Wednesday, 15 January 2025

 एचएमवी ने एक बार ग्रामोफोन रिकॉर्ड का इतिहास देते हुए एक पुस्तिका प्रकाशित की थी।                                                                   

                                                                           

ग्रामोफोन का आविष्कार थॉमस अल्वा एडिसन ने 19वीं शताब्दी में किया था। एडिसन, जिन्होंने बिजली की रोशनी और मोशन पिक्चर कैमरा जैसे कई अन्य गैजेट का आविष्कार किया था, अपने समय में भी एक किंवदंती बन गए थे।                 

                                                                           

जब उन्होंने ग्रामोफोन रिकॉर्ड का आविष्कार किया, जो मानव आवाज को रिकॉर्ड कर सकता था, तो वे अपने पहले टुकड़े पर एक प्रख्यात विद्वान की आवाज रिकॉर्ड करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्रो. मैक्स मूलर को चुना। उन्होंने उन्हें लिखा "मैं आपसे मिलना चाहता हूं और आपकी आवाज रिकॉर्ड करना चाहता हूं। मुझे कब आना चाहिए?" मैक्स मूलर जो एडिसन का बहुत सम्मान करते थे, ने उन्हें उस दिन आने के लिए कहा जब यूरोप के अधिकांश विद्वान

इंग्लैंड में एकत्र होंगे।                                             

                                                                           

तदनुसार, एडिसन एक जहाज लेकर इंग्लैंड गए। उन्हें दर्शकों से मिलवाया गया। सभी ने एडिसन की उपस्थिति पर खुशी मनाई। बाद में एडिसन के अनुरोध पर मैक्स मूलर मंच पर आए और यंत्र के सामने बोले। फिर एडिसन अपनी प्रयोगशाला में वापस चले गए और दोपहर तक एक डिस्क के साथ वापस आ गए।                                                                     

                                                                           

उन्होंने अपने यंत्र से ग्रामोफोन डिस्क बजाई। दर्शकों को वाद्ययंत्र से मैक्स मूलर की आवाज़ सुनकर बहुत खुशी हुई। वे इस बात से खुश थे कि मैक्स मूलर जैसे महान व्यक्तियों की आवाज़ को भावी पीढ़ी के लाभ के लिए संग्रहीत किया जा सकता है।                                                     

                                                                           

कई बार तालियाँ बजाने और एडिसन को बधाई देने के बाद, मैक्स मूलर ने विद्वानों को संबोधित किया "आपने सुबह मेरी मूल आवाज़ सुनी और दोपहर में भी वही आवाज़। क्या आप समझते हैं कि मैंने सुबह क्या कहा या आपने दोपहर में क्या सुना?"                             

                                                                           

कई यूरोपीय विद्वानों सहित दर्शक चुप हो गए क्योंकि वे उस भाषा को नहीं समझ पा रहे थे जिसमें मैक्स मूलर ने बात की थी। मैक्स मूलर ने तब समझाया कि वह जिस भाषा में बात कर रहे थे वह संस्कृत थी और यह ऋग्वेद थी। यह ग्रामोफोन प्लेट पर रिकॉर्ड किया गया पहला सार्वजनिक संस्करण था।                                                                                                                                       

मैक्स मूलर ने इसे क्यों चुना? उन्होंने श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा, "वेद मानव जाति का सबसे पुराना ग्रंथ है। और अग्नि मीले पुरोहितम ऋग्वेद का पहला श्लोक है। सबसे प्राचीन समय में जब यूरोप के लोग चिम्पांजी की तरह पेड़ से पेड़ पर कूद रहे थे, जब वे अपने शरीर को ढंकना नहीं जानते थे, खेती करना नहीं जानते थे और शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे और गुफाओं में रहते थे, भारतीयों ने उच्च सभ्यता प्राप्त की थी और उन्होंने दुनिया को वेदों के रूप में सार्वभौमिक दर्शन दिया।"

 *महाभारत और पुराणों के अनुसार ब्रह्माण्ड/सृष्टि/ जगत/पृथ्वी की उत्पत्ति प्रक्रिया*


सृष्टि उत्पत्ति प्रक्रिया के विषय में कहा जाता है कि जिस प्रकार मनुष्य की श्वासोच्छ्‌वास प्रक्रिया स्वभाविक है, तथाविध रूप से यह सृष्टि भी उत्पन्न और विनष्ट होती हैl सृष्टि का अर्थ किसी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं, अपितु अव्यक्त का व्यक्त होना है। ‘सृष्टि' शब्द का अर्थ है- सर्गl सृष्टि, सत्तावान् जगत् का नाम रूप व्याकरण मात्र है। "अनेन जीवेनात्मनाऽनूप्रविश्य नामारव्ये व्याकरवाणि" इस प्रकार वेदान्तियों ने एक मात्र सत् तत्त्व ब्रह्म' को इस नामरूपात्मक जगत् का बीज कारण बताया है। ब्रह्म से ही समस्त भौतिक जगत् की उत्पत्ति होती है।

सृष्टि के आदि में अचेतन प्रकृति से चेतन स्वरूप के उद्भव के सन्दर्भ में ऋग्वेद का मन्तव्य समीचीन है:


ब्रह्मणस्पति संकर्मार इवा चमत्। देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत्।।"(ऋग्वेद.10/72/2)


अर्थात तुष्टि के आदि में ब्रह्मपति से देवों और असत् से सत् का प्रादुर्भाव हुआ। श्रीमद‌भगवद्‌गीता में विविध यज्ञ का रहस्य उ‌द्घाटन करते हुए सृष्टि-प्रक्रिया का ध्वयांकन किया गया है-


अफला-कांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।

 यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ।। 

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्। 

इज्यते भरत श्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।। 

विधिहीनमसृष्टान्न मन्त्रहीनमदक्षिणम्। श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।" 

(श्रीमद्भगवतगीता– 17.11-13)


महाभारत में भी प्रजापति द्वारा सृष्टि रचना प्रक्रिया का सविस्तार उल्लेख प्राप्त होता है- प्रजापतिरिद सर्व मनसैवासृजत् प्रभुः । (महाभारत)

तथैव देवान् ऋषयस्तपसा प्रतिपेदिरे।। आदिदेवसमुद्‌भूता ब्रह्ममूलाक्षराव्यया। सा सृष्टिर्मानसी नाम धर्मतन्त्रपरायणा।।


सृष्टि उत्पत्ति प्रक्रिया के सन्दर्भ में जब हम पुराणों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करते हैं तो पाते हैं कि पौराणिक मतानुसार इस सृष्टि के मूल में एक परम तत्त्व है। पुराणों में चारों वर्गों की सृष्टि का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि सृष्टि की कामना करते हुए ब्रह्मा जी ने तमोगुण से असुरों को पैदा किया। सात्त्विक गुण से देवों को व आंशिक सत्त्वमय देहधारी पितरों का प्रादुर्भाव हुआ। तथा इसी क्रम में रजोगुण से मानव जाति को उत्पन्न किया गया।


अग्निपुराण में जगत् की सृष्टि रचना का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि श्रीभगवान ही जगत् की सृष्टि आदि के कर्ता हैं और वे सगुण व निर्गुण रूप से प्रकृति को अधिष्ठान बनाकर अपनी योग माया से सम्पूर्ण जगत् के रूप में परिणत होते है-


जगत्सर्गादिकां क्रीडां विष्णवोर्वक्ष्येऽधुनाश्रृणु।

स्वर्गादिकृत्स सर्गादिः सृष्ट्यादिः सगुणोऽगुणः।।

(अग्नि पुराण – 17/1/30)


मत्स्य पुराण में सृष्टि रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जल की उत्पत्ति के पश्चात् प्रजापति देव ने सृष्टि की अभिलाषा व्यक्त की। इस विषय में मत्स्य पुराण का मन्तव्य बड़ा ही सारगर्भित है-


स सिसृक्षुरभूद् देवः प्रजापतिररिदम।


तत्तेजसश्च तत्रैष मार्तण्डः समजायत ।।


मृतेऽण्डे जायते यस्मान्मार्तण्डस्तेन संस्मृतः।

(मत्स्य पुराण)

अर्थात् शत्रुदमन। जब उन प्रजापति देव की सृष्टि रचना की इच्छा हुई तब वहीं पर उनके तेज से ये मार्तण्ड (सूर्य) प्रादुर्भूत हुए, क्योंकि ये अण्डे के मृत हो जाने के पश्चात् उत्पन्न हुए थे, और इसीलिए ये 'मार्तण्ड' कहनाए।


