Monday, 20 October 2025

 

यह एक अत्यंत गहन, नैतिक, और सामाजिक चेतना से ओत-प्रोत कहानी/नाटक “दया की कीमत” लिखी है। यह कथा मानव-स्वभाव, कर्मफल, और करुणा की सीमाओं को जिस गहराई से छूती है, वह नाट्य के रूप में अत्यंत उपयुक्त है।

यह नाटक तीन अंकों में विभाजित है, प्रत्येक अंक मानवता, विवेक और कर्मफल के तीन स्तरों का प्रतिनिधित्व करता है।

🎭 नाट्य रूपांतरण

शीर्षक: दया की कीमत

लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU
रूपांतरण: संवाद-प्रधान सामाजिक नाटक (३ अंक)

पात्रावली

1. डॉ. विधु रूपाशंकर — राज्य सरकार की संयुक्त सचिव, सुसंस्कृत, करुणामयी, परहितैषी, परंतु विवेकशील अधिकारी।


2. डॉ. मूर्खीता वास्तव — पूर्व कुलपति (Vice Chancellor), कभी ज्ञान और पद की शिखर पर रही, अब भिखारिन और चोर बनी  स्त्री।


3. प्रोफेसर राघव मिश्र — डॉ. विधु रूपाशंकर के परिचित, बुद्धिमान, विवेकी और चेतावनी देने वाले मित्र।


4. विशाल मौर्य — चौकीदार।


5. वाचक (Narrator) — जो मंच के बीच में समय-समय पर कहानी का भावात्मक सूत्र प्रस्तुत करता है। (प्रो. सुशील कुमार मिश्र)


6. सहायक पात्र — पुलिस अधिकारी, कुछ नागरिक, भीड़ इत्यादि (संकेत मात्र)।


अंक – १ : भोर की मुलाकात

[मंच-सज्जा: एक सड़क का कोना, बगल में सरकारी क्वार्टरों की झलक। पीछे हल्की रोशनी, ओस की बूँदें झिलमिलाती।]**

वाचक (धीरे-धीरे):
भोर की मद्धिम रोशनी नगर के सरकारी क्वार्टरों पर फैल रही थी।
ओस की बूँदें जैसे प्रार्थना कर रही थीं — “एक और दिन, एक और मौका...”
इसी क्षण, डॉ. विधु रूपाशंकर अपने दफ्तर के लिए निकलने को तैयार थीं।
वह नहीं जानतीं — आज उनका सामना अपने ही अतीत के एक धुंधले चेहरे से होने वाला है।

[लाइट सड़क पर केंद्रित। एक वृद्धा सड़क किनारे बैठी है, कटोरा फैला हुआ।]

डॉ विधु रूपाशंकर (कार से उतरते हुए):
हे भगवान... यह कैसी दशा! यह चेहरा... कहीं देखा हुआ है...
(रुककर ध्यान से देखती हैं)
नहीं... असंभव... क्या ये वही हैं?
(धीरे से पास जाकर)
मैम... क्या आप डॉ. मूर्खीता वास्तव ही हैं?

वृद्धा (धीरे से सिर उठाती हैं):
(टूटी आवाज़ में)
हाँ बेटी... वही हूँ... पर अब उस नाम का क्या मूल्य?
अब तो लोग मुझे “भिखारिन” कहते हैं... कोई पहचानता नहीं।

विधु (भावविह्वल होकर):
मैम... आप तो विश्वविद्यालय की आत्मा थीं!
आपके व्याख्यान, आपकी आवाज़ आज भी याद है मुझे।
आइए मेरे साथ चलिए — अब आपको भीख नहीं माँगनी पड़ेगी।

वृद्धा (रोते हुए):
बेटी... तू देवी है... जिसने मुझे इंसान समझा।
तेरी छत के नीचे रह लूँ तो शायद कुछ पाप धुल जाएँ।

[दोनों मंच से धीरे-धीरे बाहर जाते हैं। पृष्ठभूमि में वाचक की आवाज़ गूँजती है।]

वाचक:
यही तो है करुणा का पहला रूप — जो किसी के पतन में भी मनुष्य की झलक देख लेता है।
परंतु कभी-कभी करुणा, विवेक की आँखों को ढँक देती है...

