कहानी शीर्षक:
*दया की कीमत*
लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU
१. भोर का एक दृश्य
भोर की मद्धिम रोशनी धीरे-धीरे नगर के सरकारी क्वार्टरों पर फैल रही थी।
पेड़ों से गिरती ओस की बूँदें जैसे नई सुबह की प्रार्थना कर रही थीं।
अधिकारी डॉ. विधु रूपाशंकर हमेशा की तरह अपने कार्यालय के लिए निकलने को तैयार थीं। वे राज्य सरकार के शिक्षा विभाग में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत थीं — अनुशासन, कर्मनिष्ठा, सहयोग , परहित और संवेदना उनका परिचय था।
गाड़ी जैसे ही मुख्य सड़क पर पहुँची, डॉ. विधु रूपाशंकर की दृष्टि अचानक एक भीख माँगती वृद्धा पर पड़ी।
पतले बिखरे बाल, फटे वस्त्र, थरथराते हाथ, और आँखों में भय तथा लज्जा का मिश्रित भाव।
वह दृश्य उन्हें झकझोर गया।
कुछ पल तक वे उस वृद्धा को देखती रहीं, फिर अचानक उन्हें लगा — यह चेहरा कहीं देखा हुआ है... बहुत परिचित सा!
उनके मन की गहराइयों से कोई नाम उभर आया —
“ डॉ. मूर्खीता वास्तव?”
२. वह जो कभी विश्वविद्यालय की आत्मा थी
सालों पहले की स्मृतियाँ जैसे एक झोंके में लौट आईं।
जब डॉ. विधु रूपाशंकर विश्वविद्यालय में शोध कर रही थीं, तब वही डॉ. मूर्खीता वास्तव. वहाँ की वाइस चांसलर थीं — तब वह स्वयं अपने आपको विदुषी, तेजस्वी, प्रभावशाली मानती थी, और उसके चमचे भी कुछ ऐसा ही मानते थे।
उनकी एक कुटिल मुस्कान पर सैकड़ों राजनैतिक लोग, कक्षा ना लेने वाले वेतन भोगी शिक्षक एवं और केवल राजनीति करने वाले विद्यार्थी प्रेरित हो जाते थे।
कभी जिनके सामने बड़े-बड़े प्रोफेसर उसके पद और शक्ति के चलते झुकते थे,
आज वही महिला... भीख माँग रही थी, तथा दीन, हीन बनकर पड़ी है, हाय रे, भाग्य, हाय दुर्भाग्य!
डॉ. विधु रूपाशंकर की आत्मा जैसे सिहर उठी।
वे उतर पड़ीं, वृद्धा के पास पहुँचीं, और विनम्र स्वर में बोलीं
“ मैम... क्या आप डॉ. मुर्खीता वास्तव ही हैं?”
वृद्धा ने सिर उठाया। कुछ क्षण तक उनकी आँखों ने डॉ विधु खरे दास जी का चेहरा पढ़ा — फिर बोलीं —
“हाँ बेटी... पर अब उस नाम का क्या मूल्य? अब तो लोग मुझे बस ‘भिखारन’ , चोर और मुर्खा ही कहते हैं।”
डॉ. विधु रूपाशंकर की आँखें भर आईं।
वे बोलीं —
“मैम, आइए मेरे साथ। आप मेरे घर चलिए। अब आपको भीख नहीं माँगनी पड़ेगी।”
३. दया का द्वार
उस दिन डॉ. विधु रूपाशंकर ने वृद्धा को अपने घर में स्थान दिया।
छोटा-सा कमरा, साफ बिस्तर, और गरम भोजन का थाल उनके सामने रखा।
“मैम, मैं चाहती हूँ आप यहाँ रहें। घर की सफाई का हल्का-फुल्का काम कर लें, जिससे आत्मसम्मान भी बना रहे और आप सुरक्षित भी रहें।”
वृद्धा की आँखों से आँसू झर पड़े —
“बेटी... तू देवी है। जिसने मुझे इंसान समझा और मेरा पेट पालने के लिए मुझे आश्रय दिया।”
मैं लैट्रिन बाथरूम भी साफ कर दूंगी, मुझे कोई दिक्कत नहीं है।
धीरे-धीरे दिन बीतने लगे।
डॉ. मुर्खीता वास्तव अब घर की सफाई, रसोई में सहयोग और बगीचे की देखभाल करने लगीं।
वे चुपचाप, बिना शिकायत के, काम करतीं।
डॉ. विधु रूपाशंकर को लगता — शायद यही मानवता का अर्थ है: “जिस पर समाज ने दरवाज़े बंद कर दिए, उसके लिए एक खिड़की खोल देना।”
४. छिपा हुआ अतीत
लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।
एक दिन डॉ. विधु रूपाशंकर के पुराने सहकर्मी, प्रोफेसर राघव मिश्र, उनके घर मिलने के लिए आए।
चाय पीते-पीते अचानक उन्होंने पूछा —
" बड़ी बहन, यह जो आपकी घर की मददगार हैं... इनका चेहरा बहुत परिचित लग रहा है। कहीं ये वही डॉ. मुर्खीता वास्तव तो नहीं जो विश्वविद्यालय से घोटाले, चोरी, भ्रष्टाचार, डकैती के बाद फरार हो गई थीं?”