भविष्य पुराण में बतलाया गया है कि अन्न से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं। अन्न से ही सम्पूर्ण संसार संचालित है। इसलिए अन्न ही लक्ष्मी है। अन्न को ही ब्रह्म मानकर सम्मान दिया गया है और उसी में सभी प्राणियों के प्राण प्रतिष्ठित है-

अन्नं ब्रह्म यतः प्रीतमन्ने प्राणा प्रतिष्ठिताः।

अन्नाद् भवन्ति भूतानि जगदन्नेन वर्धते ।।

अम्मेव यतो लवमीरग्नमेव जनार्दनः ।

धान्यपर्वतरूपेण पाहि तस्मान्नगौतम।।"

(भविष्य पुराण–195/43–44)

 

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सुव्यवस्थित संचालन के लिए ईश्वर-जीव एवं प्रकृति इन तीनों की सत्ता को स्वीकार किया गया है। सृष्टि विषयक ऋषि-महर्षियों के चिन्तन का अध्ययन करने से यह भी ज्ञात होता है कि विष्णु को सृष्टि रचना के मूल तत्त्व के रूप में प्रकट किया गया है. किन्तु सुष्टि रचना रूपी यज्ञ के निर्विघ्न सम्पन्न होने में ब्रह्मा, विष्णु व महेश का महनीय योगदान है। विष्णु से ब्रह्म सृष्टि रचना कर्म हेतु उद्यत होते हैं। अर्थात् विष्णु ही ब्रह्म (प्रजापति) के रूप में सम्पूर्ण जगत की रचना करते है, जबकि शेष पुराणों में शिव की प्रेरणा से सृष्टि रचना प्रक्रिया रूपी यज्ञीय कर्म सम्पन्न होता हैं इस प्रकार संस्कृत वाङ्मय की विविध विधाओं में निहित सृष्टि तत्त्व का अध्ययन करने से यह स्पष्ट द्योतित होता है कि ये ग्रन्ध सृष्टिविषयक ऋषि-मुनियों के गूढ़ एवं गहन चिन्तन से परिपूर्ण हैं।

 *सनातन ग्रन्थ/ज्ञान परम्परा में ब्रह्माण्ड/सृष्टि/जगत/पृथ्वी का जन्मतिथि निर्धारण और उत्पत्ति प्रक्रिया*


भारतीय सनातन संस्कृति में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (1) तिथि को सृष्टि का प्रारम्भिक दिवस माना गया है। शास्त्रों का कथन है कि सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ किया था। ब्रह्मपुराण में लिखा है-


चैत्रे मासि जगद ब्रह्मा संसर्ज प्रथमेऽहनि।

शुक्लपक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति ।। (ब्रह्मपुराण)


अर्थात् ब्रह्मा जी ने चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय होने पर सृष्टि रचना का कार्य प्रारम्भ किया, और इसीलिए भारतीय काल गणना में इस दिन से नववर्ष के प्रारम्भ की मान्यता है। इस पावन तिथि में ब्रह्मा जी की सविधि पूजा करने के उपरान्त उनसे नववर्ष के शुभ होने की प्रार्थना की जाती हैं-

भगवंस्त्वत्-प्रसादेन वर्ष क्षेममिहास्तु मे।

सवंत्सरोपसर्गा में विलयं यान्त्वशेषतः ।।(ब्रह्मपुराण)

महाभारत के शान्ति पर्व में भी अग्नि में दी गई आहुति का सूर्य को प्राप्त होना तथा सूर्य से वृष्टि व सृष्टि से अन्न तथा अन्न से प्रजा की उत्पत्ति के प्रमाण मिलते हैं।'

(महाभारत, शान्ति पर्व)

सृष्टि में आदिकाल से ही यज्ञ और मानव का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। श्रीम‌द्भगवद्गीता में मनुष्य जाति के जीवन का प्रारम्भ ही मूलतः यज्ञ से माना गया है।


सहयज्ञाः प्रजा सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक् ।।

देवान् भवायतानेन ते देवाः भावयन्तु व:।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।

(श्रीमद्भगवत गीता)

अर्थात् ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के समय यज्ञ का वैशिष्ट्य दिखलाते हुए मानव जाति की उन्नति और मनोवांछित फलों की प्राप्ति यज्ञ से ही सिद्ध की है। मूलतः यज्ञ, प्रकृति और जीवन को परिपुष्ट करने का एक वैज्ञानिक उपाय है। सूर्यादि देवों का भौतिक सृष्टि के रूप में परिणत होना तथा भौतिक सृष्टि का पुनः देवमय होने का नाम ही यज्ञ है, जो सृष्टि चक्र व सृष्टि प्रक्रिया है।

वर्षों से चली आ रही शतपथ ब्राह्मण की यह सूक्ति यज्ञ संस्कृति का बखूबी वैशिष्ट्य दर्शाती है।

महर्षि मनु ने मनुस्मृति में सृष्टि प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए कहा है कि अग्नि में विधि-विधानपूर्वक दी गई आहुति सूर्यदेव को प्राप्त होती है, तत्पश्चात् उससे वृष्टि होती है. वृष्टि से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न से प्रजा की उत्पत्ति होती है-

अग्नौ प्रास्ताहुतिर्ब्रह्मात्रादित्यमुपगच्छति।

आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।।"

(मनुस्मृति –3/76)

 *मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार ब्रह्माण्ड/सृष्टि/जगत/पृथ्वी की उत्पत्ति प्रक्रिया*


मनुस्मृति में सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतिपादन करते हुए गया है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व अर्थात् प्रलयावस्था में यह जगत् अन्धकार से आवृत. ज्ञानरहित, लक्षणरहित, तर्करहित, अज्ञेय तथा सोया हुआ सा पड़ा था। तब अव्यक्त रूप स्वयंभू जो तमो रूप प्रकृति का प्रेरक है. उत्पन्न करने की महान शक्ति वाला भगवान् है, समस्त संसार को प्रकट करने वाला अतीन्द्रिय सूक्ष्म रूप नित्य तत्व है, सब प्राणियों का आत्मा तथा अचिन्तनीय है वह प्रकट हुआ। फिर उस परमात्मा ने सदसदात्मकप्रकृति से महत् को, महत्तत्त्व से अभिमानात्मक और सामर्थ्यशाली अहंकार को, फिर उससे सब त्रिगुणात्मकपदार्थों को, आत्मोपकारक मन को, विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियों को उत्पन्न किया। तत्पश्चात अत्याधिक शक्तिशाली छह अवयवों अर्थात् अहंकार तथा पाँच तन्मात्राओं से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति की।

(मनुस्मृति- 1/14-6)

इन तथा उनके कार्यों को परमात्मा का शरीर कहा गया है।

"वन्मृत्येवययाः सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्। तस्माच्छरीर मित्याहुस्तस्य मूर्ति मनीषिणःll ( मनुस्मृति- 1/14)

उस परमात्मा ने अपने शरीर से अनेक प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करने की इच्छा से ध्यान करके पहले अप तत्त्व की उत्पत्ति की फिर अप तत्त्व में शक्ति रूपी बीज छोड़ा। वह बीज हजारों सूर्यो की ज्योति के समान सुनहरे अच्छे में परिणत हो गया। तत्पश्चात समस्त लोकों वो पितामह ब्रह्मा उससे अपने आप उत्पन्न हुए।

सोभिध्याय शरीरात्स्वात्सिमृक्षुर्विविधाः प्रजाः।

अप एव ससर्जाडिडदौ तासु बीजमवासृजत्।।

तदण्डमभवद् हेमं सहस्राशंसमप्रभम्। तस्मिंयज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोक पितामहः।। (मनुस्मृति-1/ 8-9)

 तत्पश्चात ब्लॉक और पृथ्वी लोक समस्त दिशाएं समुद्र आदि उत्पन्न हुये।"


"तस्मिन्नण्ठे स भगवानुषित्त्वा परिवत्सरम्।

स्वयमेवोत्मनो ध्यानात्तदण्ठमकरोदद्विधा ।।

ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं भूमि च निर्ममे।

मध्ये व्योम दिशाचाष्टावपां स्थानं व शाश्वतम्।। (मनुस्मृति-1/12-13)

 उसके पश्चात उन्होंने समस्त पदार्थों के नाम, भिन्न-भिन्न कर्म, वर्षों के विभाग किये।

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।

वेदशब्देभ्य एवोदौ पृथक्संस्थाशय निर्ममे।। (मनुस्मृति-1 / 21)

तत्पश्चात अग्नि आदि से चारों वेदों की उत्पत्ति हुई समय आदि के विभाग के साथ नक्षत्र ग्रह सरिता एवं अन्य तत्व उत्पन्न हुए और इस प्रकार सारी सृष्टि को रचा।