अंक – २ : दया का घर

[मंच: डॉ. विधु का घर। एक साफ-सुथरा बैठक कक्ष। वृद्धा को एक छोटे कमरे में रखा गया है।]

विधु:
मैम, यह आपका कमरा है। गरम खाना, साफ बिस्तर, सब तैयार है।
आप घर की सफाई कर लें, आत्मसम्मान भी रहेगा और आपका ध्यान भी रहेगा।

वृद्धा:
(कृतज्ञ भाव से)
बेटी... तूने मुझ पर उपकार किया है।
मैं तेरे घर को अपना मंदिर समझूँगी।
(रुककर) मैं लैट्रिन-बाथरूम भी साफ कर लूँगी, कोई आपत्ति नहीं।

वाचक:
दिन बीतने लगे।
जो कभी विश्वविद्यालय की अधिष्ठात्री थीं,
अब बाथरूम साफ कर रही थीं — और यही नियति का सबसे सूक्ष्म व्यंग्य था।

[मंच पर प्रवेश — प्रोफेसर राघव मिश्र।]

राघव:
(हँसते हुए) अरे विधु! पुरानी छात्रा अब बड़ी अफ़सर बन गई है!
(रुकते हैं, वृद्धा को देखते हैं)
यह आपकी गृह सहायक हैं? चेहरा बड़ा परिचित लग रहा है...

विधु:
जी हाँ, ये डॉ. मूर्खीता वास्तव हैं — कभी वैशाली विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर थीं।

राघव (चौंककर):
क्या कहा आपने? वही महिला?
वो जिसने करोड़ों के अनुसंधान फंड गायब किए थे?
जिसके कारण कितने छात्र बरबाद हुए?

विधु (हैरान):
क्या... ये सब सच है?

राघव (गंभीर स्वर में):
जी हाँ।
उनके पति ने आत्महत्या की, बेटे ने नशे में जान दी।
उन्होंने अपने ही परिवार को निगल लिया।
वह ज्ञान की नहीं, लालच की भूख में जीती थीं।

[वृद्धा यह सब सुन लेती हैं, लेकिन मौन रहती हैं। उनकी आँखों में एक जली हुई शर्म झलकती है।]

वाचक:
विश्वास की जड़ें तभी हिलती हैं जब सत्य और दया आमने-सामने खड़े होते हैं...

अंक – ३ : दया की कीमत

[मंच: रात का दृश्य। बाहर बारिश हो रही है। घर में अँधेरा।]

(संगीत: हल्की थरथराती ध्वनि, जैसे भीतर कुछ टूट रहा हो)

वाचक:
उस रात शहर में वर्षा थी...
और उसी वर्षा के शोर में विश्वास की आख़िरी साँसें घुल रही थीं।

[अचानक अलमारी की आवाज़। विधु जागती हैं, दौड़कर बाहर आती हैं।]

विधु:
कौन है वहाँ?...
(लाइट पड़ती है — दरवाज़ा खुला है, कमरा खाली)
हे भगवान!... अलमारी टूटी हुई... सब गहने, कागज़, पैसे — गायब!

[विशाल चौकीदार दौड़कर आता है]

विशाल:
मेमसाब, वो बूढ़ी औरत सुबह-अंधेरे में बंडल लेकर भागी थी... मैंने देखा।

विधु (थकी हुई आवाज़ में):
(धीरे से बैठ जाती हैं)
मैंने उसे देवी माना... उसने मुझे ठगा।
(गहरी साँस) शायद ये ही मेरी गलती थी — मैंने दया को विवेक से ऊपर रखा।

[प्रकाश धीमा होता है — पुलिस अधिकारी प्रवेश करता है, हाथ में डायरी लेकर।]

