*महाभारत और पुराणों के अनुसार ब्रह्माण्ड/सृष्टि/ जगत/पृथ्वी की उत्पत्ति प्रक्रिया*
सृष्टि उत्पत्ति प्रक्रिया के विषय में कहा जाता है कि जिस प्रकार मनुष्य की श्वासोच्छ्वास प्रक्रिया स्वभाविक है, तथाविध रूप से यह सृष्टि भी उत्पन्न और विनष्ट होती हैl सृष्टि का अर्थ किसी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं, अपितु अव्यक्त का व्यक्त होना है। ‘सृष्टि' शब्द का अर्थ है- सर्गl सृष्टि, सत्तावान् जगत् का नाम रूप व्याकरण मात्र है। "अनेन जीवेनात्मनाऽनूप्रविश्य नामारव्ये व्याकरवाणि" इस प्रकार वेदान्तियों ने एक मात्र सत् तत्त्व ब्रह्म' को इस नामरूपात्मक जगत् का बीज कारण बताया है। ब्रह्म से ही समस्त भौतिक जगत् की उत्पत्ति होती है।
सृष्टि के आदि में अचेतन प्रकृति से चेतन स्वरूप के उद्भव के सन्दर्भ में ऋग्वेद का मन्तव्य समीचीन है:
ब्रह्मणस्पति संकर्मार इवा चमत्। देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत्।।"(ऋग्वेद.10/72/2)
अर्थात तुष्टि के आदि में ब्रह्मपति से देवों और असत् से सत् का प्रादुर्भाव हुआ। श्रीमदभगवद्गीता में विविध यज्ञ का रहस्य उद्घाटन करते हुए सृष्टि-प्रक्रिया का ध्वयांकन किया गया है-
अफला-कांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ।।
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरत श्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।।
विधिहीनमसृष्टान्न मन्त्रहीनमदक्षिणम्। श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।"
(श्रीमद्भगवतगीता– 17.11-13)
महाभारत में भी प्रजापति द्वारा सृष्टि रचना प्रक्रिया का सविस्तार उल्लेख प्राप्त होता है- प्रजापतिरिद सर्व मनसैवासृजत् प्रभुः । (महाभारत)
तथैव देवान् ऋषयस्तपसा प्रतिपेदिरे।। आदिदेवसमुद्भूता ब्रह्ममूलाक्षराव्यया। सा सृष्टिर्मानसी नाम धर्मतन्त्रपरायणा।।
सृष्टि उत्पत्ति प्रक्रिया के सन्दर्भ में जब हम पुराणों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करते हैं तो पाते हैं कि पौराणिक मतानुसार इस सृष्टि के मूल में एक परम तत्त्व है। पुराणों में चारों वर्गों की सृष्टि का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि सृष्टि की कामना करते हुए ब्रह्मा जी ने तमोगुण से असुरों को पैदा किया। सात्त्विक गुण से देवों को व आंशिक सत्त्वमय देहधारी पितरों का प्रादुर्भाव हुआ। तथा इसी क्रम में रजोगुण से मानव जाति को उत्पन्न किया गया।
अग्निपुराण में जगत् की सृष्टि रचना का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि श्रीभगवान ही जगत् की सृष्टि आदि के कर्ता हैं और वे सगुण व निर्गुण रूप से प्रकृति को अधिष्ठान बनाकर अपनी योग माया से सम्पूर्ण जगत् के रूप में परिणत होते है-
जगत्सर्गादिकां क्रीडां विष्णवोर्वक्ष्येऽधुनाश्रृणु।
स्वर्गादिकृत्स सर्गादिः सृष्ट्यादिः सगुणोऽगुणः।।
(अग्नि पुराण – 17/1/30)
मत्स्य पुराण में सृष्टि रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जल की उत्पत्ति के पश्चात् प्रजापति देव ने सृष्टि की अभिलाषा व्यक्त की। इस विषय में मत्स्य पुराण का मन्तव्य बड़ा ही सारगर्भित है-
स सिसृक्षुरभूद् देवः प्रजापतिररिदम।
तत्तेजसश्च तत्रैष मार्तण्डः समजायत ।।
मृतेऽण्डे जायते यस्मान्मार्तण्डस्तेन संस्मृतः।
(मत्स्य पुराण)
अर्थात् शत्रुदमन। जब उन प्रजापति देव की सृष्टि रचना की इच्छा हुई तब वहीं पर उनके तेज से ये मार्तण्ड (सूर्य) प्रादुर्भूत हुए, क्योंकि ये अण्डे के मृत हो जाने के पश्चात् उत्पन्न हुए थे, और इसीलिए ये 'मार्तण्ड' कहनाए।
भविष्य पुराण में बतलाया गया है कि अन्न से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं। अन्न से ही सम्पूर्ण संसार संचालित है। इसलिए अन्न ही लक्ष्मी है। अन्न को ही ब्रह्म मानकर सम्मान दिया गया है और उसी में सभी प्राणियों के प्राण प्रतिष्ठित है-
अन्नं ब्रह्म यतः प्रीतमन्ने प्राणा प्रतिष्ठिताः।
अन्नाद् भवन्ति भूतानि जगदन्नेन वर्धते ।।
अम्मेव यतो लवमीरग्नमेव जनार्दनः ।
धान्यपर्वतरूपेण पाहि तस्मान्नगौतम।।"
(भविष्य पुराण–195/43–44)
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सुव्यवस्थित संचालन के लिए ईश्वर-जीव एवं प्रकृति इन तीनों की सत्ता को स्वीकार किया गया है। सृष्टि विषयक ऋषि-महर्षियों के चिन्तन का अध्ययन करने से यह भी ज्ञात होता है कि विष्णु को सृष्टि रचना के मूल तत्त्व के रूप में प्रकट किया गया है. किन्तु सुष्टि रचना रूपी यज्ञ के निर्विघ्न सम्पन्न होने में ब्रह्मा, विष्णु व महेश का महनीय योगदान है। विष्णु से ब्रह्म सृष्टि रचना कर्म हेतु उद्यत होते हैं। अर्थात् विष्णु ही ब्रह्म (प्रजापति) के रूप में सम्पूर्ण जगत की रचना करते है, जबकि शेष पुराणों में शिव की प्रेरणा से सृष्टि रचना प्रक्रिया रूपी यज्ञीय कर्म सम्पन्न होता हैं इस प्रकार संस्कृत वाङ्मय की विविध विधाओं में निहित सृष्टि तत्त्व का अध्ययन करने से यह स्पष्ट द्योतित होता है कि ये ग्रन्ध सृष्टिविषयक ऋषि-मुनियों के गूढ़ एवं गहन चिन्तन से परिपूर्ण हैं।
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