याज्ञवल्क्य स्मृति में निरूपित सृष्टि का मूल आत्मा को कहा गया है।

निःसरन्ति यथा लोहपिण्डात्तप्तात्स्फुलिंगकाः।

सकाशादात्मनस्तद्वदात्मानः प्रभवन्ति हि ।। 

(याज्ञवत्वय रमृति-3/4/67)


वह निमित्त, अक्षर, कर्ता, बोद्धा, ब्रह्म, गुणी, स्वतन्त्र, अजन्मा होने पर भी शरीर ग्रहण करने से जन्मा है।

निमित्तमक्षरः कर्ता बोद्धा ब्रह्म गुणी यशी।

अजः शरीर ग्रहणात्स जात इति कीर्त्यते ।।

(याज्ञवल्क्य स्मृति-3/4/60)

टीकाकार विज्ञानेश्वर ने उसे वास्तव में निर्गुण किन्तु अविद्या या प्रकृति रूपी शक्ति से युक्त होने पर त्रिगुणात्मक तथा सम्पूर्ण जगत् या प्रपंच के आविर्भाव के लिए अविद्या के समावेश के वश में समवायि, असमवायि और निमित्त कारण कहा है ।"

"सत्यमात्मा सकलजगत्प्रपंचाविर्भावेविद्यासमावेशवशात्समवाय्य

समवायिनिमित्तमित्येवं स्वयमेय त्रिविधमपि कारण, न पुनः कार्यकोयिनिविष्टः ।

नचासौ निर्गुणः। यस्तस्य त्रिगुणाक्तिरविद्या प्रकृतिप्रधानद्य परपर्याया विद्यते।

अतः स्वतो निर्गुणत्प्रेपिशक्तिमुखेन सत्वादि गुणयोगी कथ्यते।।

(याज्ञवल्क्य स्मृति-मिताक्षरा व्याख्या)

परन्तु अन्यत्र स्मृतिकार ने जगत् के कारण के रूप में उसका वर्णन करते हुए कहा है कि जिस प्रकार कुम्भकार दण्ड, चक्र और मिट्टी के संयोग से घट बनाता है। गृहकारक तिनके, मिट्टी और काष्ठ से घर को बनाता है। हेमकारक स्वर्ण मात्र से अनेक आभूषण बनाता है तथा जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही लार से जाला बुनती है उसी प्रकार आत्मा भी ओत्र आदि इन्द्रियों को लेकर पृथिवी आदि साधनों से स्वयं इस संसार में विभिन्न योनियों में अपने ही शरीर की रचना करता है। इस प्रकार कुम्भ के प्रति कुम्हार के. गृह के प्रति गृहकार के तथा स्वर्ण के प्रति स्वर्णकार के उदाहरण की तुलना से वह निमित्त कारण प्रतीत होता है। परन्तु जाले के प्रति मकड़ी के उदाहरण से उसकी तुलना करने पर वह निमित्त असमवायि और उपादान कारण प्रतीत होता है। वह अनादि, आदिमान्, परमुपुरुष, सद्, असद्, सदसद् रूप है।

अनादिरादिमॉश्चौव स एवं पुरुषः परः।

लिंगेन्द्रियग्राहारूपः सविकार उदाहृतः ।।

(याज्ञवल्क्य स्मृति-3/4/183)

वह एक होते हुए भी अज्ञानवश अनेक प्रतीत होता है।


आकाशमेक हि यथा घटादिषु पृथग्भवेत्।

तथात्मैको हानेकथ्य जलाधारेष्धिवांशुमान्।। (याज्ञवल्क्य स्मृति-3/4/144)


श्रीमद्भगवद्‌गीता में तो श्री कृष्ण को ही जगत् का मूल कारण कहा गया है। वह जगत् के पिता, माता, घाता, जानने योग्य, पवित्र, ओंकार, ऋक्, यजुः, सा, गति, भर्ता प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सुहृत, उत्पत्ति- विनाश का स्थान, कोष, उत्पत्ति का कारण, परम ब्रह्म तथा परम आश्रय हैं।


परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान,

पुरुष शाश्वत दिव्यमादिदेवमज विभुम्। (श्रीमद्भगवद्‌गीता 10.12)

कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तयन, केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।

विस्तरेण्यऽत्मनो योग विभूतिं च जनार्दन, भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।

(श्री मद्भगवद्‌गीता– 17-18)

निष्कर्षतः ब्रह्म ही जगत् का निमित्त तथा उपादान दोनों कारण है। अतएव संपूर्ण जगत उसका कार्य है तथा स्वयं परब्रह्म परमात्मा इस सृष्टि का कारण।

Monday, 13 January 2025

सनातन संस्कृति में ब्राह्मण में क्षमा का भाव 


 बेटा! हमलोग ब्राह्मण हैं। क्षमाके प्रभावसे ही हम संसारमें पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सबके दादा ब्रह्माजी भी क्षमाके बलसे ही ब्रह्मपदको प्राप्त हुए हैं॥ ३९॥

वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः । यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात् पदम् ॥ 9.15.39, भागवत पुराण ll

*पुराण के अनुसार ॐ (ओम), तीन वेद और तीन अग्नि की उत्पत्ति*


फिर उर्वशीलोककी इच्छासे पुरूरवाने उन तीनों अग्नियर्योद्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान् श्रीहरिका यजन किया ॥ ४७ ॥

तेनायजत यज्ञेशं भगवन्तमधोक्षजम्। उर्वशीलोकमन्विच्छन् सर्वदेवमयं हरिम् ॥ ४७

एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्ववाङ्मयः । देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८

परीक्षित् । त्रेताके पूर्व सत्ययुगमें एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसीके अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक 'हंस' ही था ॥ ४८ ॥ परीक्षित् ! त्रेताके प्रारम्भमें पुरूरवासे ही वेदत्रयी और अग्नित्रयीका आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निको सन्तानरूपसे स्वीकार करके गन्धर्वलोककी प्राप्ति की ॥ ४९ ॥

पुरूरवस एवासीत् त्रयी त्रेतामुखे नृप। अग्निना प्रजया राजा लोकं गान्धर्वमेयिवान् ॥ ४९

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे ऐलोपाख्याने चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥


*सनातन ज्ञान/ग्रन्थ परम्परा में उज्जैन*

आधुनिक लोग अवन्तिकापुरी को उज्जैन कहते हैं। उज्जैनका दूसरा नाम महाकालपुरी भी है। महाकालपुरीका नाम प्रत्येक युगमें परिवर्तित होता रहता है। इसके सम्बन्धमें कहा गया है-

*कल्पे कल्पेऽखिलं विश्वं कालयेद्यः स्वलीलया।*

*तं कालं कलयित्वा यो महाकालोऽभवत्किल ॥*

(स्क०, का० ख० ७।९१)

*इस स्थान को पृथ्वीका नाभिदेश कहा गया है।* 

द्वादश ज्योतिर्लिंगोंमें महाकाल लिंग यहीं है और इक्यावन शक्तिपीठोंमें यहाँ एक शक्तिपीठ भी है। द्वापर में श्रीकृष्ण-बलराम यहीं महर्षि सांदीपनिके आश्रममें अध्ययन करने आये थे। महाराज विक्रमादित्यके समयमें उज्जयिनी भारतकी राजधानी थी। भारतीय ज्यौतिषशास्त्रमें देशान्तरकी शून्य रेखा उज्जयिनीसे प्रारम्भ हुई मानी जाती थी। यह सप्तपुरियोंमें एक पुरी है। यहाँ बारहवें वर्षमें कुम्भका मेला लगता है।

नारदपुराणका कथन है कि अवन्तीतीर्थका तथा देववन्द्य भगवान्‌का माहात्म्य अपार है। महाकाल वन परम पवित्र एवं परम उत्तम तपोभूमि है। महाकाल वनसे बढ़कर दूसरा कोई क्षेत्र इस पृथ्वीपर नहीं है। यहाँ कपालयोग नामक तीर्थ है, जिसमें भक्तिपूर्वक स्नान करनेसे ब्रह्महत्यारा मनुष्य भी शुद्ध हो जाता है।

अवन्तीके प्रत्येक कल्पमें भिन्न-भिन्न नाम होते हैं। यथा-कनकशृंगा, कुशस्थली, अवन्तिका, पद्मावती, कुमुद्वती, उज्जयिनी, विशाला और अमरावती। जो मनुष्य शिप्रा नदीमें स्नान करके भगवान् महेश्वरका पूजन करता है, वह महादेवजी तथा महादेवीकी कृपासे सम्पूर्ण कामनाओंको पा लेता है।


