहीं, कर्तव्य बन जाता है।

“धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।” (गीता 2.31)

"धर्म के लिए किए गए युद्ध से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।"

“हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय कृतनिश्चयः॥” (गीता 2.37)

"या तो मरकर स्वर्ग पाओगे या जीतकर पृथ्वी का सुख, इसलिए युद्ध के लिए दृढ़ निश्चय करो।"

गीता में छिपे युद्धशास्त्र के तत्त्व 

1. धर्म युद्ध की अवधारणा

गीता यह स्पष्ट करती है कि जब अधर्म समाज में फैल जाए, तब उसका प्रतिकार करना ही धर्म है। धर्मयुद्ध न तो क्रूरता है, न ही हिंसा — यह है न्याय के लिए शौर्य का उद्घोष

2. रणनीति, मनोबल और मनोविज्ञान

भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध के केवल बाह्य कौशल की नहीं, बल्कि आंतरिक तैयारी और मनोबल की भी शिक्षा दी। वे अर्जुन को मनोवैज्ञानिक स्तर पर तैयार करते हैं — यही आज की सैन्य शिक्षा का भी मूल है।

3. निष्काम कर्म और दायित्व बोध

गीता सैनिक को यह सिखाती है कि युद्ध केवल जीतने के लिए नहीं, कर्तव्य निभाने के लिए किया जाए।

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” (गीता 2.47)
"केवल कर्म करने में तेरा अधिकार है, फल की चिंता मत कर।"

वर्तमान भारत में गीता की सैन्य उपयोगिता

आज जब भारत आतंकवाद, विचारधारा-आधारित हिंसा और सीमावर्ती संकटों से जूझ रहा है, तब गीता का यह युद्ध शास्त्रीय स्वरूप और भी प्रासंगिक हो गया है। भारतीय सेना जब "ऑपरेशन सिन्दूर" जैसे अभियानों में दुश्मनों का विनाश करती है, तो उनके लिए प्रेरणा है — गीता की यह वाणी:

“युद्धाय कृतनिश्चयः” — "युद्ध का संकल्प करो।"

गीता: युद्ध और विश्वबंधुत्व का समन्वय

यह महत्वपूर्ण है कि गीता केवल युद्ध की बात नहीं करती, बल्कि यह धर्म-संयमित युद्ध की बात करती है। युद्ध भी वही जो आत्मा, समाज, राष्ट्र और सत्य की रक्षा के लिए हो। इसी कारण यह न केवल युद्धशास्त्र, बल्कि जीवन-दर्शन का सर्वोच्च ग्रंथ भी है।

“यत्र योगेश्वर: कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥”
(गीता 18.78)
"जहाँ योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ विजय, समृद्धि और नीति निश्चय ही है।"

गीता का युद्ध शास्त्र स्वरूप: राष्ट्र के लिए संकल्प

आज के भारत में गीता केवल भक्तों का ही नहीं, बल्कि रणबांकुरों, सैनिकों और राष्ट्ररक्षकों का ग्रंथ भी बन चुकी है। जब संस्कृति, सभ्यता और अस्तित्व पर संकट हो, तब गीता हमें प्रेरणा देती है —
"धर्मस्थापनार्थ युद्ध करो, शत्रुनाशार्थ संग्राम करो, और सत्य की विजय हेतु सन्नद्ध रहो।"

अतः सभी शिक्षण संस्थाओं और भारतीय सेनाओं एवं जनता हेतु गीता को युद्ध शास्त्र के दृष्टिकोण से पढ़ना लिखना समझना और युद्ध हेतु प्रेरित होना अनिवार्य कर देना चाहिए।

लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU ।
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मोबाइल नंबर: 8920597559



Sunday, 1 June 2025

श्रीमद्भगवद्गीता एक युद्ध शास्त्र के रूप में...

डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU(लेखक/रचनाकार)

श्रीमद्भगवद्गीता न केवल एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है, बल्कि यह एक गूढ़ युद्ध शास्त्र भी है। यह ग्रन्थ केवल साधना, मोक्ष, और भक्ति की बातें नहीं करता, बल्कि यह हमें धर्म के लिए, राष्ट्र के लिए, और न्याय के लिए संगठित, सजग, और सक्रिय रूप से युद्ध के लिए तत्पर रहने की शिक्षा भी देता है। महाभारत का युद्ध कोई सामान्य युद्ध नहीं था, बल्कि यह धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध था। इसी युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध हेतु प्रेरित किया, और वहीं श्रीमद्भगवद्गीता का उदय हुआ।

श्रीमद्भगवद्गीता: युद्ध प्रेरणा का स्रोत

गीता का आरम्भ ही युद्ध से होता है, जब अर्जुन अपने सगे-संबंधियों के सामने युद्ध करने से पीछे हटता है। उस समय भगवान श्रीकृष्ण उसे याद दिलाते हैं कि यह युद्ध केवल व्यक्तिगत स्वार्थ का नहीं, बल्कि धर्म की रक्षा का माध्यम है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि पलायन नहीं, पराक्रम ही जीवन का मार्ग है।