पुलिस अधिकारी:
मेमसाब, वो महिला मृत पाई गई हैं... पुराने रेलवे स्टेशन के पास।
उनके पास कुछ चोरी का सामान और यह डायरी मिली है।

विधु (डायरी खोलकर पढ़ती हैं):
“मैंने सब खो दिया — पति, पुत्र, सम्मान।
अब जो चुराती हूँ, वह वस्तुएँ नहीं, लोगों का विश्वास है।
शायद यही मेरी सजा है... या इससे बड़ी सजा अभी बाकी है।”

[सन्नाटा। वर्षा की आवाज़ बढ़ती है।]

विधु (आँखें बंद कर):
कितना विचित्र है — जब आत्मा भूख से मर जाती है,
तो अपराध ही उसका भोजन बन जाता है।
(धीरे से उठती हैं)
दया जब विवेक से अलग हो जाए, तो वह भी अपराध को जन्म देती है।

वाचक (अंतिम संवाद):
हर भूख पेट की नहीं होती — कुछ भूखें आत्मा को भी खा जाती हैं।
दया तभी पवित्र है जब वह विवेक से जुड़ी हो,
नहीं तो वह भी शिकार बन जाती है...

[लाइट धीरे-धीरे बुझती है, केवल वर्षा की ध्वनि गूँजती है। मंच अंधकार में डूब जाता है।]

नाट्य संदेश (थीम):

“करुणा तभी दिव्यता है जब वह विवेक से संचालित हो।
अन्यथा, वह अपराध के लिए अवसर बन जाती है।”


@Dr. Raghavendra Mishra 

 कहानी शीर्षक:


 *दया की कीमत*


लेखक: डॉ. राघवेन्द्र मिश्र, JNU 


१. भोर का एक दृश्य


भोर की मद्धिम रोशनी धीरे-धीरे नगर के सरकारी क्वार्टरों पर फैल रही थी।

पेड़ों से गिरती ओस की बूँदें जैसे नई सुबह की प्रार्थना कर रही थीं।


अधिकारी डॉ. विधु रूपाशंकर  हमेशा की तरह अपने कार्यालय के लिए निकलने को तैयार थीं। वे राज्य सरकार के शिक्षा विभाग में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत थीं — अनुशासन, कर्मनिष्ठा, सहयोग , परहित और संवेदना उनका परिचय था।


गाड़ी जैसे ही मुख्य सड़क पर पहुँची, डॉ. विधु रूपाशंकर  की दृष्टि अचानक एक भीख माँगती वृद्धा पर पड़ी।

पतले बिखरे बाल, फटे वस्त्र, थरथराते हाथ, और आँखों में भय तथा लज्जा का मिश्रित भाव।


वह दृश्य उन्हें झकझोर गया।

कुछ पल तक वे उस वृद्धा को देखती रहीं, फिर अचानक उन्हें लगा — यह चेहरा कहीं देखा हुआ है... बहुत परिचित सा!


उनके मन की गहराइयों से कोई नाम उभर आया —

“ डॉ. मूर्खीता वास्तव?”


२. वह जो कभी विश्वविद्यालय की आत्मा थी


सालों पहले की स्मृतियाँ जैसे एक झोंके में लौट आईं।

जब डॉ. विधु रूपाशंकर  विश्वविद्यालय में शोध कर रही थीं, तब वही डॉ. मूर्खीता वास्तव.  वहाँ की वाइस चांसलर थीं — तब वह स्वयं अपने आपको विदुषी, तेजस्वी, प्रभावशाली मानती थी, और उसके चमचे भी कुछ ऐसा ही मानते थे।

उनकी एक कुटिल मुस्कान पर सैकड़ों राजनैतिक लोग, कक्षा ना लेने वाले वेतन भोगी शिक्षक एवं और केवल राजनीति करने वाले विद्यार्थी प्रेरित हो जाते थे।


कभी जिनके सामने बड़े-बड़े प्रोफेसर उसके पद और शक्ति के चलते झुकते थे,

आज वही महिला... भीख माँग रही थी, तथा दीन, हीन बनकर पड़ी है, हाय रे, भाग्य, हाय दुर्भाग्य!