@Dr. Raghavendra Mishra 

 *परशुराम भगवान के सम्पूर्ण विश्व में चिन्ह*

भगवान परशुराम जी से संबंधित प्रसंग पूरे विश्व में मिलते हैं। उनके विभिन्न नामों में एक नाम भृगुराम भी है। यह शब्द अपभ्रंश होकर बगराम बना। अफगानिस्तान में भी बगराम नामक स्थान है, यहां विमानतल भी बना है। एक बगराम नगर ईराक में भी है। लैटिन अमेरिका की खुदाई में श्रीयंत्र जैसी आकृति निकली है। भगवान परशुराम जी के कहने पर मय दानव पाताल गया था। संभवतः मय दानव से ही लैटिन अमेरिका की “मायन सभ्यता” विकसित हुई होगी। रोम की खुदाई में पत्थर पर उकेरी गई एक ऐसी आकृति निकली, जिसके कंधे पर धनुष बाण है और परशु जैसा शस्त्र भी। यद्यपि इस आकृति के सिर पर टोप तो रोमन है, परंतु परशु और धनुष बाण धारण करने वाले एक मात्र परशुराम जी हैं। संभव है कि रूस नाम ऋषिका का अपभ्रंश हो। लेकिन इस पर व्यापक शोध की आवश्यकता है। मैक्समूलर की एक पुस्तक है “हम भारत से क्या सीखें” इस पुस्तक के अनुसार संसार का ज्ञान भारत से ईरान पहुँचा और ईरान से पूरे विश्व में। इस कथन से भी यह धारणा प्रबल होती है कि विश्व में जो परशुराम जी से मिलते जुलते शब्द या चिन्ह मिलते हैं, वे सब परशुराम जी से ही संबंधित हो सकते हैं।

इस प्रकार भगवान परशुराम जी का अवतार विश्व व्यापक है, सबसे प्रचण्ड है और संसार में अधर्म का नाश करके सत्य की स्थापना करने वाला है।

 *ईरान से ऋषि भृगु और भगवान परशुराम का सम्बन्ध*



माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों के इतिहास-लेखक, श्रीबाल मुकुंद चतुर्वेदी के अनुसार भृगु परम तेजस्वी क्रोधी आचार्य थे। महर्षि भृगु का जन्म जिस समय हुआ, उस समय इनके पिता प्रचेता ब्रह्मा सुषानगर, जिसे बाद में पर्शिया (ईरान) कहा जाने लगा, भू-भाग के राजा थे। ब्रह्मा पद पर आसीन प्रचेता की दो 2 पत्नियां थी। पहली भृगु की माता वीरणी व दूसरी उरपुर की उर्वषी जिनके पुत्र वशिष्ठजी हुए। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी की 3 संतानें हुई। 2 पुत्र च्यवन और ऋचीक तथा 1 पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था।


च्यवन ऋषि का विवाह गुजरात के खम्भात की खाड़ी के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ऋचीक का विवाह महर्षि भृगु ने गाधिपुरी (गाजीपुर) के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि ने उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया। वैवस्वत मनु के पिता थे विवस्ववान।


महर्षि भृगु के सुषानगर से भारत के धर्मारण्य में आने की पौराणिक ग्रंथों में दो कथाएं मिलती हैं। भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्यादेवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणुका के पति भगवान विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड़ गई। इस लड़ाई में महर्षि भृगु ने पत्नी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप का साथ दिया। क्रोधित विष्णुजी ने सौतेली सास दिव्यादेवी को मार डाला। इस पारिवारिक झगड़े को आगे नहीं बढ़ने देने से रोकने के लिए भृगु मुनि को सुषानगर से बाहर चले जाने की सलाह दी गई और वे धर्मारण्य में आ गए। धर्मारण्य संभवत आज के उत्तर प्रदेश के बलिया क्षेत्र को कहते हैं। बाद में इनके वंशज गुजरात में जाकर बस गए। दो बड़ी नदियों गंगा और सरयू (घाघरा) के दोआब में बसे बलिया जिले की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक पृष्ठ्भूमि काफी समृद्ध रही है।


तो यह थी भृगु के ईरान से भारत आने की कथा। लेकिन इस पर अभी और शोध किए जाने की आवश्यकता है।


दूसरी कथा : महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या से अपने शिष्य दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया था। यहां स्नान की परम्परा लगभग सात हजार वर्ष पुरानी है। यहां स्नान एवं मेले को महर्षि भृगु ने प्रारम्भ किया था।


प्रचेता ब्रह्मा वीरणी के पुत्र महर्षि भृगु का मंदराचल पर हो रहे यज्ञ में ऋषिगणों ने त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की परीक्षा का काम सौंप दिया। इसी परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु ने क्षीर सागर में विहार कर रहे भगवान विष्णु पर पद प्रहार कर दिया। दण्ड स्वरूप महर्षि भृगु को एक दण्ड और मृगछाल देकर विमुक्त तीर्थ में विष्णु सहस्त्र नाम जप करके शाप मुक्त होने के लिए महर्षि भृगु के दादा मरीचि ऋषि ने भेजा। तब महर्षि ने यहीं तपस्या प्रारम्भ की।

Saturday, 11 January 2025

*सनातन संस्कृति में उज्जैन और महाकाल*


आधुनिक लोग अवन्तिकापुरी को उज्जैन कहते हैं। उज्जैनका दूसरा नाम महाकालपुरी भी है। महाकालपुरीका नाम प्रत्येक युगमें परिवर्तित होता रहता है। इसके सम्बन्धमें कहा गया है-


*कल्पे कल्पेऽखिलं विश्वं कालयेद्यः स्वलीलया।*

*तं कालं कलयित्वा यो महाकालोऽभवत्किल ॥*


(स्क०, का० ख० ७।९१)


*इस स्थान को पृथ्वीका नाभिदेश कहा गया है।* 

द्वादश ज्योतिर्लिंगोंमें महाकाल लिंग यहीं है और इक्यावन शक्तिपीठोंमें यहाँ एक शक्तिपीठ भी है। द्वापर में श्रीकृष्ण-बलराम यहीं महर्षि सांदीपनिके आश्रममें अध्ययन करने आये थे। महाराज विक्रमादित्यके समयमें उज्जयिनी भारतकी राजधानी थी। भारतीय ज्यौतिषशास्त्रमें देशान्तरकी शून्य रेखा उज्जयिनीसे प्रारम्भ हुई मानी जाती थी। यह सप्तपुरियोंमें एक पुरी है। यहाँ बारहवें वर्षमें कुम्भका मेला लगता है।


नारदपुराणका कथन है कि अवन्तीतीर्थका तथा देववन्द्य भगवान्‌का माहात्म्य अपार है। महाकाल वन परम पवित्र एवं परम उत्तम तपोभूमि है। महाकाल वनसे बढ़कर दूसरा कोई क्षेत्र इस पृथ्वीपर नहीं है। यहाँ कपालयोग नामक तीर्थ है, जिसमें भक्तिपूर्वक स्नान करनेसे ब्रह्महत्यारा मनुष्य भी शुद्ध हो जाता है।

अवन्तीके प्रत्येक कल्पमें भिन्न-भिन्न नाम होते हैं। यथा-कनकशृंगा, कुशस्थली, अवन्तिका, पद्मावती, कुमुद्वती, उज्जयिनी, विशाला और अमरावती। जो मनुष्य शिप्रा नदीमें स्नान करके भगवान् महेश्वरका पूजन करता है, वह महादेवजी तथा महादेवीकी कृपासे सम्पूर्ण कामनाओंको पा लेता है।

 *सनातन वैदिक साहित्य में महाकुम्भ पर्व का माहात्म्य, स्वरूप, कुम्भोत्पत्ति और महाकुम्भ की अवधारणा*


डॉ. राघवेन्द्र मिश्र (विजिटिंग फैकल्टी, NSD, नई दिल्ली और काशी विद्वत परिषद, सदस्य, काशी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश)


जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून् । बिभेद गिरिं नवभिन्न कुम्भभा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः ।।


(ऋग्वेद १०।८९।७)


'कुम्भ-पर्वमें जानेवाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मोंके फलस्वरूप अपने पापोंको वैसे ही नष्ट करता है जैसे कुठार वनको काट देता है। जिस प्रकार गंगा नदी अपने तटोंको काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्व मनुष्यके पूर्वसंचित कर्मोंसे प्राप्त हुए शारीरिक पापोंको नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़ेकी तरह बादलको नष्ट-भ्रष्टकर संसारमें सुवृष्टि प्रदान करता है।'


'कुम्भी वेद्यां मा व्यथिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषिक्ता।'


(ऋग्वेद)


'हे कुम्भ-पर्व! तुम यज्ञीय वेदीमें यज्ञीय आयुधोंसे घृतद्वारा तृप्त होनेके कारण कष्टानुभव मत करो।'


युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम् । कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः ॥


(ऋग्वेद १।११६।७)


कुम्भो वनिष्टुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योन्यां गर्भो अन्तः । प्लाशिर्व्यक्तः शतधारउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधां पितृभ्यः ॥


(शुक्लयजुर्वेद १९।८७)


'कुम्भ-पर्व सत्कर्मके द्वारा मनुष्यको इहलोकमें शारीरिक सुख देनेवाला और जन्मान्तरोंमें उत्कृष्ट सुखोंको देनेवाला है।'


आविशन्कलशः सुतो विश्वा अर्षन्नभिश्रियः । इन्दुरिन्द्राय धीयते ।।


(सामवेद, पू० ६।३)


पूर्णः कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः । स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन ॥


(अथर्ववेद १९।५३।३)


'हे सन्तगण! पूर्णकुम्भ बारह वर्षके बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थोंमें देखा करते हैं। कुम्भ उस समयको कहते हैं जो महान् आकाशमें ग्रह-राशि आदिके योगसे होता है।'

और भी कहा है-


(क) 'चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि।' (अथर्व० ४।३४।७) ब्रह्मा कहते हैं- 'हे मनुष्यो। मैं तुम्हें ऐहिक तथा आमुष्मिक सुखींको देनेवाले चार कुम्भ-पर्वोका निर्माण कर चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक) में प्रदान करता हूँ।' (


ख) 'कुम्भीका दूषीकाः पीयकान्।' (अथर्व० १६।६।८)


 *अमृत-कुम्भकी अवधारणा*


वर्तमान समयमें भी वसुधाके ओर-छोरतक किसी-न-किसी रूपमें अखिलकोटिब्रह्माण्डनायक उस परम प्रभुकी व्यापक शासन-शक्ति धर्मरूपसे निर्बाध दृष्टिगोचर हो रही है। वर्णाश्रमियोंकी सुदृढ़ताका ही फल है कि परमपिता परमेश्वर भी सदेह धरातलपर अवतीर्ण होकर सज्जन, साधु-रक्षा एवं दुष्टोंका संहार कर पृथ्वीका भार हलका करनेमें अग्रसर होते हैं-


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं परित्राणाय साधूनां विनाशाय च धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि सृजाम्यहम् ॥ दुष्कृताम्। युगे युगे ॥


(गीता ४।७-८) नाना प्रकारके पर्वोका सर्जन भी धार्मिक विज्ञानोंद्वारा ही हुआ था। सबके मूलमें कोई-न-कोई अलौकिक विशेषता विद्यमान रहती है जिसे विचारशील ही समझ पाते हैं। इन्हीं महापर्वोंमें कुम्भ-पर्व भी है जो कि भारतके हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार स्थानोंमें मनाया जाता है।


वैसे 'कुम्भ' शब्दका अर्थ साधारणतः घड़ा ही है, किन्तु इसके पीछे जनसमुदायमें पात्रताके निर्माणकी रचनात्मक शुभभावना, मंगलकामना एवं जन-मानसके उद्धारकी प्रेरणा निहित है।


यथार्थतः 'कुम्भ' शब्द समग्र सृष्टिके कल्याणकारी अर्थको अपने- आपमें समेटे हुए है-


कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्कल्याणादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बृहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वारप्रयागादितत्तत्पुण्यस्थान- विशेषानुद्दिश्य यस्मिन् सः कुम्भः ।


'पृथ्वीको कल्याणकी आगामी सूचना देनेके लिये या शुभ भविष्यके संकेतके लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्य-स्थानविशेषके उद्देश्यसे निर्मल महाकाशमें बृहस्पति आदि ग्रहराशि उपस्थित हों जिसमें, उसे 'कुम्भ' कहते हैं।'


इसके अतिरिक्त अन्यान्य जन-कल्याणकारी भावोंको भी 'कुम्भ' शब्दके शब्दार्थमें देखा जा सकता है।


पुराणोंमें कुम्भ-पर्वकी स्थापना बारहकी संख्यामें की गयी है, जिनमेंसे चार मृत्युलोकके लिये और आठ देवलोकोंके लिये हैं-


देवानां जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया ।। पापापनुत्तये नृणां चत्वारि भुवि भारते। अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरैः ॥


द्वादशाहोभिर्मत्यैर्द्वादशवत्सरैः ।


भूमण्डलके मनुष्यमात्रके पापको दूर करना ही कुम्भकी उत्पत्तिका हेतु है। यह पर्व प्रत्येक बारहवें वर्ष हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक - इन चारों स्थानोंमें होता रहता है। इन पर्वोंमें भारतके सभी प्रान्तोंसे समस्त सम्प्रदायवादी स्नान, ध्यान, पूजा-पाठादि करनेके लिये आते हैं।


क्षार-समुद्रसे पर्यवेष्टित भारतभूमि स्वभावतः मलिनताके कलंक- पंकसे युक्त है। यह पुण्यप्रक्षालित भूमि है। भौगोलिक दृष्टिसे इसके चार पवित्र स्थानोंमें उस अमृत-कुम्भकी प्रतिष्ठा हुई थी, जो उस समुद्र-मन्थनसे उद्भूत हुआ था।


कालिक दृष्टिसे ऐसे ग्रहयोग जो खगोलमें लुप्त-सुप्त अमृतत्वको प्रत्यक्ष और प्रबुद्ध कर देते हैं, चारों स्थानोंमें बारह-बारह वर्षपर अर्थात् द्वादश वर्षात्मक कालयोगसे प्रकट होते हैं। तब गंगा (हरिद्वार), त्रिवेणीजी (प्रयाग), शिप्रा (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक) - ये पतितपावनी नदियाँ अपनी जलधारामें अमृतत्वको प्रवाहित करती हैं। अर्थात् देश, काल एवं वस्तु तीनों अमृतके प्रादुर्भावके योग्य हो जाते हैं। फलस्वरूप अमृतघट या कुम्भका अवतरण होता है।

कालचक्र न केवल जीवनके क्रिया-कलापका मूलाधार है; अपितु समस्त यज्ञकर्म, अनुष्ठान एवं संस्कार आदि भी कालचक्रपर आधारित हैं। कालचक्रमें सूर्य, चन्द्रमा एवं देवगुरु बृहस्पतिका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन तीनोंका योग ही कुम्भ-पर्वका प्रमुख आधार है। जब बृहस्पति मेष राशिपर तथा चन्द्रमा सूर्य मकर राशिपर स्थित हों तब प्रयागमें अमावास्या तिथिको अति दुर्लभ कुम्भ होता है। इस स्थितिमें सभी ग्रह मित्रतापूर्ण और श्रेष्ठ होते हैं। हमारे जीवनमें जब मित्र और श्रेष्ठजनोंका मिलन होता है तभी श्रेष्ठ एवं शुभ विचारोंका उदय होता है और हमारे जीवनमें यह योग ही सुखदायक होता है।


कुम्भके अवसरपर भारतीय संस्कृति और धर्मसे अनुप्राणित सभी सम्प्रदायोंके धर्मानुयायी एकत्रित होकर अपने समाज, धर्म एवं राष्ट्रकी एकता, अखण्डता, अक्षुण्णताके लिये विचार-विमर्श करते हैं। स्नान, दान, तर्पण तथा यज्ञका पवित्र वातावरण देवताओंको भी आकृष्ट किये बिना नहीं रहता। ऐसी मान्यता है कि इस महापर्वपर सभी देवगण तथा अन्य पितर-यक्ष-गन्धर्व आदि पृथ्वीपर उपस्थित होकर न केवल मनुष्यमात्र, अपितु जीवमात्रको अपनी पावन उपस्थितिसे पवित्र करते रहते हैं।


*अमृत-कुम्भका स्वरूप एवं प्रार्थना-मन्त्र*


कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः ।


मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्थिताः ॥


कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।


ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो


ह्यथर्वणः ॥


समाश्रिताः । अङ्गैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु


'कलशके मुखमें विष्णु, कण्ठमें रुद्र, मूल भागमें ब्रह्मा, मध्य भागमें मातृगण, कुक्षिमें समस्त समुद्र, पहाड़ और पृथ्वी रहते हैं और अंगोंके सहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद भी रहते हैं।'


देवदानवसंवादे


मध्यमाने महोदधौ । उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम् ॥

त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः ।


त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ।।


शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः।


आदित्या वसवो रुद्रा त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः ।।


विश्वेदेवाः सपैतृकाः ॥


'हे कुम्भ ! देव-दानवके विवादरूपमें समुद्रके मथे जानेपर तुम्हारी उत्पत्ति हुई, जिसे साक्षात् भगवान् विष्णुने धारण किया। उस तुम्हारे जलमें समस्त तीर्थ, समस्त देवता, समस्त प्राणी, प्राण आदि स्थित रहते हैं। । तुम साक्षात् शिव, विष्णु और ब्रह्मा हो। आदित्य, वसु, रुद्र, सपैतृक विश्वेदेव आदि समस्त कार्योंके फलप्रद देवता तुम्हारेमें सर्वदा स्थित रहते हैं।'