प्रेरणादायक श्लोक :

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।
(भगवद्गीता 2.31)
"धर्म के लिए किए गए युद्ध से बढ़कर कोई कार्य क्षत्रिय(भारतीय सेना) के लिए नहीं है।"

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥
(भगवद्गीता 2.37)
"मरोगे तो स्वर्ग(सम्मान) मिलेगा, जीतोगे तो धरती पर राज्य मिलेगा; इसलिए हे अर्जुन(भारतीय सेना और सभी जन)! युद्ध के लिए संकल्प करके खड़े हो जाओ।"

युद्ध शास्त्र के तत्त्व गीता में:

  1. धर्म युद्ध की आवश्यकता:
    युद्ध तब आवश्यक हो जाता है जब अधर्म और आतंक विश्व समाज में व्याप्त हो। गीता हमें बताती है कि युद्ध तब पाप नहीं होता जब वह धर्म और न्याय की रक्षा हेतु लड़ा जाए।

  2. नैतिकता और रणनीति:
    गीता में युद्ध की नैतिकता, मनोबल, शौर्य और रणनीति को केंद्र में रखा गया है। अर्जुन का मनोबल गिरने पर कृष्ण उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से युद्ध के लिए सुदृढ़ और प्रेरित करते हैं।

  3. निष्काम कर्म:
    गीता युद्ध करते हुए फल की चिंता न करने की प्रेरणा देती है। एक योद्धा को निष्काम भाव से युद्ध करना चाहिए।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
(भगवद्गीता 2.47)
"स्वात्म की रक्षा और विश्व बंधुत्व कल्याण में  ही तुम्हारा(भारतीय जनता और सेना का) कर्तव्य और अधिकार । केवल कर्म(आतंक के विरुद्ध युद्ध)करने में है, फल में नहीं।" क्योंकि बहुत सारे कार्य और युद्ध, स्वात्म की रक्षा, विश्व बंधुत्व हेतु कल्याण, राष्ट्र की रक्षा, ग्रंथों और शास्त्रों की रक्षा संस्कृति, सभ्यता,  परंपरा की रक्षा तथा आने वाली पीढ़ी की रक्षा के लिए भी किया जाता है।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गीता: सैन्य प्रेरणा

आज के भारत में, जहाँ देश को बाहरी और आंतरिक शत्रुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ता है, वहाँ श्रीमद्भगवद्गीता सैनिकों, देशभक्तों और नीतिनिर्माताओं के लिए एक अमूल्य युद्धशास्त्र है। जब भारतीय सैनिक ऑपरेशन "सिन्दूर" जैसे अभियानों में भाग लेते हैं, तब उनका प्रेरणास्त्रोत श्रीकृष्ण की वह वाणी है जो कहती है : युद्धाय कृतनिश्चयः "युद्ध का पक्का निश्चय करके खड़े हो जाओ।"

यह भारत के सैन्य बलों के लिए एक राष्ट्रीय, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक संबल है।

गीता: विश्व बंधुत्व और युद्ध शास्त्र दोनों है: 

गीता न केवल युद्ध की प्रेरणा देती है, बल्कि धर्म-संयमित युद्ध की शिक्षा भी देती है। इसमें अधर्म के विरुद्ध संघर्ष के साथ-साथ सर्वात्म भाव, करुणा, और आत्मबोध की भावना भी है। यही कारण है कि यह एक समग्र जीवन-दर्शन और प्रबुद्ध युद्ध शास्त्र दोनों है।

अंतिम प्रेरक श्लोक :

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥ (भगवद्गीता 18.78)

"जिस राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता, परंपरा विश्व बंधुत्व और शास्त्रों में जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ विजय, समृद्धि और नीति सदा विद्यमान रहती है। तथा ऑपरेशन सिन्दूर का सफल होना सुनिश्चित ही है।

श्रीमद्भगवद्गीता केवल मोक्ष का मार्ग नहीं दिखाती, वह वीरता, धर्म, नीति और युद्ध कौशल का अमृत ग्रंथ है। आज जब भारत को आतंकी ताकतों, वैचारिक प्रदूषण और बौद्धिक एवं राजनैतिक आतंकी इत्यादि आंतरिक विघटन से जूझना पड़ रहा है, तब गीता हमें प्रेरणा देती है — "धर्मस्थापनार्थ युद्ध करो, शत्रुनाशार्थ संग्राम करो, और सत्य की विजय हेतु सन्नद्ध रहो।" यही गीता का युद्ध शास्त्र स्वरूप है।

@Dr. Raghavendra Mishra, JNU 

संपर्क सूत्र 

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