डॉ. विधु रूपाशंकर  की आत्मा जैसे सिहर उठी।

वे उतर पड़ीं, वृद्धा के पास पहुँचीं, और विनम्र स्वर में बोलीं 


 “ मैम... क्या आप डॉ. मुर्खीता वास्तव ही हैं?”




वृद्धा ने सिर उठाया। कुछ क्षण तक उनकी आँखों ने डॉ विधु खरे दास जी का चेहरा पढ़ा — फिर बोलीं —


 “हाँ बेटी... पर अब उस नाम का क्या मूल्य? अब तो लोग मुझे बस ‘भिखारन’ , चोर और मुर्खा ही कहते हैं।”




डॉ. विधु रूपाशंकर  की आँखें भर आईं।

वे बोलीं —


“मैम, आइए मेरे साथ। आप मेरे घर चलिए। अब आपको भीख नहीं माँगनी पड़ेगी।”


३. दया का द्वार


उस दिन डॉ. विधु रूपाशंकर  ने वृद्धा को अपने घर में स्थान दिया।

छोटा-सा कमरा, साफ बिस्तर, और गरम भोजन का थाल उनके सामने रखा।


 “मैम, मैं चाहती हूँ आप यहाँ रहें। घर की सफाई का हल्का-फुल्का काम कर लें, जिससे आत्मसम्मान भी बना रहे और आप सुरक्षित भी रहें।”



वृद्धा की आँखों से आँसू झर पड़े —


 “बेटी... तू देवी है। जिसने मुझे इंसान समझा और मेरा पेट पालने के लिए मुझे आश्रय दिया।”

मैं लैट्रिन बाथरूम भी साफ कर दूंगी, मुझे कोई दिक्कत नहीं है।



धीरे-धीरे दिन बीतने लगे।

 डॉ. मुर्खीता वास्तव अब घर की सफाई, रसोई में सहयोग और बगीचे की देखभाल करने लगीं।

वे चुपचाप, बिना शिकायत के, काम करतीं।


डॉ. विधु रूपाशंकर  को लगता — शायद यही मानवता का अर्थ है: “जिस पर समाज ने दरवाज़े बंद कर दिए, उसके लिए एक खिड़की खोल देना।”


४. छिपा हुआ अतीत


लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।

एक दिन डॉ. विधु रूपाशंकर  के पुराने सहकर्मी, प्रोफेसर राघव मिश्र, उनके घर मिलने के लिए आए।


चाय पीते-पीते अचानक उन्होंने पूछा —


" बड़ी बहन, यह जो आपकी घर की मददगार हैं... इनका चेहरा बहुत परिचित लग रहा है। कहीं ये वही डॉ. मुर्खीता वास्तव  तो नहीं जो विश्वविद्यालय से घोटाले, चोरी, भ्रष्टाचार, डकैती के बाद फरार हो गई थीं?”



डॉ. विधु रूपाशंकर  ने चौंक कर कहा —


 “घोटाला, चोरी, भ्रष्टाचार और डकैती? आप क्या कह रहे हैं, सर?”




 प्रोफेसर राघव मिश्र ने गहरी साँस ली —

 “आपको नहीं पता? वाइस चांसलर रहते हुए उन्होंने करोड़ों के अनुसंधान फंड गायब कर दिए थे। कई दस्तावेज़ों में उनके हस्ताक्षर झूठे पाए गए थे, और विभिन्न मामलों में भ्रष्टाचार करते हुए पकड़ी गईं। जब मामला खुला, तो वे गायब हो गईं। उनके पति ने आत्महत्या कर ली... बेटा नशे में मर गया, अपने बहु और नातियों को खुद इसने मार दिया... और वो महिला वर्षों से लापता थीं।”




डॉ विधु खरे दास सन्न रह गईं।

मन में उठी दया अब संशय, क्रोध और पछतावे में बदलने लगी।


५. विश्वास का तिरस्कार


कुछ महीनों बाद, एक रात, जब शहर में तेज़ बारिश हो रही थी, डॉ विधु खरे दास गहरी नींद में थीं।

अचानक एक आवाज़ से उनकी नींद टूटी — “अलमारी का दरवाज़ा खुलने की आवाज़।”


वे उठीं, और देखा — डॉ. विधु रूपाशंकर  का कमरा खाली था।

मुख्य द्वार खुला पड़ा था।


अलमारी टूटी हुई थी, और सारे गहने, नकद, कागज़ — सब गायब!