*कुम्भोत्पत्ति*


एक समयकी बात है, दैत्यों और दानवोंने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओंपर चढ़ाई की। उस युद्धमें दैत्योंके सामने देवता परास्त हो गये, तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्निको आगे करके ब्रह्माजीकी शरणमें गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। ब्रह्माजीने कहा- 'तुमलोग मेरे साथ भगवान्‌की शरणमें चलो।' यह कहकर वे सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले क्षीरसागरके उत्तर-तटपर गये और भगवान् वासुदेवको सम्बोधित करके बोले- 'विष्णो ! शीघ्र उठिये और इन देवताओंका कल्याण कीजिये। आपकी सहायता न मिलनेसे दानव इन्हें बारम्बार परास्त करते हैं।' उनके ऐसा कहनेपर कमलके समान नेत्रवाले भगवान् अन्तर्यामी पुरुषोत्तमने देवताओंके शरीरकी अवस्था देखकर कहा-'देवगण ! मैं तुम्हारे तेजकी वृद्धि करूँगा। मैं जो उपाय बतलाता हूँ, उसे तुमलोग करो। दैत्योंके साथ मिलकर सब प्रकारकी ओषधियाँ ले आओ और उन्हें क्षीरसागरमें डाल दो। फिर मन्दराचलको मथानी और वासुकि नागको नेती (रस्सी) बनाकर समुद्रका मन्थन करते हुए उससे अमृत निकालो। इस कार्यमें मैं तुमलोगोंकी सहायता करूँगा। समुद्रका मन्थन करनेपर जो अमृत निकलेगा, उसका पान करनेसे तुमलोग बलवान् और अमर हो जाओगे।'

देवाधिदेव भगवान्के ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता दैत्योंके साथ सन्धि करके अमृत निकालनेके यत्नमें लग गये-


अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कलशोत्पत्तिमुत्तमाम् ।


उत्तरे हिमवत्पार्श्व क्षीरोदो नाम सागरः ।।


आरब्धं मन्थनं तत्र देवैर्दानवपूर्वकैः ।


मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम् ॥


मूले कूर्मन्तु संस्थाप्य विष्णोर्बाहू च मन्दरे।


एकत्र देवताः सर्वे बलिमुख्यास्तथैकतः ।।


मध्यमाने तदा तस्मिन् क्षीरोदे सागरोत्तमे।


उत्पन्नं गरलं पूर्व शम्भुना भक्षितं च तत् ॥


अथ स्वास्थ्यं गते लोके प्रकथ्यन्तेऽद्य तानि हि।


उत्पन्नानि च रत्नानि यानि तत्र महान्ति च ॥


विमानं पुष्पकं पूर्वमुत्तमं हंसवाहनम् ।


नाग ऐरावतश्चैव पादपः पारिजातकः ॥


वीणावाद्यान्तरं चैव रम्भा नृत्यगुणान्विता ।


मणिरत्नं कौस्तुभाख्यं बालचन्द्रस्तथैव च॥


कुण्डलानि धनुश्चैव गावः पञ्च शिवास्तथा।


लक्ष्मीः सुरूपा यमुना सुशीला सुरभिस्तथा ॥


उच्चैःश्रवाः समुत्पन्नो लक्ष्मीश्च वरवर्णिनी।


तथा धन्वन्तरिर्देवो विश्वकर्मा कलाविदः ॥


कलशश्च समुद्भूतो धन्वन्तरिकरोल्लसन् ।


मुखान्तं सुधया पूर्णः सर्वेषां हि मनोहरः ॥


अजितस्य पदाम्भोजकृपयैव समुद्रगतम् ।


क्षीराब्धिलोडनोद्भूतं कलशान्तेन्द्ररत्नकम् ॥


दृष्ट्वा तु तत्क्षणादेव महाबलपराक्रमः ।


जयन्तोऽमृतमादाय गतो देवप्रचोदितः ।।


देवकर्मसमालोच्य तदा दैत्यपुरोधसा।


नागोच्छ्‌वासप्रव्यथिता दैत्याः शुक्रेण सूचिताः ॥


जग्मुस्ते पृष्ठतो लग्ना भीतः सोऽपि पलायितः ।


दिशो दश दिवारात्रं द्वादशाहं प्रपीडितः ॥


दैत्यैगृहीतस्तद्धस्तात् तेनापि पुनरेव सः। अहं पिबेयं पूर्व तु न त्वञ्चेति विचुक्रुधुः ॥


एवं काश्यपेषु विवदमानेषु सुधाग्रहे। भगवान् मोहयित्वा तान् मोहिन्या विभजत् सुधाम् ॥


विवादे यत्र काश्यपेयानां यत्रावनिस्थले। तदोच्यते ॥ कलहाक्रान्तचेतोभिर्दैत्यैः शुक्रप्रचोदितैः ॥ चन्द्रः प्रस्त्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ । दैत्येभ्यश्च गुरू रक्षां शौरिदेवेन्द्रजाद् भयात् ॥ देवानां द्वादशाहोभिर्मत्यैर्द्वादशवत्सरैः ।


कलशो न्यपतत्तत्र कुम्भपर्व निपातितः । गुर्वीन्द्वर्कस्वपुत्रैश्च कुम्भोऽरक्षि


सूर्येन्दुगुरुसंयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे। सुधाकुम्भप्लवे भूमौ कुम्भो भवति नान्यथा ॥


जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया ॥


तत्राघनुत्तये नृणां चत्वारो भुवि भारते।


अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरैः ॥


कल्पते। तान्येति यः पुमान् योगे सोऽमृतत्वाय देवा नमन्ति तत्रस्थान् यथा रङ्का धनाधिपान् ॥ पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते ।


विष्णुद्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां सुधाविन्दुविनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति गोदावरीतटे ॥ विश्रुतम् ॥


(स्कन्दपुराण)


'तत्पश्चात् देवता और दानवोंने पृथ्वीके उत्तर भागमें हिमालयके समीप क्षीरोदसिन्धुमें मन्थन किया, जिसमें मन्दराचल 'मन्थनदण्ड' था, वासुकी 'नेती' थे, कच्छपरूपधारी भगवान् मन्दराचलके पृष्ठभाग थे और भगवान् विष्णु उक्त मन्थन-दण्डको पकड़े हुए थे, तदनन्तर उस क्षीरसागरसे चौदह रत्न-लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चन्द्रमा, गरल, पुष्पक, ऐरावत, पांचजन्य शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैःश्रवा और अमृत-कुम्भ निकले। उन्हीं रत्नोंमेंसे अमृत-कुम्भके निकलते ही देवताओंके इशारे से इन्द्रपुत्र 'जयन्त' अमृत कलशको लेकर आकाशमें उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार दैत्योंने अमृतको वापस लेनेके लिये जयन्तका पीछा किया और घोर परिश्रमके बाद उन्होंने बीच रास्तेमें ही जयन्तको पकड़ा। तत्पश्चात् अमृत कलशपर अधिकार जमानेके लिये देव-दानवोंमें बारह दिनतक अविराम युद्ध होता रहा। परस्पर इस मार-काटके समयमें पृथिवीके चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश गिरा था, उस समय चन्द्रमाने घटसे प्रस्त्रवण होनेसे, सूर्यने घट फूटनेसे, गुरुने दैत्योंके अपहरणसे एवं शनिने देवेन्द्रके भयसे घटकी रक्षा की। कलह शान्त करनेके लिये भगवान्ने मोहिनीरूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव-युद्धका अन्त किया गया।


अमृत-प्राप्तिके लिये देव-दानवोंमें परस्पर बारह दिनपर्यन्त निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओंके बारह दिन मनुष्योंके बारह वर्षके तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमेंसे चार कुम्भ पृथ्वीपर होते हैं और अवशिष्ट आठ कुम्भ देवलोकमें होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्योंकी वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समयमें चन्द्रादिकोंने कलशकी रक्षा की थी, उस समयकी वर्तमान राशियोंपर रक्षा करनेवाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भका योग होता है अर्थात् जिस वर्ष, जिस राशिपर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पतिका संयोग होता है उसी वर्ष, उसी राशिके योगमें जहाँ-जहाँ अमृत-कुम्भ-सुधा-विन्दु गिरा था, वहाँ-वहाँ कुम्भ-पर्व होता है।'


