Wednesday, 15 January 2025

 *मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार ब्रह्माण्ड/सृष्टि/जगत/पृथ्वी की उत्पत्ति प्रक्रिया*


मनुस्मृति में सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतिपादन करते हुए गया है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व अर्थात् प्रलयावस्था में यह जगत् अन्धकार से आवृत. ज्ञानरहित, लक्षणरहित, तर्करहित, अज्ञेय तथा सोया हुआ सा पड़ा था। तब अव्यक्त रूप स्वयंभू जो तमो रूप प्रकृति का प्रेरक है. उत्पन्न करने की महान शक्ति वाला भगवान् है, समस्त संसार को प्रकट करने वाला अतीन्द्रिय सूक्ष्म रूप नित्य तत्व है, सब प्राणियों का आत्मा तथा अचिन्तनीय है वह प्रकट हुआ। फिर उस परमात्मा ने सदसदात्मकप्रकृति से महत् को, महत्तत्त्व से अभिमानात्मक और सामर्थ्यशाली अहंकार को, फिर उससे सब त्रिगुणात्मकपदार्थों को, आत्मोपकारक मन को, विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियों को उत्पन्न किया। तत्पश्चात अत्याधिक शक्तिशाली छह अवयवों अर्थात् अहंकार तथा पाँच तन्मात्राओं से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति की।

(मनुस्मृति- 1/14-6)

इन तथा उनके कार्यों को परमात्मा का शरीर कहा गया है।

"वन्मृत्येवययाः सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्। तस्माच्छरीर मित्याहुस्तस्य मूर्ति मनीषिणःll ( मनुस्मृति- 1/14)

उस परमात्मा ने अपने शरीर से अनेक प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करने की इच्छा से ध्यान करके पहले अप तत्त्व की उत्पत्ति की फिर अप तत्त्व में शक्ति रूपी बीज छोड़ा। वह बीज हजारों सूर्यो की ज्योति के समान सुनहरे अच्छे में परिणत हो गया। तत्पश्चात समस्त लोकों वो पितामह ब्रह्मा उससे अपने आप उत्पन्न हुए।

सोभिध्याय शरीरात्स्वात्सिमृक्षुर्विविधाः प्रजाः।

अप एव ससर्जाडिडदौ तासु बीजमवासृजत्।।

तदण्डमभवद् हेमं सहस्राशंसमप्रभम्। तस्मिंयज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोक पितामहः।। (मनुस्मृति-1/ 8-9)

 तत्पश्चात ब्लॉक और पृथ्वी लोक समस्त दिशाएं समुद्र आदि उत्पन्न हुये।"


"तस्मिन्नण्ठे स भगवानुषित्त्वा परिवत्सरम्।

स्वयमेवोत्मनो ध्यानात्तदण्ठमकरोदद्विधा ।।

ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं भूमि च निर्ममे।

मध्ये व्योम दिशाचाष्टावपां स्थानं व शाश्वतम्।। (मनुस्मृति-1/12-13)

 उसके पश्चात उन्होंने समस्त पदार्थों के नाम, भिन्न-भिन्न कर्म, वर्षों के विभाग किये।

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।

वेदशब्देभ्य एवोदौ पृथक्संस्थाशय निर्ममे।। (मनुस्मृति-1 / 21)

तत्पश्चात अग्नि आदि से चारों वेदों की उत्पत्ति हुई समय आदि के विभाग के साथ नक्षत्र ग्रह सरिता एवं अन्य तत्व उत्पन्न हुए और इस प्रकार सारी सृष्टि को रचा।


याज्ञवल्क्य स्मृति में निरूपित सृष्टि का मूल आत्मा को कहा गया है।

निःसरन्ति यथा लोहपिण्डात्तप्तात्स्फुलिंगकाः।

सकाशादात्मनस्तद्वदात्मानः प्रभवन्ति हि ।। 

(याज्ञवत्वय रमृति-3/4/67)


वह निमित्त, अक्षर, कर्ता, बोद्धा, ब्रह्म, गुणी, स्वतन्त्र, अजन्मा होने पर भी शरीर ग्रहण करने से जन्मा है।