डॉ. विधु रूपाशंकर ने चौंक कर कहा —
“घोटाला, चोरी, भ्रष्टाचार और डकैती? आप क्या कह रहे हैं, सर?”
प्रोफेसर राघव मिश्र ने गहरी साँस ली —
“आपको नहीं पता? वाइस चांसलर रहते हुए उन्होंने करोड़ों के अनुसंधान फंड गायब कर दिए थे। कई दस्तावेज़ों में उनके हस्ताक्षर झूठे पाए गए थे, और विभिन्न मामलों में भ्रष्टाचार करते हुए पकड़ी गईं। जब मामला खुला, तो वे गायब हो गईं। उनके पति ने आत्महत्या कर ली... बेटा नशे में मर गया, अपने बहु और नातियों को खुद इसने मार दिया... और वो महिला वर्षों से लापता थीं।”
डॉ विधु खरे दास सन्न रह गईं।
मन में उठी दया अब संशय, क्रोध और पछतावे में बदलने लगी।
५. विश्वास का तिरस्कार
कुछ महीनों बाद, एक रात, जब शहर में तेज़ बारिश हो रही थी, डॉ विधु खरे दास गहरी नींद में थीं।
अचानक एक आवाज़ से उनकी नींद टूटी — “अलमारी का दरवाज़ा खुलने की आवाज़।”
वे उठीं, और देखा — डॉ. विधु रूपाशंकर का कमरा खाली था।
मुख्य द्वार खुला पड़ा था।
अलमारी टूटी हुई थी, और सारे गहने, नकद, कागज़ — सब गायब!
उनका हृदय जैसे रुक गया।
“नहीं... यह वही नहीं हो सकती जिसने मेरे सामने हाथ जोड़कर कहा था — ‘मैं तुम्हें देवी मानती हूँ, आपने मुझे रोटी और आश्रय दिया है।’”
पर सच्चाई सामने थी।
सुबह तक पुलिस बुलाई गई।
चौकीदार विशाल मौर्या ने बताया —
“मेमसाब, वो बूढ़ी औरत सुबह अंधेरे में बंडल लेकर भागी थी।”
६. न्याय और नियति
जाँच में जो सामने आया, उसने डॉ. विधु रूपाशंकर की दया को राख कर दिया और विश्वास को तोड़ दिया।
खरे जी प्रोफेसर राघव मिश्र के वाक्य को महसूस कर रही थी और पुनः स्वयं बुदबुदा रही थी कि: स्वास के टूटने से बड़ा दुःख विश्वास के टूटने पर होता है...
मुर्खीता वास्तव ने सिर्फ डॉ. विधु रूपाशंकर का नहीं, बल्कि पहले भी कई लोगों का विश्वास तोड़ा था।
वह शहर-शहर जाकर पहले दया की पात्र बनतीं, फिर चोरी कर भाग जातीं।
उसका पूर्ण जीवन जैसे “शापित” हो चुकी थी।
वो ज्ञान की नहीं, लालच की भूख लगा सकते में जी रही थीं — जो किसी समय दया की पात्र थीं, अब धन की पिपासु भूतनी बन चुकी थीं।
७. दया का अंत
कुछ दिनों बाद पुलिस ने खबर दी —
“वो महिला एक पुराने रेलवे स्टेशन पर मृत पाई गई हैं। उनके पास कुछ चोरी का सामान और टूटी हुई डायरी मिली है।”
डॉ. विधु रूपाशंकर ने वह डायरी पढ़ी।
अंदर लिखा था —
“मैंने सब कुछ खो दिया — पति, पुत्र, सम्मान। अब जो चुराती हूँ, वह वस्तुएँ नहीं, लोगों का विश्वास है। शायद यही मेरी सजा है।” या इससे भी कोई बड़ी सजा अभी नरक में बाकी हो...
डॉ. विधु रूपाशंकर की आँखें भर आईं और वह बोलीं —
“कितना विचित्र है — जब मन भूख से मर जाती है, तो रोटी नहीं, अपराध उसका भोजन बन जाता है।”
८. अंत — दया की कीमत
उस रात डॉ. विधु रूपाशंकर खिड़की के पास बैठी रहीं।
बारिश की बूँदें शीशे पर गिर रही थीं।
उन्होंने धीरे से कहा
“दया जब विवेक से अलग हो जाए, तो वह भी अपराध को जन्म देती है।”
उनकी आँखें बंद हुईं, और मन में एक प्रश्न गूंजा —
“क्या किसी का अतीत मिटाया जा सकता है, या वह हर जन्म में अपने कर्मों का बोझ उठाता रहता है?”
कहानी यहीं समाप्त होती है।
दया बनी रहती है, परंतु उसका मूल्य — ‘दया की कीमत’ — हमेशा मनुष्य के विवेक से तय होती है।
“हर भूख पेट की नहीं होती, कुछ भूखें आत्मा को भी खा जाती हैं।
दया तभी पवित्र है जब वह विवेक से जुड़ी हो, नहीं तो वह भी शिकार बन जाती है।”
@Dr. Raghavendra Mishra
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