उनका हृदय जैसे रुक गया।

 “नहीं... यह वही नहीं हो सकती जिसने मेरे सामने हाथ जोड़कर कहा था — ‘मैं तुम्हें देवी मानती हूँ, आपने मुझे रोटी और आश्रय दिया है।’”



पर सच्चाई सामने थी।


सुबह तक पुलिस बुलाई गई।

चौकीदार विशाल मौर्या ने बताया —


 “मेमसाब, वो बूढ़ी औरत सुबह अंधेरे में बंडल लेकर भागी थी।”


६. न्याय और नियति


जाँच में जो सामने आया, उसने डॉ. विधु रूपाशंकर  की दया को राख कर दिया और विश्वास को तोड़ दिया।

खरे जी प्रोफेसर राघव मिश्र के वाक्य को महसूस कर रही थी और पुनः स्वयं बुदबुदा रही थी कि: स्वास के टूटने से बड़ा दुःख विश्वास के टूटने पर होता है...


मुर्खीता वास्तव ने सिर्फ डॉ. विधु रूपाशंकर  का नहीं, बल्कि पहले भी कई लोगों का विश्वास तोड़ा था।

वह शहर-शहर जाकर पहले दया की पात्र बनतीं, फिर चोरी कर भाग जातीं।


उसका पूर्ण जीवन जैसे “शापित” हो चुकी थी।

वो ज्ञान की नहीं, लालच की भूख लगा सकते में जी रही थीं — जो किसी समय दया की पात्र थीं, अब धन की पिपासु भूतनी बन चुकी थीं।


७. दया का अंत


कुछ दिनों बाद पुलिस ने खबर दी —


 “वो महिला एक पुराने रेलवे स्टेशन पर मृत पाई गई हैं। उनके पास कुछ चोरी का सामान और टूटी हुई डायरी मिली है।”



डॉ. विधु रूपाशंकर  ने वह डायरी पढ़ी।

अंदर लिखा था —


“मैंने सब कुछ खो दिया — पति, पुत्र, सम्मान। अब जो चुराती हूँ, वह वस्तुएँ नहीं, लोगों का विश्वास है। शायद यही मेरी सजा है।” या इससे भी कोई बड़ी सजा अभी नरक में बाकी हो...


डॉ. विधु रूपाशंकर  की आँखें भर आईं और वह बोलीं —

“कितना विचित्र है — जब मन भूख से मर जाती है, तो रोटी नहीं, अपराध उसका भोजन बन जाता है।”


८. अंत — दया की कीमत


उस रात डॉ. विधु रूपाशंकर  खिड़की के पास बैठी रहीं।

बारिश की बूँदें शीशे पर गिर रही थीं।

उन्होंने धीरे से कहा 

 “दया जब विवेक से अलग हो जाए, तो वह भी अपराध को जन्म देती है।”


उनकी आँखें बंद हुईं, और मन में एक प्रश्न गूंजा —

“क्या किसी का अतीत मिटाया जा सकता है, या वह हर जन्म में अपने कर्मों का बोझ उठाता रहता है?”


कहानी यहीं समाप्त होती है।

दया बनी रहती है, परंतु उसका मूल्य — ‘दया की कीमत’ — हमेशा मनुष्य के विवेक से तय होती है।


“हर भूख पेट की नहीं होती, कुछ भूखें आत्मा को भी खा जाती हैं।

दया तभी पवित्र है जब वह विवेक से जुड़ी हो, नहीं तो वह भी शिकार बन जाती है।”



@Dr. Raghavendra Mishra