निमित्तमक्षरः कर्ता बोद्धा ब्रह्म गुणी यशी।

अजः शरीर ग्रहणात्स जात इति कीर्त्यते ।।

(याज्ञवल्क्य स्मृति-3/4/60)

टीकाकार विज्ञानेश्वर ने उसे वास्तव में निर्गुण किन्तु अविद्या या प्रकृति रूपी शक्ति से युक्त होने पर त्रिगुणात्मक तथा सम्पूर्ण जगत् या प्रपंच के आविर्भाव के लिए अविद्या के समावेश के वश में समवायि, असमवायि और निमित्त कारण कहा है ।"

"सत्यमात्मा सकलजगत्प्रपंचाविर्भावेविद्यासमावेशवशात्समवाय्य

समवायिनिमित्तमित्येवं स्वयमेय त्रिविधमपि कारण, न पुनः कार्यकोयिनिविष्टः ।

नचासौ निर्गुणः। यस्तस्य त्रिगुणाक्तिरविद्या प्रकृतिप्रधानद्य परपर्याया विद्यते।

अतः स्वतो निर्गुणत्प्रेपिशक्तिमुखेन सत्वादि गुणयोगी कथ्यते।।

(याज्ञवल्क्य स्मृति-मिताक्षरा व्याख्या)

परन्तु अन्यत्र स्मृतिकार ने जगत् के कारण के रूप में उसका वर्णन करते हुए कहा है कि जिस प्रकार कुम्भकार दण्ड, चक्र और मिट्टी के संयोग से घट बनाता है। गृहकारक तिनके, मिट्टी और काष्ठ से घर को बनाता है। हेमकारक स्वर्ण मात्र से अनेक आभूषण बनाता है तथा जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही लार से जाला बुनती है उसी प्रकार आत्मा भी ओत्र आदि इन्द्रियों को लेकर पृथिवी आदि साधनों से स्वयं इस संसार में विभिन्न योनियों में अपने ही शरीर की रचना करता है। इस प्रकार कुम्भ के प्रति कुम्हार के. गृह के प्रति गृहकार के तथा स्वर्ण के प्रति स्वर्णकार के उदाहरण की तुलना से वह निमित्त कारण प्रतीत होता है। परन्तु जाले के प्रति मकड़ी के उदाहरण से उसकी तुलना करने पर वह निमित्त असमवायि और उपादान कारण प्रतीत होता है। वह अनादि, आदिमान्, परमुपुरुष, सद्, असद्, सदसद् रूप है।

अनादिरादिमॉश्चौव स एवं पुरुषः परः।

लिंगेन्द्रियग्राहारूपः सविकार उदाहृतः ।।

(याज्ञवल्क्य स्मृति-3/4/183)

वह एक होते हुए भी अज्ञानवश अनेक प्रतीत होता है।


आकाशमेक हि यथा घटादिषु पृथग्भवेत्।

तथात्मैको हानेकथ्य जलाधारेष्धिवांशुमान्।। (याज्ञवल्क्य स्मृति-3/4/144)


श्रीमद्भगवद्‌गीता में तो श्री कृष्ण को ही जगत् का मूल कारण कहा गया है। वह जगत् के पिता, माता, घाता, जानने योग्य, पवित्र, ओंकार, ऋक्, यजुः, सा, गति, भर्ता प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सुहृत, उत्पत्ति- विनाश का स्थान, कोष, उत्पत्ति का कारण, परम ब्रह्म तथा परम आश्रय हैं।


परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान,

पुरुष शाश्वत दिव्यमादिदेवमज विभुम्। (श्रीमद्भगवद्‌गीता 10.12)

कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तयन, केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।

विस्तरेण्यऽत्मनो योग विभूतिं च जनार्दन, भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।

(श्री मद्भगवद्‌गीता– 17-18)

निष्कर्षतः ब्रह्म ही जगत् का निमित्त तथा उपादान दोनों कारण है। अतएव संपूर्ण जगत उसका कार्य है तथा स्वयं परब्रह्म परमात्मा इस सृष्टि का कारण।

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