*ईरान से ऋषि भृगु और भगवान परशुराम का सम्बन्ध*
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों के इतिहास-लेखक, श्रीबाल मुकुंद चतुर्वेदी के अनुसार भृगु परम तेजस्वी क्रोधी आचार्य थे। महर्षि भृगु का जन्म जिस समय हुआ, उस समय इनके पिता प्रचेता ब्रह्मा सुषानगर, जिसे बाद में पर्शिया (ईरान) कहा जाने लगा, भू-भाग के राजा थे। ब्रह्मा पद पर आसीन प्रचेता की दो 2 पत्नियां थी। पहली भृगु की माता वीरणी व दूसरी उरपुर की उर्वषी जिनके पुत्र वशिष्ठजी हुए। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी की 3 संतानें हुई। 2 पुत्र च्यवन और ऋचीक तथा 1 पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था।
च्यवन ऋषि का विवाह गुजरात के खम्भात की खाड़ी के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ऋचीक का विवाह महर्षि भृगु ने गाधिपुरी (गाजीपुर) के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि ने उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया। वैवस्वत मनु के पिता थे विवस्ववान।
महर्षि भृगु के सुषानगर से भारत के धर्मारण्य में आने की पौराणिक ग्रंथों में दो कथाएं मिलती हैं। भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्यादेवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणुका के पति भगवान विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड़ गई। इस लड़ाई में महर्षि भृगु ने पत्नी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप का साथ दिया। क्रोधित विष्णुजी ने सौतेली सास दिव्यादेवी को मार डाला। इस पारिवारिक झगड़े को आगे नहीं बढ़ने देने से रोकने के लिए भृगु मुनि को सुषानगर से बाहर चले जाने की सलाह दी गई और वे धर्मारण्य में आ गए। धर्मारण्य संभवत आज के उत्तर प्रदेश के बलिया क्षेत्र को कहते हैं। बाद में इनके वंशज गुजरात में जाकर बस गए। दो बड़ी नदियों गंगा और सरयू (घाघरा) के दोआब में बसे बलिया जिले की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक पृष्ठ्भूमि काफी समृद्ध रही है।
तो यह थी भृगु के ईरान से भारत आने की कथा। लेकिन इस पर अभी और शोध किए जाने की आवश्यकता है।
दूसरी कथा : महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या से अपने शिष्य दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया था। यहां स्नान की परम्परा लगभग सात हजार वर्ष पुरानी है। यहां स्नान एवं मेले को महर्षि भृगु ने प्रारम्भ किया था।
प्रचेता ब्रह्मा वीरणी के पुत्र महर्षि भृगु का मंदराचल पर हो रहे यज्ञ में ऋषिगणों ने त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की परीक्षा का काम सौंप दिया। इसी परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु ने क्षीर सागर में विहार कर रहे भगवान विष्णु पर पद प्रहार कर दिया। दण्ड स्वरूप महर्षि भृगु को एक दण्ड और मृगछाल देकर विमुक्त तीर्थ में विष्णु सहस्त्र नाम जप करके शाप मुक्त होने के लिए महर्षि भृगु के दादा मरीचि ऋषि ने भेजा। तब महर्षि ने यहीं तपस्या प्रारम्भ की।
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