*कुम्भ-पर्व के आद्यप्रवर्तक शंकराचार्य*


जिस कुम्भ-पर्वका उल्लेख वेदों और पुराणोंमें मिलता है, उसकी प्राचीनताके सम्बन्धमें तो किसीको संदेह होनेका अवसर ही नहीं है।


किन्तु यह बात अवश्य विचारणीय है कि कुम्भ-मेलेका धार्मिक रूपमें प्रसार करनेका श्रीगणेश किसने किया ? इस विषयमें बहुत अन्वेषण करनेपर सिद्ध होता है कि कुम्भ मेलेको प्रवर्तित करनेवाले भगवान् शंकराचार्य हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कुम्भ-पर्वके प्रचारकी व्यवस्था केवल धार्मिक संस्कृतिको सुदृढ़ करनेके लिये किया था।


उन्हींके आदर्शानुसार आज भी कुम्भ-पर्वके चारों सुप्रसिद्ध तीर्थोंमें सभी सम्प्रदायोंके साधु-महात्मागण देश-काल-परिस्थितिके अनुरूप लोक- कल्याणकी दृष्टिसे धर्मका प्रचार करते हैं, जिससे समस्त मानव- समाजका कल्याण होता है।


भगवान् शंकराचार्यजीके कुम्भ-प्रवर्तक होनेके कारण ही आज भी कुम्भ-पर्वका मेला मुख्यतः साधुओंका ही माना जाता है। वस्तुतः साधु- मण्डली ही कुम्भका जीवन है। भगवान् शंकराचार्यने जिस महान् उद्देश्यकी पूर्तिके लिये कुम्भ-पर्वको प्रवर्तित किया था, आज उसमें जो आवश्यकतासे अधिक कमी आ गयी है, वह किसीसे छिपी नहीं है।


आज प्रत्येक गृहस्थ एवं साधु-महात्माओंको चाहिये कि पुनः भगवान् शंकराचार्यजीके सदुद्देश्यकी पूर्तिमें मनसा, वाचा प्रवृत्त होकर अपना और देशका कल्याण कर कुम्भ-पर्वके महत्त्वको सुरक्षित रखें।


*कुम्भ(प्रतिवर्ष), अर्धकुम्भ(छह वर्ष में),  पूर्णकुम्भ(12 वर्ष में) और महाकुम्भ(144 वर्ष में) की अवधारणा*


सनातन समाज में प्राचीन कालसे ही कुम्भ-पर्व मनाने की पद्धति चली आ रही है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चारों स्थानोंमें क्रमशः बारह-बारह वर्षपर पूर्णकुम्भका मेला लगता है, जबकि हरिद्वार तथा प्रयागमें अर्धकुम्भ-पर्व भी मनाया जाता है; किन्तु यह अर्धकुम्भ-पर्व उज्जैन और नासिकमें नहीं होता।

अर्धकुम्भ-पर्वके प्रारम्भ होनेके सम्बन्धमें कुछ लोगोंका विचार है कि मुगल-साम्राज्यमें हिन्दू-धर्मपर जब अधिक कुठाराघात होने लगा उस समय चारों दिशाओंके शंकराचार्योंने हिन्दू-धर्मकी रक्षाके लिये हरिद्वार एवं प्रयागमें साधु-महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानोंको बुलाकर विचार-विमर्श किया था, तभीसे हरिद्वार और प्रयागमें अर्धकुम्भ-मेला होने लगा। शास्त्रोंमें जहाँ कुम्भ-पर्वकी चर्चा प्राप्त है, वहाँ पूर्णकुम्भका ही उल्लेख मिलता है-


पूर्णः कुम्भोऽधि काल अहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः। स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥


(अथर्ववेद १९। ५३ । ३)


'हे सन्तगण ! पूर्णकुम्भ बारह वर्षके बाद आता है, जिसे हम अनेक बार हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार तीर्थस्थानोंमें देखा करते हैं। कुम्भ उस कालविशेषको कहते हैं, जो महान् आकाशमें ग्रह- राशि आदिके योगसे होता है।'


हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक- इन चारों स्थानोंमें प्रत्येक बारहवें वर्षमें कुम्भ पड़ता है। किन्तु इन चारों स्थानोंके कुम्भ-पर्वका क्रम इस प्रकार निर्धारित है, मेष या वृषके बृहस्पतिमें जब सूर्य, चन्द्रमा दोनों मकर राशिपर आते हैं तब प्रयागमें कुम्भ-पर्व होता है। इसके पश्चात् वर्षोंका अन्तराल जो भी हो, जब बृहस्पति सिंहमें होते हैं और सूर्य मेष राशिपर रहता है तो उज्जैनमें कुम्भ लगता है। उसी बार्हस्पत्य वर्षमें जब सूर्य सिंहपर रहता है तो नासिकमें कुम्भ लगता है। तत्पश्चात् लगभग छः बार्हस्पत्य वर्षोंके अन्तरालपर जब बृहस्पति कुम्भ राशिपर रहता है और सूर्य मेषपर तब हरिद्वारमें कुम्भ होता है। इनके मध्यमें छः-छः वर्षके अन्तरसे केवल हरिद्वार और प्रयागमें अर्धकुम्भ होता है।


यथार्थतः पूर्वाचार्योद्वारा स्थापित अर्धकुम्भ-पर्वका माहात्म्य अपार है; क्योंकि अर्धकुम्भ-पर्वका उद्देश्य पूर्णकुम्भकी तरह विशेष पवित्र और लोकोपकारक है। लोकोपकारक पर्वोंसे धर्मके प्रचारके साथ-साथ देश और समाजका महान् कल्याण सुनिश्चित है।

कुम्भका पर्व हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार तीर्थस्थानोंमें मनाया जाता है। ये चारों ही एकसे बढ़कर एक परम पवित्र तीर्थ हैं। इन चारों तीर्थोंमें प्रत्येक बारह वर्षके बाद कुम्भ-पर्व होता है-


गंगाद्वारे प्रयागे च कुम्भाख्येयस्तु योगोऽयं प्रोच्यते शङ्करादिभिः ॥ धारागोदावरीतटे ।


'गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग, धारानगरी (उज्जैन) और गोदावरी (नासिक)- में शंकरादि देवगणने 'कुम्भयोग' कहा है।'


कुम्भ भगवान्‌का मंदिर है। इसकी झाँकी उक्त चारों स्थानोंमें प्रत्येक बारहवें वर्षमें होती है। हरिद्वार आदि चारों स्थानोंके कुम्भ-पर्वका अलग- अलग समय तथा महत्त्व आदि विषयोंका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार प्रस्तुत है-


*(१) हरिद्वार*


पद्मिनीनायके मेषे कुम्भराशिगते गुरौ। गंगाद्वारे भवेद्योगः कुम्भनामा तदोत्तमः ॥


(स्कन्दपुराण)


'जिस समय बृहस्पति कुम्भ राशिपर स्थित हो और सूर्य मेष राशिपर रहे, उस समय गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुम्भ-योग होता है।'


वसन्ते विषुवे चैव घटे देवपुरोहिते। गंगाद्वारे च कुम्भाख्यः सुधामेति नरो यतः ॥


अथवा


हरिद्वारमें कुम्भके तीन स्नान होते हैं। यहाँ कुम्भका प्रथम स्नान शिवरात्रिसे प्रारम्भ होता है। द्वितीय स्नान चैत्रकी अमावास्याको होता है। तृतीय स्नान (प्रधान स्नान) चैत्रके अन्तमें अथवा वैशाखके प्रथम दिनमें अर्थात् जिस दिन बृहस्पति कुम्भ राशिपर और सूर्य मेष राशिपर हो उस दिन कुम्भस्नान होता है।


*(२) प्रयाग*


मेषराशिं गते जीवे अमावास्या तदा योगः मकरे चन्द्रभास्करौ। कुम्भाख्यस्तीर्थनायके ॥


(स्कन्दपुराण)


'जिस समय बृहस्पति मेष राशिपर स्थित हो तथा चन्द्रमा और सूर्य मकर राशिपर हो तो उस समय तीर्थराज प्रयागमें कुम्भ-योग होता है।'


अथवा


मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च बृहस्पतौ। कुम्भयोगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यतिदुर्लभः ।।


प्रयागमें कुम्भके तीन स्नान होते हैं। यहाँ कुम्भका प्रथम स्नान मकरसंक्रान्ति (मेष राशिपर बृहस्पतिका संयोग होने) से प्रारम्भ होता है। द्वितीय स्नान (प्रधान स्नान) माघ कृष्णा मौनी अमावास्याको होता है। तृतीय स्नान माघ शुक्ला वसन्तपंचमीको होता है।


(३) उज्जैन (अवन्तिका) बृहस्पतौ । मेषराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ उज्जयिन्यां भवेत् कुम्भः सदा मुक्तिप्रदायकः ॥


'जिस समय सूर्य मेष राशिपर हो और बृहस्पति सिंह राशिपर हो तो उस समय उज्जैनमें कुम्भ-योग होता है।'


(४) सिंहस्थ कुम्भ, नासिक - त्र्यम्बकेश्वर गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ । सिंहराशिं गोदावर्यां भवेत्कुम्भो भक्तिमुक्तिप्रदायकः ॥


'जिस समय सूर्य तथा बृहस्पति सिंह राशिपर हों तो उस समय नासिकमें मुक्तिप्रद कुम्भ होता है।'


गोदावरीके रम्य तटपर स्थित नासिकमें कुम्भ-मेला लगता है। इसके लिये सिंह राशिका बृहस्पति एवं सिंह राशिका सूर्य आवश्यक है। इस पर्वका स्नान भाद्रपदमें अमावास्या तिथिको होता है। देवगुरु बृहस्पति जबतक विश्वात्मा सूर्यनारायणके साथ सिंह राशिमें रहते हैं तबतकका समय सिंहस्थ कहलाता है। इस सिंहस्थ कालमें श्रीनासिक तीर्थकी यात्रा, पवित्र गोदावरी नदीमें स्नान एवं त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंगके दर्शन-लाभका बड़ा माहात्म्य है। यहीं पंचवटीमें भगवान् श्रीरामने वनवासका दीर्घकाल व्यतीत किया था।


*कुम्भ-पर्वका माहात्म्य*


हिन्दू-धर्मशास्त्र कुम्भ-पर्वकी महिमासे भरे पड़े हैं। स्कन्दपुराणका वचन है-


तान्येव यः पुमान् योगे सोऽमृतत्वाय कल्पते। देवा नमन्ति तत्रस्थान् यथा रङ्का धनाधिपान् ।।


(स्कन्दपुराण)


'जो मनुष्य कुम्भ-योगमें स्नान करता है, वह अमृतत्व (मुक्ति)-की प्राप्ति करता है। जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य सम्पत्तिशालीको नम्रतासे अभिवादन करता है, उसी प्रकार कुम्भ-पर्वमें स्नान करनेवाले मनुष्यको देवगण नमस्कार करते हैं।'


संक्षेपमें हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन तथा नासिकमें कुम्भ-स्नानका महत्त्व इस प्रकार है-


*१. हरिद्वार-स्नानकी महिमा*


कुम्भराशिं गते जीवे तथा मेषे गते रवौ। हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्तिवर्जनम् ॥


'कुम्भ राशिमें बृहस्पति हो तथा मेष राशिपर सूर्य हो तो हरिद्वारके कुम्भमें स्नान करनेसे मनुष्य पुनर्जन्मसे रहित हो जाता है।'


*२. प्रयाग-स्नानकी महिमा*


सहस्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च। वैशाखे नर्मदा कोटिः कुम्भस्नानेन तत्फलम् ॥


(स्कन्दपुराण)


'कार्तिक महीनेमें एक हजार बार गंगामें स्नान करनेसे, माघमें सौ बार गंगामें स्नान करनेसे और वैशाखमें करोड़ बार नर्मदामें स्नान करनेसे जो फल होता है, वह प्रयागमें कुम्भ-पर्वपर केवल एक ही बार स्नान करनेसे प्राप्त होता है।'


विष्णुपुराणमें भी कहा गया है-


अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च। लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत्फलम् ॥


हजार अश्वमेध यज्ञ करनेसे, सौ वाजपेय-यज्ञ करनेसे और लाख बार पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह फल केवल प्रयागके कुम्भके स्नानसे प्राप्त होता है।'


*३. उज्जैन-स्नानकी महिमा*


कुशस्थलीमहाक्षेत्रं योगिनां माधवे धवले पक्षे सिंहे जीवे स्थानदुर्लभम् । अजे रवौ ॥ तुलाराशौ निशानाथे पूर्णायां पूर्णिमातिथौ । व्यतीपाते तु सञ्जाते चन्द्रवासरसंयुते । उज्जयिन्यां महायोगे स्नाने मोक्षमवाप्नुयात् ॥


(स्क० पु०, अवन्तीखण्ड)


अन्यत्र भी आया है-


'धारायां च तदा कुम्भो जायते खलु मुक्तिदः ।'


*४. नासिक-स्नानकी महिमा*


षष्टिवर्षसहस्त्राणि भागीरथ्यवगाहनम् । सकृद् गोदावरीस्नानं सिंहस्थे च बृहस्पतौ ।। 'जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर हो उस समय गोदावरीमें केवल एक बार स्नान करनेसे मनुष्य साठ हजार वर्षांतक गंगा स्नान करनेके सदृश पुण्य प्राप्त करता है।'


ब्रह्मवैवर्तपुराणमें लिखा गया है-


अश्वमेधफलं चैव लक्षगोदानजं फलम्। प्राप्नोति स्नानमात्रेण गोदायां सिंहगे गुरौ ॥


'जिस समय बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित हो, उस समय गोदावरीमें केवल स्नानमात्रसे ही मनुष्य अश्वमेध यज्ञ करनेका तथा एक लक्ष गो- दान करनेका पुण्य प्राप्त करता है।'


ब्रह्माण्डपुराणमें कहा गया है-


यस्मिन् दिने गुरुर्याति सिंहराशौ महामते। तस्मिन् दिने महापुण्यं नरः स्नानं समाचरेत् ॥

यस्मिन् दिने सुरगुरुः सिंहराशिगतो भवेत् । 

तस्मिस्तु गौतमीस्नानं कोटिजन्माघनाशनम् ।।

तीर्थानि नद्यश्च तथा समुद्राः

क्षेत्राण्यरण्यानि तथाऽऽ श्रमाश्च ।

वसन्ति सर्वाणि च वर्षमेकं 

गोदातटे सिंहगते सुरेज्ये ॥


कुम्भ-स्नानकी विधि एवं दानका महत्त्व


प्रातःकाल उठकर सर्वप्रथम देवस्मरण करना चाहिये। उसके पश्चात् शौचादि क्रियाओंसे निवृत्त होकर कुम्भ-पर्व-महत्त्वसूचक श्लोकोंका स्मरण करे। तदनन्तर यथासमय कुम्भ-स्नानार्थ गंगा आदि पवित्र नदीमें जाकर अपने दोनों हाथोंद्वारा कुम्भ-मुद्रा (कलश-मुद्रा) दिखलाकर और उसमें अमृतकी भावना कर निम्नलिखित श्लोकोंको पढ़ता हुआ स्नान करे-


मध्यमाने देवदानवसंवादे महोदधौ । उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्वयम् ॥ स्थिताः। त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ॥ शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः । आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः ॥ कामफलप्रदाः । त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः त्वत्प्रसादादिमं स्नानं कर्तुमीहे जलोद्भव ॥


सान्निध्यं कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा।


स्नान करनेके बाद सन्ध्या-तर्पणादिसे निवृत्त होकर गणपति-पूजनपूर्वक कुम्भ (कलश)-स्थापन करे। तदनन्तर श्रद्धा-भक्तिसे कुम्भका षोडशोपचारपूर्वक पूजन करे। तत्पश्चात् एक, चार, ग्यारह, इक्कीस अथवा यथाशक्ति सुवर्ण, रजत, ताम्र या पीतलके कलशोंमें घृत भरकर सुपात्र- योग्य विद्वानोंको 'घृत-कुम्भ' दान करे।


कुम्भ-पर्वके समय यथाविधि घृतपूर्ण कुम्भ (कलश) का पूजन कर उसे वस्त्रालंकार, आभूषण तथा सुवर्ण-खण्डसहित सदाचारी विद्वान्‌को देनेसे सैकड़ों गोदान करनेका फल मिलता है तथा मनुष्यके पितरोंकी आत्मा सन्तुष्ट होती है।


इसी प्रकार प्रत्येक कुम्भ-पर्वके तीर्थस्थानोंमें अनेकविध अन्न, द्रव्यादिके दान करनेसे करोड़ों तीर्थोंमें जानेका तथा सैकड़ों 'अश्वमेध- यज्ञ' करनेका फल प्राप्त होता है।



*कुम्भ मुद्रा (कलश मुद्रा)*


दक्षाङ्गुष्ठं परेऽङ्गुष्ठे क्षिप्त्वा हस्तद्वयेन च।

सावकाशां मुष्टिकां च कुर्यात् सा कुम्भमुद्रिका ॥